गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में सागरतट पर स्थित सोमनाथ के मंदिर की ओर मैं किसी भक्ति भावनावश नहीं खिंचा चला गया था। बहुत लंबे समय से मेरे अंदर इस जिज्ञासा ने घर कर रखा था कि आखिर इस मंदिर या इस क्षेत्र में ऐसा क्या है जिसने महमूद गजनी समेत कई अन्य आक्रांताओं को भी आकर्षित किया। वे इस पर इस तरह लट्टू हुए कि उन्होंने इसको लूट-खसोटकर अपने घर ले जाना चाहा।
इतिहास के पाठक इस प्रश्न का जवाब बड़ी आसानी से दे जाते हैं, अरे भाई सोना, हीरे, जवाहरात थे जिनको लूटने के लिए वे इसको बार-बार खसोटते रहे। पर वास्तव में हम भारतीय संस्कृति की गहराई में अगर जाएं तो यह अनुमान लगाना सहज नहीं होगा कि यहां सोना, चांदी, जवाहरात या कहें कि अकूत भौतिक संपदा से भी परे ऐसा कुछ यहां की प्रकृति के अंदर रमता था जो न केवल आक्रांताओं बल्कि तमाम लोगों को अपनी ओर खींचता रहता था। कुछ ऐसा ही था जो कृष्ण को भी सैकड़ों कोस दूर मथुरा-वृंदावन से यहां खींच लाया था। द्वापर युग में यदुवंश के आपसी युद्ध जंजाल से छुटकारा पाने के लिए कृष्ण भी शांति की खोज में अपने जीवन के अंतिम दौर में यहीं आ बसे थे।
दूर हुई थकान
जिन दिनों मैंने गुजरात में स्तिथ सोमनाथ की यात्रा की थी उन दिनों मैं कोलकाता में था। वहां से मैंने अहमदाबाद के लिए अहमदाबाद एक्सप्रेस पकड़ी थी। ये गाड़ी लगभग 45 घंटे का समय लेती है। जो लोग जल्दी पहुंचना चाहते हैं उनको थका देने वाली यात्रा से थोड़ी परेशानी हो सकती है। इतनी लंबी यात्रा की थकान के बाद आराम और शांति की जरूरत होती है। ऐसे में अगर स्टेशन के बाहर खड़े होने पर शरीर से 10 सेंटीमीटर की दूरी से 8-10 ऑटोरिक्शा सांय-सांय करके निकल जाएं तो थकान थोड़े चिड़चिड़ेपन को आमंत्रित करने लगती है। लेकिन ऑटोरिक्शा वालों के दोस्ताना व्यवहार ने मेरी सारी थकान पल भर में ही मिटा दी थी। ऑटोरिक्शा अहमदाबाद की बहुमंजिली इमारतों, हवेलियों, गलियों और सड़कों को पार करता हुआ अपने गंतव्य होटल की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रहा था। हालांकि ऑटोरिक्शा वाले ने मुझे सस्ते-महंगे बीसियों होटलों और लॉजों के नाम एक सांस में गिना दिए थे, पर मैंने उसको उसी होटल में ले चलने के लिए कहा जहां ठहरने के लिए मेरे शुभचितंकों ने मुझे सुझाया था।
दूसरे दिन सोमनाथ के लिए अहमदाबाद से सोमनाथ मेल पकड़ने के बजाय पहले मैं नल सरोवर के लिए निकल पड़ा। चूंकि नल सरोवर अहमदाबाद से महज एक ही घंटे की दूरी पर है, इसलिए मैंने सोचा कि पहले इस सरोवर को ही देख लिया जाए। प्रकृति निर्मित यह सुंदर क्षेत्र अक्सर गुजरात आने वालों की नजर में अनदेखा रह जाता है। इसके बारे में मैं आपको आगे बताऊंगा। बाद में जब हमें सोमनाथ जाना हुआ तो वहां के लिए हमने सोमनाथ के निकटतम रेलवे स्टेशन वेरावल के लिए सासनगीर से बस ली थी। असल में सोमनाथ को जोड़ने वाला वेरावल ही है। अगर गीर की तरफ से हम आते तो हमें सोमनाथ के लिए सीधी बस मिल सकती थी और तब हमें वेरावल में बस बदलनी नहीं पड़ती। वेरावल से सोमनाथ की दूरी सिर्फ छह किलोमीटर है, जिसे अगर हम चाहते तो बस के अलावा टेम्पो, ऑटो या साइकिल रिक्शा से भी तय कर सकते थे।
कम नहीं हुआ महत्व
गजनी के सुल्तान महमूद ने ग्यारहवीं सदी में सोमनाथ पर हमला किया था। मंदिर ध्वस्त हो गया और महमूद उसकी संपत्ति, स्वर्ण, रत्न आदि लूटकर साथ ले गया। शिव के इस मंदिर में एक शिवलिंग शुद्ध स्वर्ण का था जिसे महमूद अपने साथ ले गया। महमूद ने काफी कुछ लूटा था, पर मंदिर में इतना वैभव था कि वह सब कुछ नहीं ले जा सका। इसके बाद कई हमले किए गए और जो भी लुटेरा आया उससे जितना हो सका वह उसकी संपदा लूट कर ले जाता रहा। सोमनाथ मंदिर पर आक्रमणों से मंदिर का भौतिक वैभव जरूर कम होता गया, पर इसका धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व तनिक भी कम नहीं हुआ। वह यथावत बना रहा।
जहां स्वस्थ हुए सोम
