एक दिन गरीब ब्राह्मण ने एक साधु से विनती की, बाबा, मेरी बेटी का विवाह है। आप तो दयालु हैं, कुछ कृपा
करें। साधु बोला, मैं क्या करूं, मेरे पास कुछ नहीं है। मैं अकिंचन हूं। किसी से कुछ मांगता नहीं। ब्राह्मण कई
लोगों के पास गया, लेकिन कहीं से भी उसे कुछ नहीं मिला। आठ दिनों के बाद ब्राह्मण दोबारा साधु के पास गया
और बोला, बाबा, कोई चारा नहीं, कोई आधार नहीं, आप ही कुछ कृपा करें।
साधु से रहा नहीं गया तो उसने कहा, तुम मेरे साथ चलो। वह उसे नदी के तट पर ले गया। वहां एक वृक्ष था जो
जड़ के पास से खोखला था। साधु ने कहा, जरा देखो तो पेड़ की खोखल में कुछ पड़ा है? ब्राह्मण ने उसमें हाथ
डाल कर देखा तो बोला, हां बाबा, कुछ है। साधु ने कहा, उसे तुम ले लो। ब्राह्मण ने उसमें पड़े एक पत्थर को
उठाया और पूछा, यह क्या है? साधु बोले, यह पारस मणि है। ले जा, इससे तेरा काम बन जाएगा।
ब्राह्मण अचरज में पड़ गया। वह सोचने लगा कि आखिर इस साधु के पास ऐसी कौन सी मूल्यवान चीज है कि
उसने पारस मणि को यूं ही पेड़ की खोखल में रखा हुआ है। इसके पास निश्चय ही इससे भी ज्यादा कीमती कोई
वस्तु होगी। अपने हाथ में पारस मणि लिए हुए ब्राह्मण ने साधु से पूछा, आप राज खोलिए न। आपने तो पारस
मणि को ऐसे ही डाल रखा था। तो क्या आपके पास इससे भी कीमती कोई मणि है?
साधु ने कहा, हां, इससे भी कीमती भक्ति मणि और प्रेम मणि मेरे पास है। यह पारस मणि उनके सामने व्यर्थ है।
यह सुन ब्राह्मण बोला, बाबा, अब तो मैं भी यह लेने वाला नहीं। देना ही है तो भक्ति और प्रेम मणि का प्रसाद
दीजिए। पारस मणि में क्या, जितना दिया, उतना गया। लेकिन भक्ति मणि में जितना दिया उससे ज्यादा बढ़ता
जाता है। प्रति क्षण बढ़ता है।