-सुरेन्द्र कुमार ''किशोरी''-
1893 में 11 सितंबर को स्वागत संबोधन से लेकर 27 सितंबर के अंतिम भाषण तक में भारत से गए गेरुआ
वस्त्रधारी एक 30 वर्षीय युवक ने दुनिया के नक्शे पर लंबे समय से अग्रिम पंक्ति में शामिल अमेरिका में जाकर
जब भारतीय धर्म, संस्कृति, आध्यात्म पर हिन्दी में कुछ ऐसा विचार रखा कि वह विचार ना केवल उस समय
दुनिया में प्रासंगिक हुए, वरन 125 साल बाद भी दुनिया भर में उसकी चर्चा होती है तथा भारतीय अध्यात्म के
स्वर्ण अक्षरों में सदियों-सदियों तक दर्ज रहेगा।
विवेकानंद नाम के उस युवक ने शिकागो के विश्व धर्म संसद में स्वागत से लेकर अंतिम दिन तक हिंदुस्तान की
व्याख्या किया तो दुनिया चौंक उठा। तभी तो आज भी स्वामी विवेकानंद युवाओं के आदर्श हैं, दुनिया का सबसे
बड़ा छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सहित राष्ट्रवाद और युवा को लेकर बनाए गए संघ-संगठन
स्वामी विवेकानंद से संबंधित कार्यक्रम करते रहते हैं, उनके जन्म दिवस पर राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है।
युवाओं के प्रेरक, भारतीय संस्कृति के अग्रदूत, विश्वधर्म के उद्घोषक, व्यावहारिक वेदांत के प्रणेता, वैज्ञानिक
अध्यात्म के भविष्यद्रष्टा स्वामी विवेकानंद को चिर निंद्रा में सोए 120 वर्ष पूरा होने को हैं। लेकिन उनका
हिमालय-सा उत्तुंग व्यक्तित्व आज भी युगाकाश पर उज्जवलीमान सूर्य की तरह प्रकाशमान है। उनका जीवन दर्शन
आज भी उतना ही उत्प्रेरक एवं प्रभावी है, जितना सौ वर्ष पूर्व था। बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक बन गया है।
तब राजनीतिक पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी मां भारती के दीन-दुर्बल संतानों को इस योद्धा सन्यासी की हुंकार
ने अपनी कालजयी संस्कृति की गौरव गरिमा से परिचय कराया था। विश्वमंच पर भारतीय धर्म एवं संस्कृति के
सार्वभौम संदेश की गर्जना से विश्व चमत्कृत हो उठा था, आज हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी
बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक रूप से गुलाम हैं। आज देश भौतिक-आर्थिक रूप से प्रगति कर रहा है, समृद्ध होते
एक बड़े वर्ग की खुशहाली को देखकर इसका आभास होता है और उभरती आर्थिक शक्ति के रूप में इसका वैश्विक
आकलन और यहां की प्रतिभाओं का वर्चस्व भी आश्वस्त करता है। लेकिन प्रगतिशील इंडिया और आम इंसान के
गरीब भारत के बीच विषमता की जो खाई है, उसे पाटे बिना देश की समग्र प्रगति की तस्वीर अधूरी ही रहेगी।
विवेकानंद की विचारों को आत्मसात कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस खाई को पाट रहे हैं, दुनिया में भारतीय संस्कृति
का झंडा बुलंद कर रहे हैं। क्योंकि, बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पराधीनता से मुक्त युवा शक्ति ही उस स्वप्न को
साकार कर पाएगी, इसके लिए आध्यात्मिक उत्क्रांति की जरूरत है। स्वामी विवेकानंद का जीवन अपने प्रचंड प्रेरणा-
प्रवाह के साथ युवाओं को इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। हर युग में स्वामी विवेकानंद के वाक्यों
को मंत्रवत ग्रहण करते हुए कितने ही युवा अपना जीवन व्यापक जनहित एवं सेवा में अर्पित करते रहे हैं। अनेक
युवा उनके सम्मोहन में बंधकर आदर्शोन्मुखी जीवनधारा की ओर मुड़ रहे हैं। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में सबसे
पहले हमें स्वस्थ एवं वलिष्ठ शरीर की जरूरत है और बाकी चीजें बाद में आवश्यक हैं। कमजोर और रुग्ण
शरीरवाला अध्यात्म के मर्म को क्या समझ पाएगा। युवाओं को लोहे की मांसपेशियों की जरूरत है और साथ ही
ऐसी नस-नाड़ियों की जरूरत जो फौलाद की बनी हो। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि शरीर के साथ नस-नाड़ियों के
फौलादीपन से तात्पर्य मनोबल, आत्मबल से है, जो चरित्र का बल है। संकल्प ऐसा महान हैं जिसे कोई भी बाधा
