भारत औैर उसके औसत नागरिक के पास सुकून के मात्र 7 दिन शेष हैं। उसके बाद क्या होगा? आर्थिक अस्थिरता
की क्या स्थितियां बनेंगी? महंगाई और मुद्रास्फीति का संकट किस स्तर तक बढ़ेगा? देश के रूप में भारत पर
कितना आर्थिक बोझ पड़ेगा और राजकोषीय घाटा कितना बढ़ेगा? इन सवालों का यथार्थ 7 दिनों के बाद सामने
होगा, लेकिन आकलन और विश्लेषण अभी से शुरू हो गए हैं। सुकून छिनने का बुनियादी कारण यह है कि
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत करीब 115 डॉलर प्रति बैरल हो गई है। विशेषज्ञों का आकलन है कि
यह दाम 150 डॉलर प्रति बैरल तक उछल सकते हैं। तेल 2014 के बाद इतना महंगा हुआ है। पेट्रोलियम प्लानिंग
एंड एनालिसिस सेल के मुताबिक, भारतीय बास्केट के कच्चे तेल के दाम 1 मार्च, 2022 को 102 डॉलर प्रति बैरल
से अधिक हो गए हैं। दिसंबर, 2021 में इसकी औसत कीमत करीब 73 डॉलर थी। तेल कंपनियों को भी अतिरिक्त
मुनाफा हो रहा था। कच्चा तेल महंगा होने के कारण सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को 5-7 रुपए प्रति लीटर
का घाटा उठाना पड़ रहा है। लिहाजा अब खुदरा कीमतों में 9 रुपए प्रति लीटर अथवा 10 फीसदी की बढ़ोतरी करने
की जरूरत है, ताकि तेल विपणन कंपनियां अपना औसत मुनाफा बरकरार रख सकें। रूस-यूक्रेन युद्ध ने तेल की
इन कीमतों को लेकर ‘आग में घी’ का काम किया है।
अब यह सवाल किया जाने लगा है या डर सताने लगा है कि यदि यह युद्ध लंबा खिंच गया, तो अर्थव्यवस्था
और अन्य स्थिरताओं के हालात क्या होंगे? क्या कोरोना महामारी के बाद एक और भयावह झटका झेलना पड़
सकता है? चूंकि पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का दौर 7 मार्च को समाप्त हो रहा है और 10 मार्च को जनादेश
के नतीजे घोषित किए जाएंगे, लिहाजा सुकून के कुल 7 दिन ही शेष हैं। चुनाव परिणाम के साथ ही पेट्रोल-डीजल
के दामों में जबरदस्त उछाल तय है। करीब 20-25 रुपए प्रति लीटर कीमतें बढ़ाई जाएंगी। हालांकि यह बढ़ोतरी
किस्तों में होगी, लेकिन रोज़ाना दाम बढ़ने लगभग तय हैं। एकमात्र विकल्प भारत सरकार के पास है कि वह तेल
पर करों में कटौती करे। विश्लेषण ऐसे भी सामने आ रहे हैं कि यदि बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें 5 डॉलर प्रति
बैरल और बढ़ गईं, तो भारत सरकार को 95,000 करोड़ रुपए तक का नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह बहुत
भारी राशि है, नतीजतन अर्थव्यवस्था को एक बार फिर गोता खाना पड़ सकता है। सिर्फ पेट्रो पदार्थ ही महंगे नहीं
होंगे, मुद्रास्फीति भी बढ़ेगी। खाद्य तेल और खाद, उर्वरक की कीमतें और देश का कुल बिल भी काफी बढ़ेगा।
बीते दिनों हम एक संपादकीय में इसका विश्लेषण कर चुके हैं। यही नहीं, विभिन्न धातुएं, खनिज, ऑटोमोबाइल्स,
मोबाइल आदि में इस्तेमाल की जाने वाली सेमीकंडक्टर चिप्स आदि भी महंगे होंगे, नतीजतन देश के कुल राजस्व
में कमी आ सकती है। यदि भारत सरकार ही इस संभावित आर्थिक बोझ को खुद ही वहन करेगी, तो सामाजिक
सुरक्षा और जन-कल्याण की योजनाओं पर उल्टा असर पड़ेगा। विकास-कार्य भी अवरुद्ध होंगे। हर आने वाला दिन
औसत भारतीय की जेब पर भारी पड़ेगा। मुद्रास्फीति से महंगाई ही नहीं बढ़ेगी, बल्कि सबसिडी का बिल भी बढ़ेगा।
सबसिडी को कम करना ही देशहित में है। कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत पर दबाव दिया जाता रहा है कि वह
सबसिडी कम करे। कच्चा तेल महंगा होने से उसका बिल करीब 50 फीसदी बढ़ गया है। आसन्न आर्थिक संकट तो
यह है कि हमारी सूक्ष्म, लघु, मध्यम कंपनियों के भुगतान, रूस में ही करीब 3500 करोड़ रुपए के, अटके-लटके पड़े
हैं। चूंकि रूस को अंतरराष्ट्रीय इंटर बैंकिंग सिस्टम ‘स्विफ्ट’ से बाहर कर दिया गया है, तो एमएसएमई सेक्टर का
भुगतान कैसे होगा? वह पैसा कब और कैसे आएगा, युद्ध ने उसकी अनिश्चितता बढ़ा दी है। यूक्रेन के साथ हमारा
कारोबार बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन फार्मा कंपनियां वहां काफी निर्यात करती हैं, लेकिन रूस के साथ हमारा रक्षा
कारोबार बहुत है। जो करार हो चुके हैं, उनके तहत रक्षा हथियारों और उपकरणों की सप्लाई होनी है। यदि युद्ध
लंबा खिंचा और ‘स्विफ्ट’ सरीखी आर्थिक पाबंदियां नहीं हटाई गईं, तो क्या होगा?