-सिद्धार्थ शंकर-
महाराष्ट्र की राजनीति में 10 जून से 29 जून के दौरान जो कुछ भी हुआ, उसे देखकर यह कहने में कोई गुरेज
नहीं कि विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ही छत्रपति शिवाजी महाराज की धरती के असली
चाणक्य हैं और नि:संदेह मराठा क्षत्रप शरद पवार का युग लगभग समाप्त हो चुका है। इसे पवार को स्वीकार कर
लेना चाहिए, क्योंकि यह भी साबित हो गया है कि बालासाहेब ठाकरे के अयोग्य उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे को
मुख्यमंत्री बनाकर उनकी आड़ में राज्य में सत्ता के संचालन की उनकी कोशिश अंतत: नाकाम हो गई। शरद पवार
की इमेज जहां आज भी वर्ष 1978 के उस राजनेता की है, जिसने मुख्यमंत्री वंसतदादा पाटिल के साथ कपट किया
और उनके विधायकों को तोड़कर राज्य की सत्ता हथिया ली थी। पवार आज भी उस तिकड़मी छवि से बाहर नहीं आ
सके हैं। लेकिन दूसरी ओर फडणवीस की इमेज मौजूदा राजनीतिक बवंडर के दौरान जेंटलमैन नेता की बनी रही।
एकनाथ शिंदे से बगावत करवाई, लेकिन इसे शिवसेना का अंदरूनी मामला करार दे दिया। शिवसेना विधायकों की
बगावत करवा करके फडणवीस ने पवार और उद्धव दोनों को उन्हीं की स्टाइल में करारा जवाब दिया है। चतुर
राजनेता की चतुर नीति से सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। एक तरह से यह 2019 का भूल-सुधार भी
कहा जाएगा। देश की राजनीति में फडणवीस का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ा है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बारे में
यही कहा जा सकता है कि पवार के झांसे में आकर सेक्युलर बनने का उनका फैसला ब्लंडर साबित हुआ और इस
चक्कर में उन्होंने अपने पिता की विरासत को भी गंवा दिया। राजनीतिक हलकों में 22 जून से ही कहा जा रहा है
कि वर्षा छोड़ते समय उद्धव सीएम पद भी छोड़ दिए होते तो थोड़ी सहानुभूति मिलने की गुंजाइश रहती। उद्धव
ठाकरे ने अगर अपने पिता की विरासत को गंवा दी तो उसके लिए वह उसी तरह जिम्मेदार हैं, जिस तरह 2014
के विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने के लिए भाजपा नेतृत्व को जिम्मेदार माना था और
चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बारे में इस तरह का कमेंट किया था,
जिससे आम तौर पर परिपक्व नेता बचता है। 2014 के चुनाव प्रचार में उद्धव के भाषण से साफ हो गया था कि
उन्हें भविष्य जब भी मौका मिलेगा, वह भाजपा से बदला जरूर लेंगे। यहां फडणवीस उनकी मंशा भांपने में असफल
रहे। भाजपा को सबक सिखाने के चक्कर में उद्धव पवार के चक्रव्यूह में फंस गए। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस
पार्टी के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी का गठन किया। सीनियर ठाकरे की परंपरा से हटकर मुख्यमंत्री बने और
बेटे को भी मंत्री बना दिया। सीएम बनने के बाद तो हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना सेक्युलर शिवसेना
के रूप में ट्रांसफॉर्म होने लगी। उद्धव ने शिवसेना को ऐसी सेक्युलर राजनीतिक दल बना दिया जो हिंदू विरोधी
कार्य करती दिख रही थी। जो जिंदगी भर शिवसैनिक राग हिंदू आलापता था, वह समझ ही नहीं पाया कि उद्धव
साहेब यह क्या कर रहे हैं। वे देख रहे थे कि हिंदूवादी शिवसेना सरकार हिंदुत्व के पैरोकारों की ही ऐसी की तैसी
कर रही है। ढाई साल में शिवसेना हिंदू-विरोधी पार्टी बन गई। इससे शिवसेना विधायकों की हवाइयां उड़ने लगी।
उन्हें साफ दिखने लगा कि उद्धव की हिंदू विरोधी नीति से उनका राजनीतिक करियर खत्म हो जाएगा। यही वजह
है कि जब एकनाथ शिंदे ने उद्धव का विरोध करने की पहल की तो तो तिहाई से ज्यादा विधायक उनके साथ हो
लिए। अब तो भविष्य में उद्धव के साथ रहने वाले 10-12 विधायक और राज्यभर में शाखा प्रमुख के भी शिंदे खेमे
में चले जाएं तो हैरानी नहीं होगी।