रोक नहीं सके, जो अपने लक्ष्यसंधान के लिए ब्रह्मांड के बड़े-से-बड़े रहस्य का भेदन करने के लिए तत्पर हो, चाहे
इसके लिए सागर की गहराइयों में ही क्यों नहीं उतरना पड़े और मृत्यु का सामना ही क्यों नहीं करना पड़े। उन्होंने
कहा था कि स्वधर्म के साथ युगधर्म का बोध भी आवश्यक है, अपने कल्याण के साथ राष्ट्र, पीड़ित मानवता की
सेवा जीवन का अभिन्न अंग बनें। ऐसा धर्म किस काम का, जो भूखों का पेट नहीं भर सके। अगले एक सौ वर्षों
तक हमें किसी भगवान की जरूरत नहीं है। क्योंकि गरीब, पीड़ित, शोषित, अज्ञानग्रस्त, पिछड़ा समुदाय ही भगवान
है। लानत है ऐसे शिक्षितों पर जो उनके आंसू नहीं पोंछ सकें, जिनके बल पर इस जीवन की दक्षता को हम अर्जित
करते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में उम्मीद है उन युवाओं से जिनकी एकमात्र पूंजी भाव संवेदना तथा आदर्श प्रेम है,
ऐसे समर्पित युवा ही ईश्वरीय योजना का माध्यम बनेंगे। उन्हें वह सूझ और शक्ति मिलेगी कि वे कुछ सार्थक कार्य
कर सकें। वही अपने उच्च चरित्र, सेवाभाव और विनय द्वारा देश, समाज एवं विश्व का कुछ भला कर सकेंगे। जब
मेरा शरीर नहीं रहेगा तो मेरी आत्मा उनके साथ काम करेगी। स्वामी विवेकानंद द्वारा कहे गए यह शब्द आज भी
एक आह्वान के रूप में महसूस किए जा सकते हैं। धर्म का सार दो शब्दों में समाहित करते हुए स्वामी विवेकानंद
ने कहा था कि सच्चाई एवं अच्छाई का रास्ता विश्व का सबसे फिसलन भरा एवं कठिन मार्ग है। कितने सारे लोग
इसके रास्ते में ही फिसल जाते हैं, बहक-भटक जाते हैं और कुछ मुट्ठीभर इसके पार चले जाते हैं। अपने उच्चतम
ध्येय के प्रति मृत्युपर्यंत निष्ठा ही चरित्रबल और अजेय शक्ति को जन्म देती है। यह शक्ति निस्संदेह सत्य की
होती है, यही सत्य संकटों में, विषमताओं में, प्रतिकूलताओं में रक्षा कवच बनकर दैवी संरक्षण देता है। इसके समक्ष
धन, ऐश्वर्य, सत्ता, समस्त विद्याएं एवं सिद्धियां तुच्छ हैं, तीनों लोकों का वैभव भी इसके सामने कुछ नहीं है।
चरित्र की शक्ति अजेय है, अपराजेय है, लेकिन यह एक दिन में विकसित नहीं होता है, हजारों ठोकरें खाते हुए
इसका गठन करना होता है। जब चरित्र विकसित हो जाता है तो एक व्यक्ति में पूरे विश्व-ब्रह्मांड के विरोध का
सामना करने की शक्ति पूर्ण प्रवाह से आ जाती है, आज जरूरत ऐसे ही चरित्रनिष्ठ युवाओं की है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मुझे ऐसे मुट्ठीभर भी युवक-युवतियां मिल जाएं तो समूचे विश्व को हिला दूंगा।
ऐसे पवित्र और निस्वार्थ युवा ही किसी राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं, आदर्श के प्रति समर्पित आत्मबलिदानी युवाओं की
आज जरूरत है, जो लक्ष्यहित के लिए बड़ा से-बड़ा त्याग करने के लिए तैयार हों। अपने उद्बोधन में स्वामी
विवेकानंद ने किशोरावस्था के ऊहापोह का चित्रण करते हुए कहा था कि युवावस्था में मैं भी निर्णायक मोड़ पर था,
निर्णय नहीं कर पा रहा था कि सांसारिक जीवनयापन करूं या गुरु के बताए मार्ग पर चलूं। अंत में निर्णय गुरु के
पक्ष में गया, जिसमें राष्ट्र एवं व्यापक विश्वमानव का हित निहित था और मैंने अर्पित जीवन के पक्ष में निर्णय
लिया। खून से लथपथ हृदय को हाथ में लेकर चलना पड़ता है, तब जाकर महान कार्य सिद्ध होते हैं। बिना त्याग
के किसी बड़े कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। उन्होंने कहा था जीवन में किसी एक आदर्श का होना जरूरी है।
इसी आदर्श को जीवनलक्ष्य बना दें, इस पर विचार करें, इसका स्वप्न लेकर अपने रोम-रोम में समाहित कर लें,
जीवन का हर पल इससे ओत-प्रोत रहे। गहराई में उतरना होगा, तभी हम जीवन का कुछ सार तत्त्व पा सकेंगे और
जग का भला कर पाएंगे। पहले स्वयं पर विश्वास करना होगा, फिर भगवान एवं दूसरों पर। अपने विश्वास पर दृढ़
रहें, बाकी सब अपने आप ठीक होता जाएगा।