-डा. अश्विनी महाजन-
वर्ष 2007-08 के दौरान अमरीकी अर्थव्यवस्था एक भयंकर त्रासदी से गुजरी और लेहमन ब्रदर्स के साथ-साथ सैकड़ों अमरीकी बैंक दिवालिया हो गए थे। जैसा कि होता रहा है अमरीका के वित्तीय संकट के कारण पूरे यूरोप के बैंकों पर भी भारी संकट आया और इस वित्तीय संकट ने दुनिया भर के देशों पर भी कुछ न कुछ प्रभाव छोड़ा। उस समय भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत इस संकट से अछूता है क्योंकि भारतीय बैंकों का कोई विशेष एक्सपोजर पश्चिम के इन बैंकों के साथ नहीं है। हालांकि अमरीकी और यूरोपीय देशों पर आए इस संकट की वजह से भारत के निर्यातों पर कुछ न कुछ असर जरूर हुआ, लेकिन भारत की ग्रोथ की यात्रा बदस्तूर जारी रही और भारत दुनिया के सबसे तेजी से बढऩे वाले मुल्कों में बना रहा। हालांकि वर्ष 2007-08 का यह संकट अमरीकी सरकार द्वारा 3 खरब डालर (3000 अरब डालर) की सहायता उस समय तो टल गया, लेकिन जानकारों का कहना है कि उस संकट के बाद अमरीकी अर्थव्यवस्था कमजोर जरूर हुई। लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि दुनिया और महत्वपूर्ण संस्थाओं पर ‘पैनी’ नजर रखने वाली रेटिंग एजेंसियों की भूमिका इस संकट के पहले और इसके दौरान ही नहीं, उसके बाद भी अत्यंत पंगु और संदेहास्पद बनी रही। मार्च के दूसरे सप्ताह में अमरीकी टैक स्टार्टअप की फंडिंग करने वाला सिलिकॉन वैली बैंक अचानक बंद हो गया और उसका अधिग्रहण अमरीकी सरकार ने कर लिया।
जानकारों का मानना है कि सिलिकॉन वैली बैंक का डूबना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लिए ‘लेहमन ब्रदर्स’ के डूबने सरीखा है। लेकिन 2023 में फिर से सिलिकॉन वैली बैंक के डूबने के साथ ही अमरीकी वित्तीय संकट फिर से गहराने लगा है। उधर अमरीका में बढ़ती ब्याज दरों के चलते अमरीकी सरकार समर्थित मोर्टगेज प्रतिभूतियां और यहां तक कि अमरीकी ट्रेजरी बिल जो अत्यंत सुरक्षित माने जाते थे, उनकी कीमत में भी नाटकीय ढंग से गिरावट आई। सिलिकॉन वैली बैंक के बाद 167 साल पुराना स्विटजरलैंड का दूसरा सबसे बड़ा बैंक और वैश्विक इतिहास में सबसे अधिक प्रभावशाली बैंक ‘क्रेडिट सूशे’ स्विटजरलैंड के सबसे बड़े बैंक ‘यूबीएस’ के हाथों बिक गया। जब इस बैंक से पिछले हफ्ते जमाकर्ताओं द्वारा 10 अरब डालर निकाल लिए गए तो स्विटजरलैंड सरकार ने आनन-फानन में यूबीएस द्वारा ‘क्रेडिट सूशे’ को खरीदने को कहा है। लेकिन इतिहास ने फिर एक बार अपने को दोहराया है और दुनिया की बड़ी रेटिंग एजेंसियां एक बार फिर निवेशकों को जोखिम के बारे में आगाह करने में पूरी तरह से असफल रही हैं। यदि हम देखें तो 8 मार्च, जिस दिन सिलिकॉन वैली बैंक डूबा, से पहले, मूडीज ने इस पर ए-3 की रेटिंग बनाए रखी, जो इसके पैमाने पर सातवीं उच्चतम रेटिंग है।
वे दुनिया भर के देशों और वित्तीय संस्थानों की रेटिंग करती हैं। उनकी रेटिंग के आधार पर इन देशों द्वारा लिए गए ऋणों पर ब्याज दरें निर्धारित की जाती हैं। विभिन्न वित्तीय संस्थानों पर लोगों का भरोसा भी इन्हीं रेटिंग्स पर निर्भर करता है। जबकि ये एजेंसियां दुनिया भर के संस्थानों और देशों की विश्वसनीयता का मूल्यांकन करती हैं, वे स्वयं संदेह के घेरे में हैं। यही एजेंसियां जो अमरीका और यूरोप के मुल्कों पर संकट के बावजूद कुंभकर्णीय निद्रा में रहती हैं, भारत जैसे देशों के बारे में जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो जाती हैं, जिसका फायदा फिर उन्हीं के आका देशों को ही होता है। भारत