-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
भारत की कुछ जातियों की एक सूची तैयार की गई है जिसके कारण इन जातियों को अनुसूचित जाति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी भाषा में इसे संक्षेप में एससी कहा जाता है। इस सूची में शामिल जातियों के लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। भारतीय या हिंदू सामाजिक व्यवस्था में इन जातियों के साथ इनकी जाति के कारण ही भेदभाव किया जाता है। उनके साथ दूसरी जातियों के लोग खाते-पीते नहीं हैं। उनकी बस्तियां गांव से बाहर होती हैं। इतना ही नहीं कई जातियों को तो अछूत ही मान लिया जाता है। शादी विवाह में खाने के लिए इन जातियों के लोगों की पंक्ति कई जगह अलग लगा दी जाती है। यह हिंदू समाज का भीतरी रोग है जिसे दूर करने के अनेक उपाय सदियों से होते रहे हैं। बाबा साहिब अंबेडकर ने एक बार कहा था कि यह हिंदू समाज का गुण है कि वह समय समय पर अपने भारत आ गई बीमारियों को दूर करने के प्रयास भी करता रहता है। भेदभाव की बीमारी को दूर करने और सामाजिक समरसता स्थापित करने के अनेक उपाय किए जाते रहे हैं। उनमें से एक उपाय है अनुसूचित जातियों का सशक्तिकरण।
सरकारी नौकरियों में आरक्षण उनमें से मात्र एक प्रावधान है। सत्ता में भागीदारी दूसरा प्रावधान है। यही कारण है कि विधान सभाओं व लोकसभा में भी अनुसूचित जातियों के प्रत्याशियों के लिए कुछ सीटें आरक्षित रखी जाती हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों से भारत में रह रहे एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल-मंगोल) मूल के मुसलमान एक बड़े अभियान में लगे हुए हैं। उनकी कोशिश है कि भारत के देसी मुसलमान (डीएम) को भी अनुसूचित जाति की तर्ज पर आरक्षण दिलवाया जाए। लेकिन उनके दुर्भाग्य से इस्लाम में जाति की कोई अवधारणा नहीं है। सामाजिक व्यवस्था में जाति की अवधारणा केवल हिंदू समाज में ही है। यह सामाजिक व्यवस्था अच्छी है या बुरी है, यह एक अलग प्रश्न है। लेकिन इस व्यवस्था के अस्तित्व से कोई इन्कार नहीं कर सकता। जिनको आज की वैधानिक शब्दावली में एससी कहा जाता है, उनमें से बहुत सी जातियां एटीएम के शासन काल में इस्लाम में शामिल कर ली गई थीं। ऐसा नहीं कि इन जातियों ने इसका विरोध नहीं किया। बल्कि यदि इतिहास को सही रूप से परखा जाए तो अरबों, तुर्कों व मुगल हमलावरों से स्थान स्थान पर इन्हीं जातियों के लोगों ने मुकाबला किया। परन्तु हमलावरों की विजय के बाद, इसका सबसे ज्यादा दंश भी इन्हीं जातियों को झेलना पड़ा।
इनको इस्लाम में शामिल किया जाना भी इसी का परिणाम था। परन्तु 1947 के बाद देश में से सभी विदेशी शासकों मसलन- अरबों, तुर्कों, मुगलों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों व अंग्रेजों के शासन का अन्त हो गया। देश में लोकतन्त्र की स्थापना हुई। नई शासन व्यवस्था में अनुसूचित जातियों को भी हिस्सेदारी मिली। इसलिए यह सुगबुगाहट भी होने लगी कि इन जातियों के जो लोग इस्लाम में धकेल दिए गए थे, वे वापिस अपने घर लौट आएं। इस सुगबुगाहट से एटीएम मूल के मुसलमान घबरा गए। उनकी घबराहट समझ में आती थी। एटीएम भारत में अभी भी इन्हीं देसी मुसलमानों के बलबूते अपना उल्लू सीधा कर रहा है। उनकी संख्या आटे में नमक के बराबर भी नहीं है, लेकिन वह देसी मुसलमानों को हांक कर, उनके संख्या बल पर विधान सभाओं या लोकसभा में पहुंचता है। देसी मुसलमान को मजहब की घुट्टी पिला कर स्वयं नौकरशाही में बड़े पद झटक लेता है। एटीएम को लगता है यदि देसी मुसलमान हिल गया तो एटीएम की हवेलियां धराशायी हो जाएंगी। इसलिए वह उसे आश्वस्त कर रहा है कि आप को भी अनुसूचित जाति की तजऱ् पर आरक्षण दिलवा दिया जाएगा।
