-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
देश के संवैधानिक संघीय ढांचे को निरंतर प्रभावित करने के प्रयास तेजी से चल रहे हैं। पंजाब राज्य में देश के
प्रधानमंत्री के सुरक्षात्मक अनुशासन को तार-तार कर दिया गया। उन्हें मौत के नजदीक पहुंचाने का पूरा प्रयास
किया गया। तिस पर वहां के मुख्यमंत्री ने इसे एक आकस्मिक घटना ही नहीं बताया बल्कि दलगत राजनीति से
भरे तंज भी कसे। इसी तरह बंगाल में एक चिकित्सालय के उद्घाटन के दौरान वहीं की मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के
व्दारा किये गये लोकार्पित संस्थान को पहले से ही उद्घाटित बताकर उनका खुले आम मुखौल उडाया। इस तरह की
घटनाओं को राज्यों के व्दारा किये जाने वाले मनमाने आचरण के रूप में देखा जा रहा है। कांग्रेस ने पंजाब सूबे में
पार्टी की कमान उस व्यक्ति के हाथों में सौंपी है जो सीमापार से आतंक फैलाने वालों का जिगरी दोस्त बताया
जाता है। सत्ताधारी दलों की आपसी कलह को लेकर संवैधानिक मर्यादायें हाशिये के बाहर हो रहीं हैं। निर्धारित मूल्यों
को दलगत हितों के ऊपर शहीद किया जा रहा है। पंजाब में प्रधानमंत्री को 20 मिनिट तक ओवर ब्रिज पर जिस
तरह से असुरक्षित रखकर विघटनकारी ताकतों को अप्रिय घटित करने की छूट दी गई, उससे पूरा देश आवाक है।
घटना स्थल के समीप पाई जाने वाली लावारिस पाकिस्तानी नाव, यूट्यूब पर विदेशों से पूर्व में अपलोड किये गये
वीडियो, आंदोलनकारी किसानों के छद्म वेश में एकत्रित होने वाले षडयंत्रकारियों की भीड, सोशल मीडिया पर पंजाब
काण्ड पर निरंतर अपलोड हो रहे वीडियो में राज्य पुलिस की उग्रभीड के साथ दिख रही यारी जैसे अनेक कारक
जांच के बिन्दु हो सकते हैं। मगर प्रश्न यह उठता है कि देश का संघीय संविधान बडा है या फिर दलगत स्वार्थ।
बंगाल चुनावों में जिस तरह से वहां की सत्ताधारी पार्टी ने मनमानी का खुला तांडव किया था, वह किसी से छुपा
नहीं है। वहां के राज्यपाल के साथ चल रहे विवाद को मुख्यमंत्री खुलेआम प्रचारित करने में जुटी हैं ताकि अन्य
राज्यों में भी इसी तरह का संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाये। विश्वमंच पर शांतिदूत के रूप में परिभाषित होने
वाले भारत गणराज्य को आंतरिक युध्द की कगार पर पहुंचाने वाले लोग अब राज्यों के विशेषाधिकारों की आड में
अपने षडयंत्र को मूर्तरूप देने में जुटे हैं। देश के टुकडे होंगे, खुला छोड दो, कुछ समय के लिए पुलिस हटा लो,
हमारे युवा कानून को हाथों में ले लेंगे जैसे अनेक घातक षडयंत्रों को जन्म दिया जाता है और फिर उनको अंजाम
तक पहुंचाने वालों के बचाव में एक खास तबका खडा होकर बयानबाजी, कानूनी दावपेंच और दलगत समर्थन को
सुरक्षाघेरा बना लेता है। देश में एक समय ऐसा भी था जब कश्मीर चुनाव के दौरान सेना के जवान को आतंकी
खुलेआम थप्पड मारते थे, पथराव करते थे और अगर भूल से भी किसी सैनिक ने आत्मरक्षा हेतु जीप भी दौडा दी,
तो उसे कानूनी शिकंजे में फंसाकर आरोपी से अपराधी बनाने का प्रयास किया गया। सेना के हाथ बांधकर उसे
जानबूझकर सोची समझी योजना के तहत मौत के मुहाने पर पहुंचाया जा रहा था, मनोबल तोडा जा रहा था और
बढाया जा रहा था आतंकियों का हौसला। अतीत की गवाही पर वर्तमान के प्रश्नचिंह अंकित हो रहे हैं। बंगाल की
तानाशाही, पंजाब की मनमानी और छत्तीसगढ की गैरकानूनी कार्यवाहियों का उदाहरण सघीय ढांचे को तोडने के
प्रयासों को स्वत: ही रेखांकित कर जाता है। इस मुद्दे की आहट पहले भी सुनी जा चुकी थी परन्तु उसके बाद के
घटनाक्रम ने तो पहले की आहट के सटीक विश्लेषण को अक्षरश: प्रमाणित कर दिया है कि देश के संघीय स्वरूप
को तहस-नहस करने वाले निरंतर षडयंत्र कर रहे हैं। प्रधानमंत्री देश का होता है। उसका सम्मान, उसकी सुरक्षा,
उसके निर्णयों पर क्रियांवयन करना राज्यों का उत्तरदायित्व है। दलगत प्रतिस्पर्धा पर चुनाव प्रक्रिया पूरी होते ही
पूर्णविराम लग जाना चाहिए। राष्ट्र को सर्वोपरि मानने की मानसिता को स्थापित होना चाहिए। सभी नागरिकों के
सामान्य हितों के लिए प्रयास होना चाहिए। देश की सुरक्षा, अखण्डता और प्रभुसम्पन्नता के लिए सभी दलों को
एक मंच पर खडा होना चाहिए। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। विश्वमंच पर देश की छवि की चिन्ता किये
बिना ही दलगत राजनीति से वोटबैंक बढाने वालों को आज स्वयं का आत्मावलोकन करना आवश्यक है मगर ऐसा
नहीं होगा। सत्ता से सुख बटोरने की चाहत रखने वालों ने देश की छवि को बट्टा लगाने में कोई कसर नहीं छोड
रहे हैं। यह एक संयोग है कि कलुषित मानसिता के प्रत्यक्षीकरण के माहौल में ही पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा
की गई है। ऐसे में आने वाले परिणामों का स्वरूप आशातीत परिवर्तन के आवरण में लिपटा हो सकता है बशर्ते कि
पार्टियां अपने उम्मीदवारों का चयन ईमानदारी से करें। लम्बे समय से पार्टी में निष्ठा के साथ काम करने वाले
उज्जवल छवि के स्थानीय प्रत्याशी को ही क्षेत्र के प्रतिनिधि के रूप में सफलता मिलने की संभावना बलवती होती
जा रही है। दूसरे क्षेत्र के व्यक्ति को थोपने, जातिगत आंकडों को तौलने और सम्प्रदायगत समीकरण बैठाने के
दावपेंच इस बार धराशाई होते दिख रहे हैं। पार्टियों की नीतियां, उनके दिग्गजों के बयान और अतीत की घटनायें
भी मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित करेंगे। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि संघीय ढांचे पर चोट
करने वाले राज्यों की सत्ताधारी पार्टियों को घोषित चुनावों में उनके मनमाने कृत्यों का प्रतिफल मिल सकता है। इस
बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।