-सिद्धार्थ शंकर-
जहांगीरपुरी में बुधवार को दिल्ली नगर निगम ने अवैध निर्माण गिराने की कार्रवाई शुरू की। एक घंटे के भीतर ही
सुप्रीम कोर्ट ने इस ऑपरेशन पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट उस याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है,
जिसमें दंगे के आरोपियों के घर गिराने का विरोध किया गया है। यह कार्रवाई तब शुरू की गई, जब हनुमान
जन्मोत्सव पर जहांगीरपुरी में शोभायात्रा के दौरान हिंसा भड़क गई थी। अब तक की कार्रवाई में कई ऐसे तत्व
सामने आए, जो समाज के लिए खतरा है। ये लोग न हिंदू हैं न मुस्लिम। ये समाज के दुश्मन हैं। इन लोगों पर
कार्रवाई के लिए बुलडोजर चलाया गया। आमतौर पर यही माना जाता है कि पर्व-त्योहार या धार्मिक कार्यक्रमों के
आयोजन समाज में सौहार्द की भावना को मजबूत करने के मौके होते हैं। ऐसे आयोजनों में शामिल लोग आपसी
कड़वाहटों को भी भूल कर इंसानियत के रिश्तों को आगे बढ़ाते हैं। यों भी हर धर्म का मूल तत्व मानवीय मूल्यों का
प्रसार करना है और यह सुनिश्चित करना हर धार्मिक आस्था से जुड़े व्यक्ति की जिम्मेदारी भी है। लेकिन पिछले
कुछ समय से धर्म और आस्था से जुड़े कार्यक्रमों की प्रकृति में जिस तरह के बदलाव देखे जा रहे हैं, वे बेहद
चिंताजनक और दुखद हैं। हालत यह है कि देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली भी ऐसे विवादों और हिंसा से
मुक्त नहीं रह पा रही है। इस साल रामनवमी के बाद हनुमान जयंती पर निकाली गई शोभायात्रा के दौरान जैसे
दृश्य में देखने में आए और उसके बाद जिस तरह की हिंसक घटनाएं हुईं, उनसे जाहिर है कि सद्भाव के मौके अब
अलग-अलग धार्मिक समूहों के बीच तनाव और टकराव तक में बदल रहे हैं। सवाल है कि दुनिया में किस धर्म के
मूल्य इंसानियत के विरुद्ध प्रतिद्वंद्विता और हिंसा का पाठ पढ़ाते हैं? गौरतलब है कि दिल्ली के जहांगीरपुरी
इलाके में शनिवार को निकाले गए रामनवमी के जुलूस में दो समुदायों के बीच हिंसक टकराव हो गया। पुलिस ने
हस्तक्षेप करके हालात को संभालने की कोशिश की। लेकिन इस बीच सामने आई घटनाओं ने किसी भी संवेदनशील
और जिम्मेदार नागरिक को यह सोचने के लिए मजबूर किया कि आस्था और पर्व के आयोजन में नाहक
प्रतिद्वंद्विता के लिए कितनी जगह होनी चाहिए और अगर ऐसा होता है तो अन्य पक्षों को ऐसे कितने संयम और
समझदारी से काम लेना चाहिए! विडंबना यह है कि जहांगीरपुरी में जो हुआ, उसमें अमूमन सभी पक्षों ने
गैरजिम्मेदारी, लापरवाही और उतावलेपन का प्रदर्शन किया। नतीजतन, जुलूस पर पथराव और फिर हिंसा की
घटनाओं ने आस्था प्रदर्शन के एक मौके को दुखद स्वरूप दे दिया। सवाल है कि हनुमान जयंती पर निकाले गए
जुलूस के आयोजकों को यह ध्यान रखने की जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई कि अगर यात्रा में शामिल लोग हथियार
प्रदर्शन या किसी स्तर पर कानून की कसौटियों का उल्लंघन कर रहे हैं और उससे उकसावे या उत्तेजना जैसी स्थिति
बन रही है तो उसे संभाला जाए! फिर दूसरे पक्ष को अगर जुलूस की कोई गतिविधि आपत्तिजनक लगी, तो उस पर
खुद कोई अराजक प्रतिक्रिया करने के बजाय उन्होंने पुलिस की मदद लेने की जरूरत क्यों नहीं समझी! इसके
अलावा शोभायात्रा में शामिल लोगों की गतिविधियां आदि देखने के बावजूद पुलिस ने उचित कदम क्यों नहीं उठाए?
अब पुलिस की ओर से कहा गया कि उस जुलूस के लिए कोई अनुमति नहीं ली गई थी। हैरानी की बात है कि
किसी छोटी घटना पर भी तत्काल प्रतिक्रिया कर हालात संभालने की क्षमता रखने का दावा करने वाली पुलिस की
इजाजत के बिना सरेआम ऐसी शोभायात्रा का आयोजन कैसे संभव हो गया? अगर ऐसा था तो पुलिस ने हिंसक
माहौल पैदा होने के पहले उसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की? जब देश में सबसे सुरक्षित माने जाने वाले इलाके
के रूप में राजधानी दिल्ली में अराजकता और हिंसा का माहौल बनाने में कुछ लोगों को कामयाबी मिल जाती है तो
इसे कैसे देखा जाना चाहिए? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि दिल्ली अभी दो साल पहले हुए दंगों का दर्द नहीं
भूल सकी है। धार्मिक सद्भाव और सहिष्णुता इस देश की असली ताकत और पहचान रही है। इसे नुकसान पहुंचाने
की हर कोशिश को नाकाम किया जाना चाहिए।