लेकिन यह कैसे सम्भव हो सकता है? बाबा साहिब अंबेडकर ने भी इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया था। लेकिन उन्होंने देसी मुसलमान के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था करने से इन्कार कर दिया था। एटीएम ने इसका भी चोर दरवाजा खोज निकाला था। उसने सोनिया कांग्रेस से तालमेल बिठा कर भीमसेन सच्चर, जिन्होंने 1947 के बाद पाकिस्तान संविधान सभा का सदस्य बने रहने को वरीयता दी थी, के सुपुत्र राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बना दी थी। इस कमेटी ने अपनी रपट में कहा था कि भारत में मुसलमानों के साथ बहुत ही अन्याय हो रहा है। उनका शोषण हो रहा है और वे अत्यन्त पिछड़े हुए हैं। उसके कुछ साल बाद, यूपीए की सरकार ने ओडीशा के एक सज्जन रंगनाथ मिश्रा, जो कभी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी रह चुके थे, की अध्यक्षता में एक दूसरा आयोग गठित किया। इस आयोग ने भी राजेन्द्र सच्चर कमेटी की तजऱ् पर वही घोषणा की कि देसी मुसलमान के साथ घोर अन्याय हो रहा है। जाहिर है यह सारी कसरत इसलिए की जा रही थी कि कल को न्यायालय में जाकर इन महापुरुषों की रपटों को सबूत के तौर पर पेश किया जा सके और देसी मुसलमानों के लिए भी आरक्षण की मांग की जा सके। एक बार उनको आरक्षण दिलवा दिया तो उनका अपने पुराने पुश्तैनी घर में चले जाने का ख़तरा टल जाएगा और एटीएम इस भीड़ में छिप कर फिर मौज करेगा। और सचमुच जिसका शक था, वही हुआ।
कुछ लोग राजेन्द्र सच्चर और रंगनाथ मिश्रा की रपटों की भारी भरकम पोथियां लेकर उच्चतम न्यायालय की ओर भागते देखे गए। तर्क पर तर्क दिए जा रहे हैं। किसी भी तरीके से आरक्षण दिलवाना है, नहीं तो महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक का सब किया कराया मिट्टी में मिल जाएगा। प्रश्न यह है कि एटीएम मुसलमानों के लिए किस आधार पर आरक्षण मांग रहा है? एटीएम का कहना है कि इन मुसलमानों में भी जाति है। यदि कोई यह कहता है कि वह मुसलमान भी है और उसकी जाति भी है तो या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वह मुसलमान नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती। इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है। यह सामाजिक व्यवस्था केवल हिंदू समाज में ही है। अब एटीएम क्या यह मांग कर रहा है कि पहले तो उच्चतम न्यायालय इस्लाम की मूल अवधारणा में ‘जाति की अवधारणा’ ट्रांसप्लांट करे और यह कठिन काम निपटाने के बाद कुछ निश्चित जातियों को आरक्षण की व्यवस्था करे। लेकिन मुख्य प्रश्न यही है कि क्या हजऱत मोहम्मद द्वारा स्थापित और पारिभाषित इस्लाम की मूल अवधारणा को किसी एक देश, उदाहरण के लिए भारत की न्यायपालिका बदल सकती है? सुनवाई के दौरान शायद भारत के मुख्य न्यायाधीश इसी का जवाब मांग रहे थे। एटीएम के पास क्या इसका कोई उत्तर है? उत्तर हो ही नहीं सकता क्योंकि एटीएम मूल के मुसलमानों की अपनी कोई जाति नहीं है।