-कुमार कृष्णन-
लोकतंत्र आम आदमी के हाथों में शांतिपूर्ण बदलाव की सुविधा देता है। किसी भी लोकतंत्र की साख उसकी पारदर्शी चुनाव व्यवस्था पर निर्भर करती है लोकतंत्र का मतलब है कि तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं बिना किसी दबाव के काम करें और उनकी विश्वसनीयता पूरी तरह बनी रहे।मुख्य चुनाव आयुक्तों और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में संविधान की चुप्पी और कानून की कमी के कारण जो रवैया अपनाया जा रहा है वह परेशान करने वाली परंपरा है।
भारतीय संविधान की धारा 324 के अनुसार हमारे चुनाव आयोग को स्वायत्तता प्राप्त है। संविधान का अनुच्छेद-324 का चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की बात करता है लेकिन नियुक्ति की प्रक्रिया के बारे में बात नहीं करता है। 73 साल में ऐसा नहीं किया गया और यही कारण है कि समय—समय पर केंद्र सरकारों ने इस प्रक्रिया का अपने हित में इस्तेमाल किया है। 2004 के बाद से कोई भी मुख्य चुनाव आयुक्त छह साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। यूपीए के 10 साल के कार्यकाल में 6 मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए गए। जबकि एनडीए के 8 साल के कार्यकाल में 8 मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए गए। भारत निर्वाचन आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त करने की शक्ति को एकमात्र कार्यपालिका के अधिकार-क्षेत्र से हटा देने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से चुनावों की निगरानी करने वाली चुनाव आयोग की आजादी को निश्चित रूप एक बड़ा बढ़ावा मिला है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया है कि प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश वाली एक तीन सदस्यीय समिति एक कानून पारित होने तक मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का चयन करेगी। संविधान पीठ का यह फैसला ऐसे समय आया है जब निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता काफी दागदार हो चुकी है। इसलिए फैसले की अहमियत जाहिर है। यों तो पहले भी कभी-कभार निर्वाचन आयोग के निर्णयों पर सवाल उठे थे, पर कुल मिलाकर आयोग ने अपनी साख बनाए रखी थी।
अब तक होता आया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति की ओर से जारी अधिसूचना से होता है। इसके लिए विधि मंत्रालय नामों की सिफारिश प्रधानमंत्री को करता है और फिर प्रधानमंत्री की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति से नियुक्ति पर मुहर लगाई जाती है। आमतौर पर नौकरशाह की नियुक्ति इस पद पर की जाती है। इसका अधिकतम कार्यकाल छह साल होता है या 65 साल की उम्र तक इस पर चुनाव आयुक्त बने रह सकते हैं इनमें जो पहले आता है उस लागू होता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने 23 अक्टूबर 2018 को उस जनहित याचिका को संवैधानिक पीठ को भेज दिया था जिसमें कहा गया है कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कलीजियम की तरह सिस्टम होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल कर कहा गया था कि केंद्र सरकार द्वारा चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करना संविधान के अनुच्छेद-14 व अनुच्छेद 324 (2) का उल्लंघन है।
मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई जनहित याचिकाएँ दाखिल कर इसके लिए कानून बनाने की माँग की गई थी। इस संबंध में पहली जनहित याचिका 2015 में अनूप वर्णवाल ने दायर की थी। इसको लेकर साल 2018 में भाजपा नेता एवं अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दायर किया था।चुनाव आयुक्त की संख्या को लेकर संविधान में कोई निश्चित नंबर निर्धारित नहीं है।
संविधान 324 (2) कहता है कि चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं। ये राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि इनकी संख्या कितनी होगी।
आजादी के बाद देश में चुनाव आयोग में केवल मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे। 16 अक्टूबर 1989 को प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने दो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की। इससे चुनाव आयोग एक बहु-सदस्यीय निकाय बन गया। ये नियुक्तियां 9वें आम चुनाव से पहली की गईं थी। उस वक्त कहा गया कि यह मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री के पर कतरने के ली की गईं थी। 2 जनवरी 1990 को वीपी सिंह सरकार ने नियमों में संशोधन किया और चुनाव आयोग को फिर से एक सदस्यीय निकाय बना दिया। साल 1993 में नरसिम्हा राव सरकार ने फिर अध्यादेश के माध्यम से दो और चुनाव आयुक्तों की नियक्ति को मंजूरी दी। तब से चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त होते हैं।
चुनाव सुधारों को लेकर दिनेश गोस्वामी कमेटी 1990 में बनी थी। उसकी सिफारिश कभी अमल में नहीं लाई गई। सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर जो आदेश दिया है, वह दिनेश गोस्वामी कमेटी की सिफारिशों पर आधारित है। इस मामले की सुनवाई में संविधान पीठ ने इस कमिटी का जिक्र भी किया था। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में समिति में प्रधानमंत्री को भी रखा है। दरअसल,
