पशुपालन को लाभदायक बनाने के आयाम

asiakhabar.com | April 12, 2023 | 5:04 pm IST
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-कुलभूषण उपमन्यु-
भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश है जिसकी आधे से ज्यादा आबादी पूर्णत: या बहुत हद तक कृषि पर ही आजीविका के लिए निर्भर है। कृषि कार्य का भारतवर्ष का इतिहास हजारों साल पुराना है। यहां करीब 12 हजार साल से कृषि की जा रही है। यहां कृषि कार्य को शुरू से ही पशुपालन से जोड़ कर देखा गया। इस कारण भूमि को पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद मिलता रहा और इसी के चलते हजारों वर्षों के बाद भी कृषि भूमि उपजाऊ बनी हुई है। जबकि पश्चिमी देश खास कर अमेरिका जैसे देश जो कुछ सौ वर्ष के खेती के इतिहास के बावजूद भी भूमि की उर्वरता शक्ति के ह्रास की समस्याओं से दो चार होने लग पड़े हैं। इसके अलावा पशुपालन किसान के लिए अतिरिक्त नकद आय का साधन रहा है। इसी कारण पशु धन को माल भी कहा जाता रहा है। पशु पालकों को मालधारी कहा जाता रहा है।
औद्योगिक क्रांति से पहले तक ऊर्जा का मुख्य साधन भी पशु ही रहा है। दुर्भाग्य से औद्योगिकरण-मशीनीकरण के चलते पशु शक्ति का सीधे सीधे ऊर्जा के रूप में प्रयोग तो घटता ही जा रहा है, जिस कारण पशुपालन भी घाटे का सौदा होता जा रहा है। लोग अनुत्पादक पशुओं को खुला लावारिस छोड़ रहे हैं। इससे एक ओर रासायनिक खाद पर अतिनिर्भरता बढ़ रही है जो भूमि की उपजाऊ शक्ति के लिए घातक है, दूसरी ओर किसान, जो पहले ही कृषि में लाभ की कमी की चपेट में है, वह पशु धन के रूप में उपलब्ध संसाधन से राहत प्राप्त करने की क्षमता का उपयुक्त दोहन भी नहीं कर पा रहा है। इसलिए पशुधन के वैकल्पिक उपयोग के बारे में सोच कर नवाचार को बढ़ावा देकर कुछ रास्ते निकल सकते हैं। भारतवर्ष में गाय और भैंस की कुल संख्या 30 करोड़ के लगभग है। 12 किलो प्रति पशु की दर से प्रतिदिन 360 करोड़ किलो गोबर पैदा होता है। एक किलो बायो गैस बनाने के लिए 20 किलो गोबर चाहिए। इसका अर्थ हुआ 18 करोड़ किलो गैस प्रति दिन। इसे सिलिंडर में भरें तो एक करोड़ बीस लाख सिलिंडर रोज़ की क्षमता देश में है। यदि इस संसाधन को पूरी तरह से प्रयोग करने की क्षमता हासिल कर ली जाए तो देश की 50 फीसदी ऊर्जा जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। इसके लिए सारी तकनीक तो उपलब्ध ही है। केवल इच्छा शक्ति के साथ जुट जाने की बात है। गोबर गैस बनाने के दोहरे फायदे हैं। एक तो ऊर्जा पैदा होगी, जो हमारी खनिज तेल पर निर्भरता को कम करेगी, दूसरे बढिय़ा खाद भी प्राप्त होगी, किसान को नकद लाभ होगा और खनिज तेल का उपयोग कम होने से वायु प्रदूषण भी कम होगा। इतने बड़े संसाधन के होते हुए इसकी अनदेखी करना ठीक नहीं है।
इस संसाधन के दोहन से कितने ही रोजगार भी पैदा होंगे। इसी तरह गोमूत्र का दवाई के लिए उपयोग करके भी किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है। आज कल गोबर से अन्य कई तरह के उत्पाद बनाने का भी चलन हुआ है। गोबर से कागज़ बनाया जा रहा है, जो अच्छी गुणवत्ता का है और कागज़ बनाने की प्रक्रिया के बाद बचे अवशेषों से खाद बनाई जा सकती है। इससे भी पेड़ बिना काटे कागज़ उत्पादन करके पर्यावरण संरक्षण भी होगा। गोबर के साथ थोड़ी मिट्टी मिला कर बढिय़ा गमले व दीये आदि भी बनाए जा रहे हैं। इसके लिए छोटी छोटी मशीनें भी उपलब्ध हैं। इसके अलावा गो काष्ठ का भी उत्पादन लाभदायक हो सकता है। इसके लिए अलग अलग डाई से गोल या चौकोर गोबर की लकडिय़ां बनाई जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश और राजस्थान में इन लकडिय़ों का प्रयोग हवन और शवदाह के लिए करने का चलन बढ़ रहा है। ये लकडिय़ां बनाने की मशीन भी उपलब्ध है जो दबाव से एक सिरे से गोबर डाल कर दूसरे सिरे से लकड़ी निकालती है। इन लकडिय़ों को उपलों की तरह सुखा कर उपलों से कहीं ज्यादा अच्छा ईंधन प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि यह दबाव द्वारा सख्त किया जाता है। इन लकडिय़ों के अच्छे प्रज्वलन के लिए इनके बीच में एक इंच का छेद रहता है। शव दाह के लिए दो क्विंटल गोबर लकड़ी पर्याप्त होती है। 6-7 रुपए किलो तक बिक जाती है। इसके अलावा जैविक खाद बना कर बेचना भी काफी लाभदायक हो सकता है। इसकी मांग भी बहुत है। गोबर में 20 फीसदी मिट्टी और चूना मिला कर ईंटें भी बनाई जा रही हैं जो मकान को गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म रखती हैं। ऐसी संभावनाओं का दोहन किया जाना चाहिए जिसे सरकार द्वारा प्रोत्साहन देकर और तकनीक एवं मशीनरी की जानकारी और प्रशिक्षण दिलवा कर संभव किया जा सकता है। एक बिल्कुल नई संभावना का द्वार भी खुल रहा है। आईआईटी से पढ़े डॉ. सत्य प्रकाश वर्मा ने गोबर से नैनो सेलुलोस बनाने की विधि इजाद की है।
यह बहुत कीमती रसायन है। इसे कागज़ उद्योग, कपड़ा बनाने, दवाई उद्योग आदि में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसकी अंतरराष्ट्रीय मांग है। एक ग्राम की कीमत दो तीन हजार रुपए है। एक किलो गोबर में से 6 से आठ ग्राम तक नैनो सेलुलोस निकलता है। इसके बाद बचने वाला पदार्थ लिग्निन कहलाता है। यह भी 40-50 रुपए किलो तक बिक जाता है। इस जानकारी को डॉ. वर्मा ने पेटेंट भी करवा लिया है। सरकार इस उद्योग के विस्तार के तरीके निकाल कर पशु पालकों को काफी लाभ पहुंचा सकती है। पशु धन को लाभकारी बनाने के इन तरीकों से पशु पालन और आकर्षक हो जाएगा और गैर दुधारू पशु भी लाभदायक हो सकेंगे। इससे बेसहारा पशुओं की समस्या पर भी लगाम लगाने में मदद मिलेगी और रोजगार के अवसर भी अपने ही संसाधनों के बेहतर उपयोग से पैदा किए जा सकेंगे। शुरुआत में गोसदनों और बड़ी डेयरियों से मिश्रित गतिविधियों का प्रयोग आरंभ किया जा सकता है।


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