विचार तो अच्छा पर अमल कौन करेगा?

asiakhabar.com | October 29, 2017 | 1:46 pm IST
View Details

केंद्र सरकार सोच रही है कि देश भर में न्यूनतम मजदूरी की दर पंद्रह हजार रु पये कर दी जाए। यह एक अच्छा विचार है। इतना कि डर है कि कहीं विचार बन कर ही न रह जाए क्योंकि सरकार ने स्पष्ट नहीं किया है कि इसका क्रियान्वयन कैसे करेगी। सरकार का इरादा इसी से साफ है कि उसने अभी तक कोई ऐसा सर्वेक्षण नहीं कराया है, जिससे पता चले कि देश भर में न्यूनतम मजदूरी की दरें क्या हैं, और इस नियम का कितना पालन हो रहा है। अनुभवों के आधार पर मैं दावा करने का साहस करता हूं कि भारत में अभी तक न्यूनतम मजदूरी कानून नहीं, महज एक सदिच्छा है।न्यूनतम मजदूरी कोई समाजवादी विचार नहीं है, पूंजीवादी प्रस्ताव है। पूंजीवाद की आलोचना करते हम नहीं थकते, लेकिन जहां यह सुदृढ़ और सफल है, इसने जनसाधारण के हित में दो अच्छे काम किए हैं। एक, सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान और दूसरा, न्यूनतम मजदूरी की प्रतिष्ठा। वस्तुत: दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनका उद्देश्य है कि जिसके पास अच्छा रोजगार नहीं है, या जो किसी विशेष परिस्थिति की वजह से मुश्किल में है, जैसे विधवा, एकल मां इत्यादि, उसके रहन-सहन का स्तर एक खास बिंदु से नीचे न जाने पाए। निश्चय ही, इसका कारण यह नहीं है कि पूंजीवाद मूलत: पुण्यात्मा होता है। लेकिन दुनिया के कुछ इलाकों, जो मुख्यत: गोरी जातियों द्वारा आबादित हैं, में इतना प्राचुर्य पैदा किया है कि आबादी के छोटे-से हिस्से को आर्थिक बदहाली का शिकार बनने से रोका जा सकता है। ये समाज अपने सदस्यों की पीड़ाओं के प्रति मुखर समाज हैं। वहां बेरोजगारी दस प्रतिशत से बढ़ने लगती है, तो लोग सड़कों पर विक्षोभ प्रदर्शन करने लगते हैं, जुलूस निकाले जाते हैं, और अखबारों के पहले पन्ने की धड़कन बढ़ जाती है। किसी भी समृद्ध देश को शांति-स्थिरता चाहिए ताकि उत्पादन और व्यापार चक्र में खलल न पड़े। इसलिए भी समृद्धि से वंचित आबादी को सरकारी अनुदान से शांत रखना अनिवार्य हो जाता है। वास्तव में सामाजिक सुरक्षा औद्योगिक शांति और प्रशासनिक स्थिरता का ही दूसरा नाम है। भारत जैसे देश चिर गरीबी की समस्या से ग्रस्त हैं। ऐसे समाजों में समृद्ध पूंजीवाद के नियम लागू नहीं होते। गरीब पूंजीवाद उतना ही क्रूर होता है, जितना समृद्ध पूंजीवाद डेढ़-दो सौ साल पहले था। भारत ने आर्थिक विकास का जो रास्ता पकड़ा उसके आदर्श समाजवादी थे पर माध्यम पूंजीवादी था। यही कारण है कि समाजवादी व्यवस्था जितनी मजबूत हो रही थी, पूंजीवाद उससे ज्यादा तेज गति से मजबूत हो रहा था। अब समाजवाद का घोड़ा ऑक्सीजन के अभाव में गश खा कर गिर गया है, और पूंजीवाद का ग्रीष्मकालीन सूर्य देश भर में अपना ताप फैला रहा है। लेकिन लोकतंत्र की खूबी ही है कि वह एक ओर तो पूंजीवाद को लूटने की खुली छूट देता है, तो दूसरी ओर जनता के जीवन में इस लूट से पैदा होने वाली बदहाली को कम करने का प्रयास भी करता है। चूंकि गरीब देशों में श्रम की सप्लाई मांग से हमेशा ज्यादा होती है, इसलिए मजदूरी की दर हमेशा दबी हुई होती है। हर बारोजगार आदमी के पीछे बेरोजगार लोगों की लंबी फौज खड़ी रहती है, इसलिए जिन्हें रोजगार मिला हुआ होता है, वे भी असुरक्षा में जीते हैं। इस असुरक्षा को कम करने के लिए ही न्यूनतम मजदूरी का विधान किया जाता है।लेकिन तीसरी दुनिया के जिन देशों में साम्यवादी शासन नहीं है, वहां की एक बड़ी खूबी यह है कि सरकार होती है, उसके नियम-कायदे होते हैं, हर काम के लिए महकमे होते हैं, पर किसी को फिक्र नहीं होती कि नियमों का पालन होता है, या नहीं। यह भी एक वजह है कि न्यूनतम मजदूरी को ले कर बनाए गएनियमों का पालन कम और अवहेलना ज्यादा होती है। लेकिन इससे बड़ी कठिनाई है न्यूनतम मजदूरी के नियम का अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक होना। न्यूनतम मजदूरी तय करते समय ध्यान नहीं दिया जाता कि नियोक्ता की क्षमता कितनी है। जाहिर है, सभी नियोक्ता एक ही वर्ग के नहीं होते। अंबानी की कंपनी न्यूनतम मजदूरी दे सकती है, पर सड़क पर चाय की दुकान चलाने वाला नहीं। इसलिए न्यूनतम मजदूरी की प्रत्येक घोषणा के साथ यह घोषणा भी की जानी चाहिए कि जिन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल पाएगी, उनकी क्षतिपूर्ति सरकार द्वारा की जाएगी। जिस कानून का पालन कराने के व्यावहारिक उपाय न खोजे जाएं, उनका महत्त्व हाथी के दिखाने वाले दांतों से ज्यादा नहीं है। पंद्रह हजार रु पये की न्यूनतम मजदूरी के प्रस्ताव की व्यावहारिकता पर इसीलिए शक होता है। प्रस्ताव गलत नहीं है, क्योंकि इससे कम पर कोई भी आदमी आज न्यूनतम सभ्य जीवन बिता नहीं सकता बल्कि सभी श्रमिक संगठनों और राजनैतिक दलों को सरकार पर जोर डालना चाहिए कि वह इस विचार को मूर्त रूप दे और जल्द से जल्द कार्यान्वित करे। सरकार पर मामला छोड़ दिया जाएगा तो वह न्यूनतम मजदूरी पंद्रह हजार घोषित कर देगी और इस पर अमल राज्य सरकारों पर छोड़ देगी। बदले में राज्य सरकारें दांत चियार देंगी कि हम पर वित्तीय बोझ पहले से ही बहुत ज्यादा है, हम इस मामले में कुछ भी करने में असमर्थ हैं। इस तरह, एक अच्छा विचार मात्र एक राजकीय घोषणा बन कर रह जाएगा।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *