गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
गुल खिलाई है ज़िंदगी कितने,
दिल मिलाई है बंदगी कितने;
खिल के आई है ख़्वाहिशी कितनी,
खिलिखला कितनी गई ज़िंदादिली!
मौत छूकर भी सिखा कितना गई,
ज़िंदगी जीना फिर से सिखला गई;
जीना मरना था जिनके हाथ रहा,
जुड़वा संबंध उनके साथ गई!
ज़हर भी जगत का था अमिय बना,
समय पर सुर हरेक सुरम लगा;
शिव सदैव झूमे अपनी सृष्टि लिए,
दृष्टि में द्वैत कहाँ उनके रहा!
नित्य जब गण से मिले, टटोले कण वे रहे;
मिठास दिए हिये, खिला हर कमल गए!
ख़ुशबू वे खूब दिए, कला हर कुश को दिए!
धूप हर धरणि दिए, भूप हर प्राण किए,
प्रणव भर त्राण दिए, बदले नित रूप गए;
अनौखा हर ‘मधु’ कर, अनेकों आयामों ले,
ब्रहत लघु एक किए, घोट घट मिला दिए!