-सनत कुमार जैन-
न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम की अनुशंसा पर सरकार करती है। इन दिनों कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है। सरकार चाहती है, कि उसके इशारे पर कॉलेजियम काम करे।न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार जो निर्णय करे। कॉलेजियम उसे स्वीकार करे। जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका नगण्य हो। सरकार की भूमिका सर्वोपरि हो। कॉलेजियम व्यवस्था आने के पहले सरकार न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति करती थी। आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जजों की वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश और न्यायधीशों की नियुक्ति मनमाफिक तरीके से की थी। आपातकाल के बाद जब सरकार बदली, उसके बाद संविधान में संशोधन हुआ। जिसमें न्यायपालिका के अधिकारों को आपातकाल में भी बरकरार रखने का संशोधन किया गया। उसी के बाद जजों की नियुक्ति और उनकी पदोन्नति को लेकर, सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम की व्यवस्था दी। तब से कॉलेजियम की व्यवस्था चली आ रही है।
कॉलेजियम के सदस्य, हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर वरिष्ठ वकीलों द्वारा की गई पैरवी की समीक्षा करते हैं। उनके बारे में सारी जानकारी एकत्रित करते हैं। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज सहमत होने पर, जज के नाम की अनुशंसा सरकार को करते हैं। कॉलेजियम की व्यवस्था में सरकार को यह अधिकार है,कि कालेजियम द्वारा जो अनुशंसा की गई है। उसके संबंध में पूरी जानकारी का अध्ययन करने के बाद यदि कोई असहमति है,तो उसे कॉलेजियम को पुनर्विचार के लिए सरकार वापिस भेजती है। सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम एक बार पुनः विचार करके अंतिम निर्णय लेती है। उस निर्णय का क्रियान्वयन करना सरकार की बाध्यता होती है। पिछले वर्षों में सरकार ने कॉलेजियम द्वारा की गई अनुशंसा काफी समय तक रोककर रखी है। जिसके कारण हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की वरिष्ठता गड़बडाने लगी है। संविधान ने न्यायपालिका को सभी संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज की निगरानी रखने और सत्ता निरपेक्ष रहकर नियंत्रण की जिम्मेदारी न्यायपालिका को सौंपी है। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने संसद को सर्वोच्च बनाते हुए संविधान को एक तरह से नकारने का बयान दिया है।
निश्चित रूप से हर व्यवस्था मे आरोप-प्रत्यारोप लगते है। कॉलेजियम को समीक्षा और अनुशंसा करने का अधिकार है। वहीं सरकार को भी नियुक्ति के पूर्व पर्याप्त अवसर होता है। जब वह नियुक्त होने वाले जज के संबंध में सारी जानकारी एकत्रित कर सके। यदि नियुक्ति करने में कोई आपत्ति है, तो उससे कॉलेजियम को पुनर्विचार करने के लिए कह सकती है। इसका एक ही आशय है, कॉलेजियम और सरकार दोनों पर जिम्मेदारी और जवाबदेही का अंकुश लगा हुआ है। संसदीय लोकतंत्र में बहुमत के आधार पर बहुत सारे नियम कानून बन जाते हैं। राजनीति में रह रहे लोग चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए बहुत सारे नैतिक और अनैतिक निर्णय लेने के लिए मजबूर होते हैं। लेकिन न्यायपालिका पर इस तरहका कोई दबाव नहीं होता है। उसे संविधान और विधायिका द्वारा बनाए गए नियम कानून के अनुसार,निर्णय लेने होते हैं। जिसके कारण न्यायपालिका की साख और विश्वसनीयता आम जनता के बीच में बनी रहती है। सामाजिक बदलाव का असर समान रूप से सभी वर्गों में पड़ता है।
निश्चित रूप से न्यायपालिका के ऊपर भी इसका असर पड़ा होगा। न्यायपालिका के ऊपर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे हैं। सरकार के पास इसके नियंत्रण के बहुत सारे अधिकार हैं। सरकार के पास बहुत सारी जांच एजेंसियां भी है। जो नियुक्ति के पूर्व और नियुक्ति के पश्चात जानकारियां प्राप्त कर कार्यवाही कर सकती हैं। न्यायाधीशों को हटाने की शक्तियां भी संसद के पास होती हैं। कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर सरकार के मन में यदि सुधार के कुछ सुझाव हैं, तो उन सुझावों को कॉलेजियम की व्यवस्था में शामिल कराये जा सकते है। सरकार और कॉलेजियम के बीच विवाद समाप्त करना ही, राष्ट्र हित में होगा। विधायिका,कार्यपालिका और संवैधानिक संस्थाओं के ऊपर न्यायपालिका का अंकुश होने पर ही सभी संवैधानिक संस्थाओं को नियंत्रित रखा जा सकता है। विधायिका अपने ऊपर कोई अंकुश नहीं चाहती है। ऐसी स्थिति में भारत का लोकतंत्र सुरक्षित भी नहीं रहेगा। चुनाव जीतने के लिए राजनैतिक दल नैतिक-अनैतिक कृत्य के दबाव में होते हैं। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है। वह देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़े हुए हैं। इस पर भी सरकार और सुप्रीमकोर्ट को गंभीरता से विचार करना होगा।