-प्रो(डॉ) शरद नारायण खरे-
कोकिली कंठी गायिका,छोड़ गई,हम मौन।
ऐसा स्वर अब है कहाँ,रस छलकाए कौन।।
नाम लता था,जान लें,जो थीं इक उपहार।
सदियों में पाता कभी,वर ऐसा संसार।।
मातु शारदे रूप थीं,वीणा का अवतार।
ताल,वाद्य सब उर बसे,हर लय थी साकार।।
बनकर भारत की रतन,बनीं सदा सिरमौर।
गूँजी स्वरलहरी सतत,कोई भी हो दौर।।
उनके सुर से नित सजे,भारत के चलचित्र।
गीत बन गए ख़ास अति,बने सभी के मित्र।।
हर दिल पर करती रहीं,दीदी जी तो राज।
युग-युग गूँजेगी 'शरद',उनकी मधु आवाज़।।
अंधकार अब शेष है,चला गया आलोक।
नहीं रहीं दीदी लता,बिखरा है अब शोक।।
युग मानो अब मूक है,गूँगा,बिन आवाज़।
वह हस्ती अब जा चुकी,था जिस पर तो नाज़।।
ऐसी वाणी,सौम्यता,अब नहिं कोई और।
जिसमें कोयल कूकती,चला गया वह दौर।।
श्रद्धामय प्रस्तुत नमन,भाव भरे हैं फूल।
अब बस वीराना बचा,चुभें विरह के शूल।।