वर्षा घ्तु के समय एक गुरु और शिष्य लंबी तीर्थयात्रा पूरी करके अपनी कुटिया की ओर लौट रहे थे। दोनों थके, हारे
कुटिया के निकट पहुंचे तो देखा कि कुटिया तो लगभग उजड़ी पड़ी है। आंधी, तूफान से कुटिया को बहुत नुकसान
हुआ है। कुटिया की ऐसी दशा देख कर शिष्य धैर्य खो बैठा और गु्स्से में बोला, गुरुदेव इन्हीं बातों से मुझे भगवान
की आस्था पर संशय होता है। जो दुर्जन हैं उनके तो महल भी सुरक्षित हैं। हम दिन, रात प्रभु, भजन में लीन रहते
हैं, फिर भी भगवान हमारी झोपड़ी को सुरक्षित नहीं रख सकते।
परमात्मा के प्रति शिष्य की ऐसी बातें सुनकर गुरु ने मुस्कराते हुए सहज भाव से कहा, वत्स, मैं तो उस दयालु
परमेश्वर का आभारी हूं कि उसने हमारी बहुत रक्षा की है। उसकी करुणा का मैं बहुत घ्णी हूं। आंधी, तूफान का
क्या भरोसा, वह तो पूरी कुटिया ही उड़ा कर ले जा सकता था। परमात्मा की कृपा है कि उसने अपने भक्तों पर
इतनी कृपा की और झोपड़ी को इस स्थिति में रखा कि थोड़ी सी मेहनत से उसका फिर से निर्माण किया जा सकता
है।
शिष्य ने उत्तेजित होकर कहा, लेकिन गुरुवर, अधर्मियों के महलों को तो ईश्वर कुछ नहीं करता। उनके महल अब
भी शान से खड़े हुए हैं। गुरु ने मुस्कराते हुए कहा, वत्स, तू बड़ा भोला है, इस तरह अगर सारी दुनिया से अपनी
तुलना करने लगे, तो तुम्हें कभी खुशी नसीब नहीं होगी। दूसरे से की गई तुलना दिल का सुकून और मन का चैन
छीन लेती है। महलों में रहने वाले लोगों की क्या हालत है, कभी तुमने उनके निकट जाकर देखा है। मनुष्य कुटिया
या महल से प्रसन्न नहीं होता। दुनिया के बारे में उसका दृष्टिकोण ही उसके मन की स्थिति को निर्धारित करता है।
शिष्य गुरु की बात का अर्थ समझ गया। उसने खुशी, खुशी क्षतिग्रस्त कुटिया की मरम्मत शुरू कर दी।