(मजदूर दिवस पर विशेष) :हुजूर, मजबूर है देश का मजदूर…!

asiakhabar.com | April 30, 2022 | 5:30 pm IST
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-रमेश सर्राफ धमोरा-
मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसके बोलने में ही मजबूरी झलकती है। सबसे अधिक मेहनत करने वाला मजदूर आज
भी सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है। दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो
पाया हो। दुनिया के सभी देशों की सरकारें मजदूरों के हित के लिए बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करती हैं मगर जब
उनकी भलाई के लिए कुछ करने का समय आता है तो सभी पीछे हट जाती हैं। इसीलिए मजदूरों की स्थिति में
सुधार नहीं हो पाता है। भारत में भी मजदूरों की स्थिति बेहतर नहीं है। हमारी सरकार भी मजदूर हितों के लिए
बहुत बातें करती है, बहुत सी योजनाएं व कानून बनाती है। मगर जब उनको अमलीजामा पहनाने का समय आता
है तो सब इधर-उधर ताकने लग जाते हैं। मजदूर फिर बेचारा मजबूर बनकर रह जाता है।
भारत सहित दुनिया के सभी देशों में 01 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों की
भलाई के लिए काम करने व मजदूरों में उनके अधिकारों के प्रति जागृति लाना होता है। मगर आज तक ऐसा हो
नहीं पाया है। कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग पर पड़ी है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति करने का
प्रमुख भार मजदूर वर्ग के कंधों पर ही होता है। मजदूर वर्ग की कड़ी मेहनत के बल पर ही राष्ट्र तरक्की करता है।

मगर भारत का श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। देश में मजदूरों का शोषण भी
जारी है। समय बीतने के साथ मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है।
बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों के उत्साह का कम कर दिया है। अब मजदूर दिवस
इनके लिए सिर्फ कागजी रस्म बनकर रह गया है।
देश का मजदूर वर्ग आज भी अत्यंत ही दयनीय स्थिति में रह रहा है। उनको न तो किए गए कार्य की पूरी मजदूरी
दी जाती है और न ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं। गांव में खेती के प्रति लोगों का रुझान कम
हो रहा है। इस कारण बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं, जहां न
उनके रहने की कोई सही व्यवस्था होती है ही उनको कोई ढंग का काम मिल पाता है। जैसे तैसे कर वह गुजर-बसर
करते हैं। बड़े शहरों में झोपड़पट्टी बस्तियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। यहां रहने वाले लोगों को कैसी
विषम परिस्थितियों का सामना करता है। इसको देखने की न तो सरकार को फुर्सत है न ही नेताओं को। यहां
मजदूरों को शौचालय जाने के लिए भी घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता है। झोपड़ पट्टी बस्तियों में न रोशनी की
सुविधा रहती है। न पीने को साफ पानी मिलता है और न ही स्वच्छ वातावरण। शहर के किसी गंदे नाले के
आसपास बसने वाली झोपड़ पट्टियों में रहने वाले गरीब तबके के मजदूर कैसा नारकीय जीवन गुजारते हैं। उसकी
कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। मगर इसको अपनी नियति मान कर पूरी मेहनत से अपने मालिकों के यहां
काम करने वाले मजदूरों के प्रति मालिकों के मन में जरा भी सहानुभूति के भाव नहीं रहते हैं। उनसे 12-12 घंटे
लगातार काम करवाया जाता है। घंटों धूप में खडे़ रहकर बड़ी-बड़ी कोठियां बनाने वाले मजदूरों को एक छप्पर तक
नसीब नही हो पाता है।
कोरोना के कहर के चलते आज सब से ज्यादा परेशान देश के करोड़ों मजदूर हो रहे हैं। उनका काम धंधा एकदम
चैपट हो गया है। परिवार के समक्ष गुजर-बसर करने की समस्या पैदा हो रही है। हालांकि सरकार ने देश के गरीब
लोगों को कुछ राहत देने की घोषणा की है। मगर सरकार द्वारा प्रदान की जा रही सहायता भी मजदूरों तक सही
ढंग से नहीं पहुंच पा रही है। उद्योगपतियों व ठेकेदारों के यहां अस्थाई रूप से काम करने वाले श्रमिको को न तो
उनका मालिक कुछ दे रहा है नाही ठेकेदार। इस विकट परिस्थिति में श्रमिक अन्य कहीं काम भी नहीं कर सकते
हैं। उनकी आय के सभी रास्ते बंद हो रहे हैं। इन मजदूरों की सुनने वाला देश में कोई नहीं हैं। कारखानों में काम
करने वाले मजदूरों पर हर वक्त इस बात की तलवार लटकती रहती है कि न जाने कब छंटनी कर दी जाए।
कारखानों में मजदूरों से निर्धारित समय से अधिक काम लिया जाता है विरोध करने पर काम से हटाने की धमकी
दी जाती है। कारखानों में श्रम विभाग के मानदण्डों के अनुसार किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं दी जाती है।
कई कारखानों में तो मजदूरों से खतरनाक काम करवाया जाता है। इस कारण उनको कई प्रकार की बीमारियां लग
जाती हैं। कारखानों में पर्याप्त चिकित्सा सुविधा, पीने का साफ पानी, विश्राम की सुविधा तक उपलब्ध नहीं करवायी
जाती है। मजदूर संगठन भी मजदूरों के बजाय मालिकों की ज्यादा चिंता करते हैं। हालांकि कुछ मजदूर यूनियन
अपना फर्ज भी निभाती हैं मगर उनकी संख्या बहुत कम है। देश में मजदूरों की स्थिति सबसे भयावह होती जा रही
है। देश का मजदूर दिन प्रतिदिन और अधिक गरीब होता जा रहा है। दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए
जद्दोजहद करने वाले मजदूर को अगर दो जून की रोटी मिल जाए तो मानों सब कुछ मिल गया। आजादी के इतने
सालो में भले ही देश में बहुत कुछ बदल गया होगा, लेकिन मजदूरों के हालात नहीं बदले हैं।


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