इसके बाद इस मामले को संविधान पीठ को भेज दिया गया था। कोर्ट ने नवंबर 2022 में मामले की सुनवाई की थी। इस मामले में कोर्ट ने उस दौरान नियुक्त किए गए मुख्य निर्वाचन आयुक्त को लेकर कहा था कि चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण गोयल की नियुक्ति ‘बिजली की गति’से की गई थी। इस प्रक्रिया में 18 नवंबर को शुरू से अंत तक 24 घंटे से भी कम समय लगा।
दरअसल, 1985 बैच के पंजाब कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अरुण गोयल ने 18 नवंबर 2022 को अपनी पिछली पोस्टिंग से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी। इसके बाद 19 नवंबर 2022 को उन्हें चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया था और 21 नवंबर 2022 को वे कार्यभार संभाल लिए थे।
दिनेश गोस्वामी कमिटी में यह भी कहा गया था कि चुनाव आयोग के पद से हटने के बाद कोई भी आयुक्त किसी सरकारी सिस्टम का हिस्सा नहीं होगा। उसे राज्यपाल भी नियुक्त नहीं किया जाएगा। गोस्वामी कमिटी की सिफारिशों के आधार पर 1990 में 70वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, लेकिन यह पास नहीं हो सका। 1993 में इसे वापस ले लिया गया।
इस फैसले के कई दूरगामी नजीजे के रूप में सामने आएंगे। चुनाव में धन और बाहुबल की भूमिका स्वीकार्य लोकतांत्रिक मूल्यों पर गंभीर दुष्प्रभाव डाल रही है और प्रक्रिया को भ्रष्ट बना रही है। तेज़ी से हो रहा राजनीति का अपराधीकरण, बूथों पर कब्जे, धांधली, हिंसा आदि बुराइयों को बढ़ावा दे रहा है। सरकारी मशीनरी, अर्थात सरकारी मीडिया और मंत्रालयों के स्टॉप का दुरुपयोग अगंभीर उम्मीदवारों की भागीदारी का बढ़ता संकट जैसी समस्याएं मतदान प्रक्रिया का हिस्सा बन चुकी हैं। सुधारात्मक उपाय करना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।चुनाव सुधारों को लेकर जिन सुधारों की कल्पना की जाती है या इस बारे में जो भी ठोस सुझाव दिए जाते हैं, उनकी सफलता इसी पर निर्भर करती है कि आखिरकार लोग उस अमल के लिए कितने निगहबान होंगे। भारतीय चुनावों की आज उच्च श्रेणी की कायम हो पाई है, तो इसका श्रेय चुनाव आयोग को तो जाता है, लेकिन टी.एन.शेषन, के जे राव से लेकर आज तक के दौर में निर्वाचन आयोग इसलिए सफल क्योंकि उसके साथ जनमत की ताकत है।आज लगभग पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अपने यहां चुनाव भले स्वच्छ ना रह पाते हों, लेकिन परिणाम लोगों के वोट से ही तय होते हैं। मुमकिन है कि कई संदर्भों में वोट देने के पीछे जो प्रेरक कारण रहते हैं, उन्हें स्वस्थ ना माना जाए लेकिन उनकी जड़ें हमारे अपने समाज में हैं। मतदाता जातीय या सांप्रदायिक भावनाओं से प्रेरित होते हैं, या कोई धन देकर उनके वोट खरीद लेता है- तो कोई धन देकर उनके वोट खरीद लेता है- तो इन बुराइयों को चुनाव संबंधी कानून या नियमों में किसी परिवर्तन से दूर नहीं किया जा सकता।
धनतंत्र की ताकत के वर्चस्व को समग्रता में समझने और समाज में उसे नियंत्रित करने के उपायों पर विचार करना चाहिए। चुनाव में गैर-कानूनी धन को रोकने के लिए उपाय करने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि इसमें अच्छे धन के लिए गुंजाइश बनाई जाए। यानी कोई धन के अभाव में चुनाव यानी कोई धन के अभाव में चुनाव लड़ने से वंचित हो जाए, ऐसा नहीं होना चाहिए। यह तथ्य है कि सिर्फ धन चुनाव परिणाम को तय नहीं करता। ऐसा होता तो हर चुनाव वही लोग जीतते जिनके पास सबसे ज्यादा धन है। फिर भी यह हकीकत जरूर है कि धन के अभाव में लोग चुनावी मुकाबले में नहीं आ पाते। ईमानदारी से समाज सेवा करने या विचारधारात्मक आग्रहों के कारण राजनीति में आने वाले लोगों के साथ अक्सर यह समस्या रहती है। अगर उनके लिए वैध धन उपलब्ध हो, तो अपने सामाजिक कार्यों या विचारों के कारण समाज में पहचान बनाने वाले लोगों के लिए न सिर्फ चुनाव लड़ना, बल्कि धीरे-धीरे मुकाबले में अपनी उपस्थिति बनाना भी संभव हो सकता है।
कानूनी प्रावधान के भी चुनाव आयोग के पास आज पर्याप्त अधिकार हैं।यह आम धारणा रही है कि सरकार की कृपा से नियुक्त आयुक्तों का सरकार के प्रति रवैया उदार रहता है। इस हाल में है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिये न्यायसंगत प्रक्रिया का पालन किया जाये। यह सुखद संकेत है कि शीर्ष अदालत द्वारा दी गई व्यवस्था के बाद सरकारें मनमानी नहीं कर सकेंगी। उम्मीद है कि सरकार लोकसभा में नेता विपक्ष के न होने की स्थिति में बड़े विपक्षी दल के नेता की राय का सम्मान करेगी। जिससे सही मायनों में चयन में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन हो सकेगा। निश्चित रूप से इस कदम से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी व विश्वसनीय बनाने में मदद मिल सकेगी। इसके अलावा अन्य चुनाव सुधारों के जरिये चुनाव आयोग को अधिक प्रभावी-सशक्त बनाने की भी जरूरत है।