-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
सोनिया कांग्रेस का संकट थमने का नाम नहीं ले रहा। राजस्थान में सचिन पायलट मुख्यमंत्री बनने की इच्छा पाल रहे हैं। राजनीति में यह कोई बुरी बात नहीं है। इतना ही नहीं सचिन यह भी मान कर चल रहे हैं कि पिछली बार राजस्थान में कांग्रेस उनके बलबूते ही सत्ता के आसन तक पहुंची है। लेकिन सोनिया गान्धी ने उनके स्थान पर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया था। सोनिया गान्धी परिवार में राहुल गान्धी व प्रियंका गान्धी सचिन के पक्ष में ही थे। लेकिन अशोक गहलोत ने उनकी एक नहीं चलने दी। अब विधानसभा के चुनाव फिर सिर पर आ रहे हैं। राहुल-प्रियंका गान्धी ने अशोक गहलोत को पार्टी अध्यक्ष का झुनझुना पकड़ाना चाहा ताकि सचिन को मुख्यमंत्री बना दिया जाए। लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी अशोक गहलोत ने ऐसा धोबी पटका मारा कि पूरी पार्टी की किरकिरी हो गई। अब लगता है सचिन पायलट ने निर्णय कर लिया है कि वे अपनी भविष्य की राजनीति के लिए राहुल-प्रियंका के समर्थन पर निर्भर नहीं रह सकते। वैसे भी उनके दूसरे युवा साथी सोनिया कांग्रेस का पल्ला छोड़ भारतीय जनता पार्टी में जा चुके हैं। शायद यही कारण है कि सचिन पायलट राजस्थान में अपनी ही पार्टी के खिलाफ धरना दे रहे हैं।
पार्टी ने अनुशासन में रहने के लिए कहा और अनुशासन में न रहने पर सख्ती की धमकियां भी दीं। लेकिन हाईकमान की ये धमकियां उन दिनों काम करती थीं जिन दिनों कांग्रेस के नेताओं को लगता था कि चुनाव में उनकी जीत सोनिया परिवार के कारण होती है। लेकिन अब मामला उल्ट गया लगता है। अब अशोक गहलोत या सचिन पायलट को लगता है कि राजस्थान में जीत उनके कारण होती है। उनकी जीत के कारण सोनिया गान्धी परिवार का भारत की राजनीति में रुतबा बढ़ता है। यदि पायलट या गहलोत जैसे लोग राज्यों में जीत दर्ज नहीं करवा पाएंगे तो दिल्ली में सोनिया परिवार को कौन पूछेगा? सोनिया परिवार केवल इतना ही कर पाया कि उसने कर्नाटक चुनाव में स्टार प्रचारकों की सूची में सचिन पायलट का नाम शामिल नहीं किया। जाहिर है सचिन पायलट अपनी राजनीति राजस्थान में कर रहे हैं, उनको कर्नाटक जाने की कोई छटपटाहट नहीं हो रही होगी। लेकिन इससे ज्यादा सजा सोनिया परिवार सचिन पायलट को दे ही नहीं सकता। दूसरा किस्सा बिहार के बाहुबली आनन्द मोहन का है। आजकल किस्से बाहुबलियों के ही चल रहे हैं, चाहे वह अतीक अहमद हो, मुख्तार अंसारी हो या फिर पंजाब की जेल में बन्द लारेंस बिश्नोई हो। लारेंस बिश्नोई की ख़ूबी यह है कि वह जेल में होने के बावजूद अपने वीडियो बना कर बाहुबली होने का प्रमाण देता रहता है। हर सरकार का बाहुबलियों से निपटने का अपना-अपना तरीका है। पंजाब सरकार का अपना है, उत्तर प्रदेश सरकार का अपना है। लेकिन तभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लगा कि इस मामले में उनके शासन की छवि धूमिल होती जा रही है। उनके बाहुबली भी मैदान में आने चाहिए।
लेकिन समस्या गहरी थी। एक बाहुबली शहाबुद्दीन की तो अरसे पहले जेल में ही मौत हो गई थी। छोटे मोटे बाहुबलियों से काम चलने वाला नहीं था। आखिर उत्तर प्रदेश का अतीक और मुख्तार अंसारी, पंजाब का लारेंस बिश्नोई तो बिहार का भी उसी पाए का होना चाहिए था। नीतीश कुमार सारे काम धंधे छोड़ कर इसी काम में लग गए। खोजबीन शुरू हुई तो पुराने साथियों की सूचियां निकाली गईं। अतीक अहमद लोकसभा का सदस्य तक रह चुका था। तो नीतीश कुमार जी का बाहुबली भी उसी पाए का होना चाहिए। सारे पैरामीटर चैक किए गए तो आनन्द मोहन नम्बर एक पर आया। उसने तो अपने साथियों समेत गोपालगंज के जिलाधीश की ही उसकी सरकारी गाड़ी से खींच कर सार्वजनिक रूप से हत्या कर दी थी। जिलाधीश अनुसूचित जाति के थे। युवा थे। उत्साह में रहते थे। वैसे यह भी कहा जाता है कि आनन्द मोहन मारना किसी दूसरे जिलाधीश को चाहते थे लेकिन पकड़ में चन्द्रशेखर आ गए। गवाह इत्यादि को पकडऩे पकड़ाने के बाद भी आनन्द मोहन को फांसी की सजा हो गई। साथ बीस पच्चीस चेले चपाटे भी थे। छोटे स्तर के गैंगस्टर। मामला उच्चतम न्यायालय तक गया। तो उच्चतम न्यायालय ने फांसी से आनन्द मोहन को बचा लिया, लेकिन चेलों चपाटों समेत आजीवन कारावास की सजा सुना दी। लेकिन राजनीतिज्ञों का काम बाहुबलियों के बिना चलता नहीं। अपनी अपनी जरूरतों का सवाल है। अब पंजाब में सिद्धू मूसेवाला के पिता जी सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं कि मेरे बेटे की हत्या फलां-फलां व्यक्ति ने करवाई है। उनका कहना है कि पंजाब सरकार असली हत्यारों को पकड़ नहीं रही, चेले चपाटों को हिरासत में लेकर कर्मकांड निपटा रही है। अब आम आदमी पार्टी की क्या विवशता है, यह तो भगवंत मान ही जानते होंगे। नीतीश बाबू भी पिछले कुछ अरसे से अपने बिहार प्रदेश के बाहुबली आनन्द मोहन को पुन: रण क्षेत्र में उतारने के काम में लगे हुए थे। लेकिन आनन्द मोहन जेल में हैं।