जैसे देशों पर इतनी तल्खी और अमरीकी और यूरोपीय देशों पर मेहरबानी इन एजेंसियों पर सवालिया निशान लगाती है। तीन साल पहले यस बैंक पर आए संकट के बाद एक मूडीज ने भारतीय बैंकों का आउटलुक स्टेबल से घटाकर निगेटिव कर दिया था। इसमें कहा गया था कि भारतीय बैंकों की संपत्ति की गुणवत्ता कोरोना वायरस के कारण हुए नुकसान के कारण बिगड़ी है और इसका असर कॉर्पोरेट, मध्यम और लघु उद्योगों और खुदरा सहित सभी क्षेत्रों में होने की उम्मीद है। इससे बैंकों की पूंजी और तरलता दोनों पर असर पड़ेगा।
मूडीज ने यह भी कहा था कि निजी क्षेत्र के बैंक (यस बैंक) में हालिया गड़बड़ी के कारण छोटे कर्जदाताओं को लिक्विडिटी के संकट का सामना करना पड़ सकता है। इस घोषणा के बाद भारतीय बैंकों के शेयरों में भारी गिरावट देखने को मिली। गौरतलब है उसके बाद भारतीय बैंकों का ही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था का भी आगे बढऩा बदस्तूर जारी है, लेकिन ये एजेंसियां अभी भी भारत की क्रेडिट रेटिंग में कंजूसी ही बरत रही हैं। यह समझना होगा कि भारतीय बैंकों की रेटिंग में गिरावट से न केवल शेयर बाजार में उथल-पुथल मची, बल्कि उस समय चल रही एनपीए समस्या से उबरने वाले बैंकों के लिए और भी बाधाएं पैदा हो गईं। गौरतलब है कि चारों बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, इंडस बैंक, आईडीबीआई बैंक और एक्सिस बैंक, अभी भी भली-भांति चल ही नहीं रहे बल्कि तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। यह भी माना जाता है कि निवेशक अपने निवेश के फैसले ऐसी एजेंसियों की रेटिंग के आधार पर लेते हैं। अब स्थिति बदल रही है और निवेशकों ने खुद भी अन्य मापदंडों पर जांच शुरू कर दी है। लेकिन रेटिंग एजेंसियां अभी भी एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि इन रेटिंग एजेंसियों की एकाधिकारवादी शक्तियों पर अंकुश लगाया जाए, ताकि हितों के टकराव को रोकते हुए कंपनियों की विश्वसनीयता का सही आकलन किया जा सके। आज दुनिया भर के निवेशक झूठी क्रेडिट रेटिंग के कारण नुकसान उठा रहे हैं, लेकिन इन कंपनियों पर जुर्माना उससे कहीं कम होता है। यह सच है कि कई मामलों में रेटिंग एजेंसियों के लिए पूरी जानकारी रखना संभव नहीं होता है। लेकिन प्राप्त जानकारी को छुपाना भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। इन रेटिंग एजेंसियों का पूरी दुनिया में एकाधिकार है, और वे ज्यादातर अमरीका आधारित हैं। इसी वजह से यह भी देखा गया है कि अमेरिका और उसकी कंपनियों को बेहतर रेटिंग मिलती है। इतना ही नहीं, चूंकि रेटिंग का पूरा कारोबार केवल तीन कंपनियों के हाथ में है, इसलिए एकाधिकारिक शक्तियों के दुरुपयोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि इन रेटिंग कंपनियों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़े। अधिक से अधिक रेटिंग एजेंसियों को मान्यता मिलनी चाहिए। विभिन्न देशों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। भारत की भी अपनी रेटिंग एजेंसी क्यों नहीं हो सकती? गौरतलब है कि इन रेटिंग एजेंसियों को चीन की किसी कंपनी का मूल्यांकन करने का अधिकार नहीं है। अलग-अलग देशों की अपनी रेटिंग एजेंसियां हो सकती हैं। ऐसे में चंद एजेंसियों का एकाधिकार खत्म हो जाएगा। साथ ही इन रेटिंग एजेंसियों के पास खुद निवेशकों से पैसे कमाने की व्यवस्था होना चाहिए। इन रेटिंग एजेंसियों को कंपनियों से शुल्क लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।