सर्वोच्च अदालत की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने राज्यपाल की भूमिका, दायित्व और सदन में बहुमत साबित करने के आदेश सरीखे पहलुओं पर एक तार्किक बहस को सुना है और सभी पक्षों को सचेत भी किया है। बुनियादी संदर्भ महाराष्ट्र के अघाड़ी गठबंधन की सरकार का है। चूंकि शिवसेना में विधायकों के एक बहुमती गुट ने बगावत की थी, नतीजतन तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन राज्यपाल के हस्तक्षेप से बगावती गुट और भाजपा ने साझा तौर पर सरकार बना ली। आज वही सरकार कार्यरत है। उद्धव ठाकरे गुट के वकीलों ने ऐसी सरकार को ‘असंवैधानिक’ करार दिया है, जबकि न्यायाधीशों का सवाल है कि उस सरकार को कैसे बहाल किया जा सकता है, जिसके मुख्यमंत्री ने सदन में बहुमत साबित करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था? बहरहाल संविधान पीठ ने दोनों पक्षों के तर्क सुनकर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है, लेकिन राज्यपाल की भूमिका एक बार फिर सवालिया हुई है।
महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी इस्तीफा देकर सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अब रमेश बैस नए राज्यपाल हैं। इसके अलावा, तेलंगाना राज्यपाल को भी मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी है। वहां राज्यपाल ने बीते सितंबर से 7 पारित विधेयकों को स्वीकृति नहीं दी है। वह विधानसभा में पारित बजट पर भी मुहर नहीं लगा रही हैं। यह उनका जानबूझ कर किया जाने वाला व्यवहार है। यकीनन यह असाधारण, संविधान से इतर स्थिति है। संविधान ने इस संदर्भ में राज्यपाल के विशेषाधिकारों की स्पष्ट व्याख्या नहीं की है। राज्यपाल किसी भी समय-सीमा तक बिलों पर कुंडली मार कर बैठ सकते हैं। यह कौन-सी संवैधानिक शक्ति हुई? पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और गवर्नर बनवारी लाल पुरोहित का विवाद भी सर्वोच्च अदालत में है। शीर्ष अदालत की टिप्पणी है कि आपसी बातचीत का स्तर बिल्कुल निचले स्तर तक नहीं ले जाना चाहिए। दोनों संवैधानिक पदों के बीच ऐसी होड़ नहीं लगनी चाहिए। बहरहाल तमिलनाडु, केरल, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भी ‘मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल’ की स्थितियां हैं। टकराव बेहद गहरे हैं, जबकि विवाद संवैधानिक नहीं है। दोनों पदों के बिना हमारा संघीय ढांचा कारगर ही नहीं हो सकता। विडंबना और दुर्भाग्य है कि राज्यपाल विपक्षी दलों की सरकारों वाले राज्यों में ही ‘परोक्ष राजनीति’ खेलते दीखते हैं। दरअसल हमारी सियासत को एहसास होना चाहिए कि अब ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेशी भारत नहीं है। भारत आज स्वतंत्र, संप्रभु, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक संविधान वाला देश है।
राज्यपाल की भी एक निश्चित और संवैधानिक भूमिका है। एक उदाहरण चुनाव आयोग के फैसले और अनुशंसा का है। आयोग ने झारखंड के मुख्यमंत्री को लेकर अपना फैसला बंद कवर में राज्यपाल को भेजा था। तत्कालीन महामहिम ने करीब 6 माह तक उस पर कोई अंतिम फैसला नहीं लिया। अंतत: फरवरी में राज्यपाल बैस महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिए गए। नतीजतन आयोग का महत्वपूर्ण फैसला लटक कर रह गया। पश्चिम बंगाल में भी ‘मुख्यमंत्री बनाम गवर्नर’ के द्वंद्व जारी रहे। दोनों के ट्वीट-युद्ध सार्वजनिक होते रहे। अब वह राज्यपाल देश के उपराष्ट्रपति हैं। बुनियादी सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल के तमाम मामले सर्वोच्च अदालत में ही जाते रहेंगे, अदालत फटकार लगाती रहेगी और मामले सुलझाने पड़ेंगे? यह लोकतंत्र नहीं है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के माकूल माहौल है। अधिकतर विवाद भी संवैधानिक नहीं हैं।