किसान की आय 2 रुपए ही नहीं है। यह प्रतीकात्मक आंकड़ा है कि किसानी कितनी सस्ती है या कृषि की मंडी कितनी क्रूर है! हम और भारत सरकार बखूबी जानते हैं कि किसानी के बाज़ार में बिचौलियों का कितना दबदबा है! केंद्रीय खाद्य मंत्री रहते हुए रामविलास पासवान ने इस आशय का बयान देकर सरकार को चौंका दिया था। आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक और क्रूर यथार्थ सामने आया है। महाराष्ट्र की सोलापुर मंडी में प्याज की फसल बेचने गया था किसान राजेन्द्र तुकाराम चव्हाण। फसल 512 किलोग्राम थी। प्याज का भाव मात्र 1 रुपए किलो देने की बात हुई, तो किसान को पहला झटका लगा। फिर ट्रांसपोर्ट, मजदूरी, माल ढुलाई और आढ़ती की कमीशन निकाल कर किसान को मात्र 2 रुपए का चेक दिया गया। वह भी 15 दिन बाद का था। अर्थात 512 किग्रा प्याज की कुल कीमत मात्र 2 रुपए…! क्या नंगी नहाए, क्या निचोड़े! यह यथार्थ तब का है, जब किसान की आय दोगुनी करने का सरकारी वायदा एक साल पहले गुजऱ चुका है। आमदनी तो बढ़ी नहीं, किसान को फसल की लागत भी नसीब नहीं है। मुनाफा तो सपनों की बात है।
किसान राजेन्द्र चव्हाण ने 512 किग्रा प्याज बोने और पैदा करने की संपूर्ण प्रक्रिया पर 40,000 रुपए से ज्यादा खर्च किए थे और आमदनी मात्र 2 रुपए हो पाई! वह घर-परिवार कैसे चलाए? रोटी कैसे खाए? बच्चों को कैसे पढ़ाए? बेटी की शादी कैसे करे? और किसानी के धंधे को बदस्तूर जारी कैसे रखे? ऐसी ही कहानी तेलंगाना में टमाटर की है। वहां टमाटर अनाथ की तरह रुल रहा है। किसान कह रहे हैं कि जितना चाहिए, टमाटर तोड़ कर ले जाएं। प्याज, टमाटर के अलावा आलू ने भी यही क्रूर यथार्थ झेला है। कुछ और सब्जियों की भी यही नियति होगी! इन परिस्थितियों में किसान आत्महत्या नहीं करेगा, तो उसके सामने विकल्प क्या है? किसान अपने टै्रक्टर तले फसलों को रौंद रहे हैं या सडक़ों पर फेंक रहे हैं। यह प्याज, टमाटर की बर्बादी नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था को कुचलना है। भारत में प्याज की 150 लाख टन से ज्यादा की खपत है और उत्पादन 200 लाख टन से ज्यादा हुआ है। इसके बावजूद प्याज आयात किया जाता रहा है। हम इस धंधे को समझ नहीं पाए हैं। फिलीपींस में 3512 रुपए किलो प्याज बिक रहा है। अमरीका में 240, दक्षिण कोरिया में 250, ताइवान और जापान में 200, कनाडा में 190 और सिंगापुर में 180 रुपए प्रति किलो प्याज बिक रहा है। यदि हम अपने ही खुदरा बाज़ार की बात करें, तो औसतन 30-35 रुपए के दाम हैं। तो फिर किसान को उसकी फसल के सही भाव क्यों नहीं दिए जा रहे?
भारत में किसान की औसत आय 27 रुपए रोज़ाना की है। यह नीति आयोग का तथ्य है। माहवार आय भी 4500 रुपए के करीब है। किसान 5500-6000 रुपए मजदूरी बगैरह करके कमाता है। क्या कृषि के मौजूदा बाज़ार के व्यवहार से स्पष्ट है कि किसान को किसानी छोडऩे पर विवश किया जा रहा है? क्या सरकार और मंडी किसानों को आंदोलन की सजा दे रही है? सरकार प्याज और टमाटर के भी भाव तय क्यों नहीं कर रही कि उससे कम पर फसल बिकेगी ही नहीं। किसानों को मंडी के बजाय विदेश में निर्यात क्यों नहीं करने दिया जा रहा? और आयात की क्या जरूरत है, जब नैफेड के कोल्ड स्टोरेज या गोदामों में प्याज भरा रखा होता है? बेहद पेचीदा नीतियां हैं सरकार की! विडंबना यह भी है कि सरकार उद्योगों में पूंजी निवेश करती है, लेकिन किसानी को कुदरत और मौसम के भरोसे छोड़ देती है। बेल-आउट पैकेज भी उद्योगों के लिए हैं। यह मेहरबानी खेती पर नहीं है। आखिर क्यों? किसान की फसल की कीमत 2 रुपए तब दी जा रही है, जब देश आज़ादी का ‘अमृतकाल’ मना रहा है। प्रधानमंत्री किसानों में 6000 रुपए सालाना की खैरात बांट सकते हैं, लेकिन किसानी की उचित कीमत और किसान-समर्थक व्यवस्था तैयार नहीं कर सकते।