-निर्मल रानी-
भारतीय संविधान के अनुसार जो भी व्यक्ति चुनवोपरांत बहुमत प्राप्त संसदीय दल के सदस्यों द्वारा अपना नेता
चुना जाता है राष्ट्रपति द्वारा वही व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री मनोनीत कर दिया जाता है। चाहे वह लोकसभा अथवा
राज्यसभा में से किसी भी सदन का सदस्य हो अथवा न हो। यदि प्रधानमंत्री नामित व्यक्ति किसी सदन का
सदस्य नहीं है तो उसे छः महीने के भीतर दोनों में से किसी एक सदन का सदस्य बनना लाज़िमी है। ठीक इसी
प्रकार विधान सभाओं में भी बहुमत प्राप्त दल द्वारा निर्वाचित विधान मंडल दल के नेता को राज्यपाल मुख्यमंत्री
मनोनीत करते हैं और उससे ही अपना मंत्रिमंडल गठित करने की सिफ़ारिश करते हैं। यहाँ भी मुख्यमंत्री मनोनीत
होने के समय किसी व्यक्ति का विधान सभा अथवा विधान परिषद का सदस्य होना कोई ज़रूरी तो नहीं परन्तु उसे
भी मुख्यमंत्री की शपथ लेने के छः माह के अंदर विधान सभा/परिषद् का सदस्य बनना ज़रूरी है। इस संवैधानिक
व्यवस्था से एक बात तो स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री हो अथवा मुख्यमंत्री दोनों का ही चुनाव निर्वाचित लोकसभा अथवा
विधानसभा के बहुमत प्राप्त दल के सदस्यों द्वारा चुनावोपरांत ही किया जाता है। और देश अथवा राज्य को
प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति का नाम संसदीय अथवा विधान मंडल दल द्वारा
अपना नेता चुनने की कार्रवाई के पूरा होने के बाद ही पता चलता है।
परन्तु अब प्रायः यह देखा जाने लगा है कि अधिकांश दल अपने प्रस्तावित प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री के 'चेहरे '
को जनता के सामने चुनाव से पहले ही पेश कर चुनाव मैदान में उतरते हैं। इतना ही नहीं बल्कि यह भी देखा गया
है कि यदि लोकसभा अथवा विधान सभा में कोई व्यक्ति चुनाव हार जाता है उसके बावजूद पार्टी पराजित नेता के
राजनैतिक क़द को देखते हुये अथवा उसकी उपयोगिता को महसूस करते हुये उसे राजयसभा अथवा विधानपरिषद के
माध्यम से सदन का सदस्य बनाकर उसे मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पदों से नवाज़ती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि
जिस नेता को जनता ने नकार दिया है उसे पार्टी जबरन जनता पर थोपने का प्रयास कर रही है। जिसे जनता ने
नकारा और पराजित किया उसे मंत्रिमंडल में शामिल करना यह मतदाताओं की राय का अपमान है अथवा नहीं।
इसी प्रकार विभिन्न दलों के कुछ प्रमुख नेता दो दो चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ते नज़र आते हैं। ऐसा करने का एक
ही मक़सद होता है कि बिना कोई ज़ोख़िम उठाये हुये वे हर हाल में निर्वाचित होना चाहते हैं। अब यदि वे एक
जगह से चुनाव जीत गये और दूसरे क्षेत्र से पराजित हो गये फिर तो ठीक है। और यदि दोनों ही जगहों से विजयी
हो गये तो दोनों में से कोई एक सीट से वह सांसद अथवा विधायक बना रह सकता है जबकि दूसरी विजयी सीट से
उसे त्यागपत्र देना पड़ता है। यानी एक व्यक्ति एक ही समय में दो सीटों से निर्वाचित होकर किसी सदन का सदस्य
नहीं रह सकता। तभी उसे एक सीट से त्याग पत्र देना होता है। और चुनाव आयोग को छः महीने के अंदर उस
रिक्त की गयी सीट पर उपचुनाव कराना पड़ता है। ज़ाहिर है उस रिक्त सीट पर होने वाले उपचुनाव का ख़र्च भी
जनता को ही अपने टैक्स के पैसों से भरना पड़ता है। आख़िर इस 'एक्सरसाइज़' में जनता का क्या दोष है जिसका
भुगतान उसे करना पड़ता है ?
राजनेताओं के इस तरह के सुविधाजनक प्रयास भले ही संवैधानिक व्यवस्थाओं के नाम पर क्यों न किये जाते हों
परन्तु नैतिकता की दृष्टि से यह क़तई मुनासिब नहीं लगते। पी एम व सी एम के चेहरे को चुनाव पूर्व घोषित
करने की परंपरा तो अब इतनी सामान्य होती जा रही है कि यदि कोई दल चुनाव पूर्व अपने पी एम- सी एम पद
के दावेदार का नाम घोषित नहीं करता तो उसके विरोधी दल उसकी कमज़ोरी बताते हैं। यह प्रचारित करते हैं कि
अमुक दल के पास कोई लोकप्रिय चेहरा ही नहीं है तभी वह अपना दावेदार घोषित नहीं कर पा रहा। जबकि
संवैधानिक दृष्टिकोण से ऐसा करना ज़रूरी नहीं है।
मेरे विचार से किसी व्यक्ति के दो जगहों से चुनाव लड़ने की व्यवस्था को तो क़तई समाप्त किया जाना चाहिये
और यदि कोई दल अपने किसी नेता को इस योग्य समझता है कि किसी भी क़ीमत पर सदन में उसकी उपस्थित
बेहद ज़रूरी है और सदन व देश उसकी मौजूदगी के बिना नहीं चल सकता तो दो सीटों पर चुनाव जीतने के पश्चात
रिक्त की गयी सीट का पूरा चुनावी ख़र्च उसी दल से लिया जाना चाहिये जिसके नेता ने जीतने के बाद भी वह
सीट छोड़ी है। अन्यथा पार्टी को उस नेता के 'विराट व्यक्तित्व ' के साथ साथ जनता की राय पर भी भरोसा रखना
चहिये। इसी प्रकार चुनाव पूर्व पी एम व सी एम का चेहरा घोषित करने का भी कोई संवैधानिक औचित्य प्रतीत
नहीं होता। पूर्व घोषित पी एम अथवा सी एम के चेहरे पर यदि बहुमत प्राप्त दल के निर्वाचित सदस्य अपनी मोहर
लगा भी देते हैं तब भी इसे संवैधानिक रूप से निर्वाचित संसदीय /विधानमंडल दल का नेता चुनने की कार्रवाई
कहने के बजाय नेता के निर्वाचन की प्रक्रिया की औपचारिकता को पूरा करना ही कहा जा सकता है।