ऐसा कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की 27 कन्याएं थीं। उन्होंने अपनी प्रत्येक कन्या का नामकरण नभमंडल के 27 नक्षत्रों के आधार पर किया था। अपनी सभी कन्याओं का विवाह दक्ष प्रजापति ने सोम देवता यानी चंद्रमा से कर दिया था। हालांकि सोम इनमें से सबसे ज्यादा रोहिणी पर मोहित थे। बहुत दिनों तक उपेक्षा सहने के बाद अन्य बहनों से जब नहीं रहा गया तो उन्होंने इसकी शिकायत अपने पिता दक्ष से कर डाली। दक्ष ने तब सोम को आदेश दिया कि वह सभी बहनों को बराबरी का दर्जा दें, पर सोम ने यह आदेश नहीं माना। इस पर कु्रद्ध होकर प्रजापति ने सोम को शाप दे डाला।
सागर के किनारे मंदिर से करीब 400 मीटर की दूरी पर एक विशाल दायरे में इस कला उत्सव का आयोजन किया जा रहा था। मैदान के एक हिस्से में कनातों-तंबुओं में आने वाले आदिवासी कलाकारों के रुकने के लिए इंतजाम किया गया था और दूसरी तरफ खाने-पीने तथा कई चीजों की बिक्री की नुमाइश थी। मैदान के तीसरे हिस्से में एक बड़ा सा मंच था, जिस पर संगीत नृत्य के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे। दक्षिण गुजरात के भड़ौच, सूरत और बड़ौदा पूर्व के पंचमहल, पूर्वोत्तर के साबरकांठा और उत्तर गुजरात के बनासकांठा जिले से आए आदिवासी अपने संगीत, कला के प्रदर्शन के लिए वहां जमा हुए थे और इसका प्रायोजन एक नामी दवा कंपनी कर रही थी। नृत्यों में हालेणी, मांडवा, घेरैया, ढाक्या, काथोड़ी नाम से विभिन्न नृत्य थे जिनको होली, दीवाली या शादियों के अवसर पर प्रस्तुत किया जाता है। वाद्यों में ढाक वाद्य था जिसे पैरों पर रखकर हाथ से बजाया जाता है। तारपाकर तानपूरे की तरह का एक तारवाद्य है और पावरी वाद्य बीन तथा तुरही का संयुक्त रूप है।
पक्षियों का अभयारण्य
नल सरोवर का पानी इतना साफ रहता है कि इसमें विचरने वाली मछलियां और इसमें उग आई विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। खाने-पीने की प्रचुरता और पानी की स्वच्छता दूर देशों से सैकड़ों प्रकार के पक्षियों को अपनी ओर खींच लेती हैं। दिसंबर के बाद अप्रैल माह तक यहां तरह-तरह के पक्षियों का मेला जैसा लगा रहता है जिनको मछलियों और वनस्पतियों के रूप में पूरे समय भोजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है।
लगभग 35 वर्ष पहले 1969 में नल सरोवर को पक्षियों का राष्ट्रीय जल विहार या अभयारण्य घोषित किया गया था। हमने यहां की सैर फरवरी माह में की थी और उन दिनों रंग-बिरंगे फ्लेमिंगों से लेकर सफेद सारस, हवासिल, हंस, बगुले, हिरण, एभोमंट खूब दिखाई पड़े। विशेषज्ञों की राय में यहां 300 से भी ज्यादा प्रकार के पक्षी विचरण करते हैं जिनके दर्शन के लिए दिसंबर से अप्रैल माह के बीच खूब सारे सैलानी यहां सैर-सपाटे के लिए आया करते हैं। सांझ-सबेरे हलकी मध्यम गति से पानी पर सरकती नौकाओं से पक्षियों का कलरव और उन्हें देखने से जो परमानंद मिलता है वह अवर्णनीय है। पूरे चांद की रात्रि को शीतल चांदनी के बीच तारों से छिटके आकाश के दौरान यहां का सौंदर्य इतना आकर्षक, नैसर्गिक और मनोरम होता कि वह किसी की भी नींद चुराने की सामर्थ्य रखता है।
पक्षी ही नहीं जंगली पशु भी
जब हमने नल-सरोवर अभयारण्य के बारे में सुना था तो हमने इस बात की जरा भी कल्पना नहीं की थी कि भांति-भांति के पक्षियों के अलावा यहां कुछ और भी आकर्षण का केंद्र हो सकता है। लगभग एक सौ बीस वर्ग किलोमीटर में फैले इस जलमग्न इलाके का सुदूर उत्तरीय क्षेत्र जग प्रसिद्ध कच्छ की खाड़ी से लगता है। गर्मियों के दौरान के दूर-दराज से शीतलता लेने के लिए कच्छी जंगली गधे भी नल सरोवर की तरफ खिंचे चले आते हैं। सुबह-सबेरे जंगली झुरमुटों से सियार और लोमड़ी नजर आ जाते हैं।
सरोवर के चारों ओर दूर-दूर तक पानी के बीच-बीच में छोटे-छोटे भूमि के टुकड़े दिखाई पड़ते हैं जिन्हें टापू कहना ज्यादा उचित होगा। इन टापुओं पर बंजारे अपना अस्थायी बसेरा डाल लेते हैं। सरकंडियों ओर सूखी घास-फूस से बनी इनकी झुग्गियां नीले पानी की पृष्ठभूमि में किसी कला का नमूना नजर आती हैं। ये बंजारे भैंस पालन करके और उनका दूध आसपास के गांवों में बेचकर ही अपना जीवन यापन करते हैं। नल सरोवर के आसपास रहने वालों को सरोवर से मछली पकड़ने की अनुमति है और वे सरोवर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की ओर आने-जाने के लिए छोटी-छोटी नौकाओं का उपयोग करते हैं।