प्रसन्नता का विषय यह कि विधानसभा में बहस अब गली-कूचे और हैंडपंप से कहीं आगे निकलकर विश्वविद्यालय के स्तर की हो गई है। विधानसभा सत्र में भर्तियों की जांच ने शिमला और मंडी विश्वविद्यालयों के कान पकड़े, तो कहीं अपने औचित्य की जमीन से फिसल रहे केंद्रीय विश्वविद्यालय के जदरांगल कैंपस पर भी बात हुई। अगर माननीयों को लगता है कि विश्वविद्यालयों में भर्ती प्रक्रिया के मानदंड दरकिनार करके कुछ लोगों की नियुक्तियां हुई हैं, तो इन संदर्भों को पूरी तरह खंगालने की जरूरत है। सरकार से छानबीन इसलिए भी आपेक्षित है क्योंकि विश्वविद्यालयों ने खुद को चंद व्यक्तियों के समूहों या विचारधाराओं के चबूतरों के रूप में परिवर्तित करना शुरू किया है, जबकि शैक्षणिक उपलब्धियों के खालीपन ने हिमाचल की उच्च शिक्षा को गहरी खाई की तरफ धकेलने का भी काम किया है। आरोपों से घिरे विश्वविद्यालय अगर अपने शैक्षणिक परिचय से मोहताज हैं, तो हम किस अस्तित्व की बात करते हैं। विडंबना यह कि जिस तेजी से मंडी विश्वविद्यालय का उदय हुआ, उसी रफ्तार से इसकी आरंभिक परतों में ही दोषारोपण होने लगा है। राजनीति पहले भी विश्वविद्यालयों से खेलती रही है और अब भी ऐसे विषय ढूंढे जा रहे हैं, जिनके आधार पर शैक्षणिक परिसर सत्ता और विपक्ष को मुकाबिल कर रहे। नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने आशंका प्रकट की है कि जिस तरह जांच के दायरे खड़े किए जा रहे हैं, उनसे मंडी विश्वविद्यालय की नींव को खतरा है। ऐसे में सवाल यह कि डिनोटिफिकेशन की गाज में यह विश्वविद्यालय भी आ जाएगा।
हमें नहीं लगता कि इतने बड़े कदम के लिए अभी स्पष्ट साक्ष्य सामने आए हैं, फिर भी शिक्षा में उचित-अनुचित व वांछित-अवांछित का फैसला होना ही चाहिए। हिमाचल में पिछले दो दशकों से शिक्षा के प्रसार में केवल राजनीति के तहखाने देखे गए और यह एक तरह का सदाबहार सियासी चरित्र बन गया कि नेताओं ने अपनी इच्छा की मूछें किसी न किसी स्कूल, कालेज, इंजीनियरिंग-मेडिकल कालेज या अब विश्वविद्यालयों से चस्पां कर दीं। नतीजतन कई अनावश्यक संस्थान तो खुल गए, लेकिन शिक्षा कहीं पिछड़ गई। उदाहरण के लिए जब से तकनीकी विश्वविद्यालय खुला, इंजीनियरिंग की पढ़ाई और एमबीए के पाठ्यक्रम निरर्थक हो गए। बेशक शिमला और मंडी के बीच विश्वविद्यालयों का विभाजन हो गया, लेकिन समानांतर पाठ्यक्रमों के विभाजन से अंतर यही आया कि शिक्षा की एक भौगोलिक रेखा कायम हो गई। आश्चर्य यह कि जयराम सरकार ने एक नए विश्वविद्यालय की उत्पत्ति करते हुए यह गौर नहीं किया कि चालीस सालों से धर्मशाला में चल रहे शिमला विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र की वरिष्ठता का सही इस्तेमाल कैसे किया जाए। इस अध्ययन केंद्र ने कई वकील, जज, स्कूल-कालेज व विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षाविद तथा कारपोरेट जगत के लिए प्रतिभाएं पैदा की हंै, लेकिन राजनीति के खेल में इसके अस्तित्व पर कोई बहस नहीं। आश्चर्य यह कि चंद मेडिकल कालेजों के ऊपर भी एक मेडिकल यूनिवर्सिटी का सियासी आविष्कार हो जाता है, लेकिन देश के दस टॉप आयुर्वेदिक कालेजों में शुमार पपरोला कालेज के अस्तित्व को सुधारने का अवसर ही नहीं मिलता।
पिछले चौदह सालों में केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्तित्व ने जितनी राजनीति पैदा की, उसी का असर है कि इस संस्थान ने शिक्षा को लेकर विचार विमर्श करना ही छोड़ दिया, वरना यहां भी आईआईटी मंडी की तरह शोध व शोधार्थियों पर चर्चा होती। सियासत होना बुरी बात नहीं, लेकिन जहां शिक्षा के पर्यावरण, वातावरण व अनुकूलन को दरकिनार करके, संस्थानों के रंग रौगन पर ही चर्चा हो, वहां शिक्षार्थी भी पेंटर ही साबित होंगे। विधानसभा में चर्चा तो इस बात को लेकर की जानी चाहिए कि हिमाचल से संबंधी शोध में कौन सा विश्वविद्यालय तीसमार खां साबित हो रहा है। पिछले एक साल की अवधि में हुए सेमिनारों के विषय देख लिए जाएं कि उच्च शिक्षा में कितनी संवेदना और अभिव्यक्ति का साहस बचा है। एमबीए के हजारों स्नातकोत्तर पैदा करने वाला हिमाचल बताए कि इनका भविष्य किस रेत पर खड़ा है। राजनीति को कभी तो तौबा करनी होगी कि अब शिक्षा को ईंट-पत्थर बनाने या पहनाने के बजाय, इसे छात्रों पर आजमाने को उच्चतर माहौल पैदा करना होगा। इसी प्रदेश में संस्कृत व डिजीटल विश्वविद्यालयों की पैरवी भी होती रही है। ऐसे में क्या इस तरह की पैरवी को पारंगत होने की अनुमति मिलनी चाहिए। तमाम शैक्षणिक संस्थानों का ऑडिट करते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इनकी उपयोगिता व प्रासंगिकता बढ़ाने के लिए नया क्या किया जाए। शिक्षा मंत्री रोहित ठाकुर ने आश्वासन दिया है कि सरकार आने वाले दिनों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की दिशा में कुछ अहम फैसले लेगी। ऐसी किसी बैठक के आयोजन में शिक्षाविदों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।