संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों का राजनीतिकरण

asiakhabar.com | March 15, 2022 | 6:05 pm IST
View Details

-प्रियंका सौरभ
आज के दौर में राजनीतिकरण की एक ऐसी प्रथा शुरू हो गयी है जिसमें चुनाव जीतने वाला राजनीतिक दल अपने
कार्यकर्ताओं और सक्रिय समर्थकों को संवैधानिक या सरकारी पदों पर नियुक्ति के द्वारा पुरस्कृत कर रहा है और
अन्य एहसानों के साथ उसे अपने सरंक्षण में रख रहा है। ऐसा होने से संवैधानिक निकाय अपनी गरिमा को खोते
जा रहें है। देखें तो संवैधानिक निकाय वे निकाय हैं जिनका उल्लेख संविधान में किया गया है और संविधान से
अपनी शक्ति और अधिकार प्राप्त करते हैं। उदाहरण के लिए यूपीएससी, सीएजी आदि। मगर राजनितिक तौर पर
पुरस्कृत लोग जब इन निकायों में प्रवेश करते हैं तो वो ये गरिमा पहचान ही नहीं पाते। यही नहीं नियुक्ति का
राजनीतिकरण लोकतांत्रिक शासन को गहरे तक प्रभावित करता है।
संवैधानिक पदों पर ऐसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी और कार्य निहित हैं जो उन्हें जवाबदेही सुनिश्चित करने में मदद
करते हैं। राजनीतिक नियुक्ति के साथ ऐसे निकायों के एजेंडे की बलि दी जाती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान,
कर्नाटक, मध्य प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र और, निश्चित रूप से, पश्चिम बंगाल के राज्यपालों ने अपनी भूमिका इस
तरह से निभाई है कि कार्यालय की महिमा को जोड़े बिना उन्हें अत्यधिक विवादास्पद बना दिया है। राजदूतों,
राज्यपालों, आयोगों, निगमों, परिषदों, समितियों और अकादमियों के अध्यक्ष, सहकारी और ग्रामीण बैंकों के
चेयरमैन वगैरह के राजनीतिक दरवाज़े से भीतर आने का चलन ख़त्म होने वाला नहीं है। चूंकि नियुक्ति राजनीतिक
रास्ते से होती है, इसलिए सत्ता परिवर्तन के समय थोक के भाव इस्तीफ़े या बर्खास्तगियाँ भी लाज़मी हैं।
दिक्कत तब होती है जब राजनीति और ग़ैर-राजनीति का भेद मिटता है। सुप्रीम कोर्ट की इच्छा है कि बड़े स्तर पर
पुलिस सुधार हो लेकिन कांस्टेबल तक की नियुक्ति में राजनीति प्रवेश कर गई है। डॉक्टरों, इंजीनियरों, जूनियर
इंजीनियरों से लेकर टीचरों तक की नियुक्ति, तबादले, तरक्की तक राजनेताओं के हवाले हो रही है। राज्यों में
लालबत्ती संस्कृति ने प्रशासनिक पदों पर भी राजनीतिक नियुक्ति के रास्ते खोल दिए है। अमरीका में राजनीतिक
भर्तियों को ‘स्पॉइल्स सिस्टम’ और योग्यता के आधार पर भर्ती को ‘मेरिट सिस्टम’ कहते हैं। हमारा मेरिट सिस्टम
स्पॉइल क्यों हो रहा है?
हमारे देश में स्पीकर का पद राजनीति से परे नहीं है लेकिन ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स का जो सदस्य स्पीकर
चुना जाता है वह पहले अपने राजनीतिक दल से त्यागपत्र देता है। स्पीकर चुने जाने के बाद वह अगले चुनाव के
बाद भी स्पीकर पद पर बना रहता है। वह जिस क्षेत्र से चुना जाता है वहाँ से उसके ख़िलाफ़ किसी दल का प्रत्याशी
चुनाव नहीं लड़ता। यह परंपराओं को बनाने की बात है। हमारे यहाँ राज्यसभा में सदस्यों के मनोनयन की परंपरा
है। राजनीतिक नियुक्तियों पर भी आपत्ति नहीं है लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि किस पद से किन हालात में
हट जाना होगा।
राजनीतिक पोस्टिंग के कारण जांच करने और निर्णय देने में देरी हो रही है। इसके अलावा, एक धारणा यह भी है
कि आयोग ज्यादातर मामलों में सरकार की स्थिति की पुष्टि करता है। एससी और एसटी के लिए राष्ट्रीय आयोग
होने के बावजूद एससी के तहत बहुसंख्यक लोगों पर अत्याचार और पिछड़ापन आजादी के 70 साल बाद भी जारी
है। वे वन अधिकारों, एसटी के कल्याण को सुरक्षित करने में विफल रहे हैं जो उनके सामाजिक संकेतकों में देखा

जा सकता है। उदाहरण के लिए उना, गुजरात में दलितों की हत्या जैसी घटनाएं; हरियाणा में जाति से संबंधित
ऑनर किलिंग से पता चलता है कि एनसीएससी या एनसीएसटी अप्रभावी रहा है।
अधिकांश राज्य सेवा आयोग भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद आदि जैसे विवादों में उलझे हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण भूमिका
निभाने के बावजूद सीएजी अपनी राजनीतिक नियुक्ति के कारण चुनौतियों से गुज़रा है, सरकार के दबाव में सीएजी
द्वारा अनदेखे कई कार्य हैं। चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का सर्वोच्च अधिकार होने के कारण
कई बार सरकार के निशाने पर आ जाता है। उदाहरण के लिए पीएमओ के "निर्देश" ने आयोग के स्वतंत्र कामकाज
के बारे में चिंता जताई है, जिसकी स्वायत्तता के बाद सीईसी ने उत्साहपूर्वक रक्षा करने की मांग की है। संवैधानिक
निकायों को जवाबदेही बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जाता है, लेकिन राजनीतिकरण के कारण, वे
अपनी पूरी क्षमता से कार्य करने में सक्षम नहीं हैं। यदि इन मुद्दों को फर्स्ट विल से हल किया जाता है, तो वे
निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *