श्रीराम वनवास के बाद महाराज दशरथ ने उनके वियोग में अपना प्राण त्याग दिया। फिर गुरुदेव वसिष्ठ के आदेश
से उनके शरीर को सुरक्षित रख दिया गया और ननिहाल से भरत और शत्रुघ्न को बुलाने के लिए शीघ्रगामी दूत
भेजे गये। भरतजी के ननिहाल से लौटने के बाद कैकेयी ने उन्हें प्रेमपूर्वक गले से लगाया और उनसे अपने पिता,
भाई और माता की कुशल क्षेम पूछी। महाराज दशरथ को कैकेयी के महल में न देखकर भरत ने पूछा, मां तुम यहां
अकेली बैठी हो, तुम्हारे बिना तो पिताजी एकांत में कभी नहीं रहते थे। भईया श्रीराम भी नहीं दिखाई दे रहे हैं।
कारण क्या है उन्हें नहीं देखकर मुझे दुख हो रहा है।
कैकेयी ने कहा कि पुत्र तुम्हारे लिये भय और दुख की कोई बात नहीं है। मैंने महाराज से पूर्व वर के अनुसार
तुम्हारे लिये राज्य तथा श्रीराम के लिये चैदह वर्षों का वनवास मांग लिया। श्रीराम के वनवास से दुखी होकर तुम्हारे
पिता मृत्यु को प्राप्त हुए। कैकेयी के इस कुकृत्य को सुनकर भरत शोक समुद्र में डूब गये। उन्होंने कैकेयी से कहा,
अरी पापिनी, तू बात करने योग्य नहीं है। तू अपने पति की हत्या करने वाली हत्यारिणी है और तेरे गर्भ से जन्म
लेने के कारण उस महापाप का मैं भी भागीदार हूं। मैं तेरा मुंह भी नहीं देखना चाहता। अतः तू मेरे सामने से
तत्काल हट जा।
कैकेयी के कुकृत्य की निंदा करने के बाद भरत माता कौशल्या के पास गये और उन्हें विभिन्न प्रकार से सांत्वना
दी। उसके बाद उन्होंने गुरुदेव वसिष्ठ की आज्ञानुसार महाराज दशरथ का विधिवत अंतिम संस्कार किया तथा पिता
के उद्देश्य से ब्राम्हणों को अनेक प्रकार का दान दिया। गुरुदेव वसिष्ठ के आदेश और माता कौसल्या के अनुरोध के
बाद भी भरत ने राज्य लेना अस्वीकार कर दिया तथा सबको साथ लेकर श्रीराम को मनाने के लिए पैदल ही
चित्रकूट चल दिये। मार्ग में निषादराज गुह और श्रीभरद्वाज जी से मिलते हुए भरतजी चित्रकूट पहुंचे। वहां उन्होंने
दूर्वादल के समान श्याम शरीर और विशाल हृदय वाले श्रीराम को बैठे हुए देखा। वे श्रीजानकीजी को निहार रहे थे
और श्रीलक्ष्मणजी उनके चरण कमलों में सेवा कर रहे थे। भरत पाहि नाथ! कहते हुए दण्ड की भांति जमीन पर
गिर पड़े और उन्होंने श्रीराम के युगल चरणों को पकड़ लिया। श्रीराम ने प्रेम से अधीर होकर उन्हें गले से लगाया।
भरतजी ने श्रीराम से कहा, हे महाभाग! यह समस्त पैतृक राज्य आप ही का है। आप हमारे बड़े भाई हैं, आप हमारे
पितातुल्य हैं। आप इस राज को स्वीकार करें और मेरी माता के अपराध को भुलाकर हमारी रक्षा करें।
श्रीराम ने कहा, भाई पिताजी ने मुझे चैदह वर्ष का वनवास और तुम्हें अयोध्या का राज्य दिया है। पिता के आदेश
का पालन करना हम दोनों का परम धर्म है। जो मनुष्य पिता के आदेश का उल्लंघन करता है वह जीता हुआ भी
मृतक के समान है। अतः तुम अयोध्या का पालन करो और मैं दण्डकारण्य में निवास करूंगा तथा वनवास से लौटने
के बाद जैसा तुम चाहोगे वैसा करूंगा। इस तरह विभिन्न प्रकार से समझाकर श्रीराम ने अपनी चरण पादुकाएं श्री
भरत जी को सौंप दीं। भरतजी अयोध्या लौट आये और उन पादुकाओं को सिंहासन पर स्थापित कर नंदीग्राम में
तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए अयोध्या पर शासन करने लगे।