धनबाद। डाईइलेक्ट्रिक रेसोनेटर एंटीना विद मेटा मैटेरियल बनाने की तकनीक फिलहाल नासा, यूरोपियन यूनियन व रूसी स्पेस एजेंसी के पास ही है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने इस कमी को दूर करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।
इस काम के लिए भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान (आईआइटी) धनबाद को जिम्मा सौंपा गया है। जिसका दावा है कि दो साल के भीतर वह नैनो-एंटीना यानी डाईइलेक्ट्रिक रेसोनेटर एंटीना विद मेटा मैटेरियल बनाने में सफल हो जाएगा।
इसरो ने दुनियाभर में अपना डंका बजाया है। सटीक व कारगर उपग्र्रह तकनीक, सस्ती व सफलतम उपग्रह प्रक्षेपण प्रणाली और चंद्रयान व मंगलयान जैसी महत्वाकांक्षी उड़ानों ने इसरो को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी स्थान पर ला खड़ा किया है।
आने वाला समय छोटे उपग्र्रहों का होगा। हल्के व उच्च क्षमता युक्त उपग्रहों यानी नैनो-सेटेलाइट्स का। इनमें जो सबसे जरूरी चीज है, वह है इनमें लगाया जाने वाला नैनो एंटीना। इसरो के सामने इसे विकसित करने की चुनौती है।
क्यों पड़ी जरूरतः इसरो के पास नैनो-सेटेलाइट्स प्रक्षेपण को इच्छुक अंतर्राष्ट्रीय ग्र्राहकों की लंबी कतार है। इसी साल फरवरी में इसरो ने एक बड़ा कीर्तिमान स्थापित किया।
एक रॉकेट से 104 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर इस तरह का इतिहास रचने वाला भारत पहला देश बन गया। इनमें से भारत के मात्र तीन जबकि अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों के 101 नैनो-सेटेलाइट्स शामिल थे।
नैनो-सेटेलाइट्स का व्यावसायिक प्रक्षेपण इसरो की व्यावसायिक शाखा अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन लिमिटेड की देखरेख में किया जा रहा है। आने वाला उच्च क्षमता युक्त नैनो-सेटेलाइट्स का होगा। इसमें आगे रहने के लिए इसरो ने तैयारी शुरू कर दी है।
क्यों जरूरी है यह एंटीनाः दरअसल, एंटीना किसी भी उपग्रह का सबसे अहम हिस्सा होता है। जो सोर्स से रिसीव की जाने वाली सूक्ष्म तरंगों को बिना परिवर्तित किए परावर्तित (दूसरी दिशा में मोड़ने) का काम करता है।
नैनो-सेटेलाइट्स क्योंकि अपेक्षाकृत छोटे और हल्के होते हैं, लिहाजा इनका एंटीना भी बहुत ही छोटा और बहुत हल्का होता है। इसे बेहद हल्के मेटा मैटेरियल (पदार्थ) से बनाया जाता है। मेटा मैटेरियल को प्रयोगशाला में तैयार किया जाता है।
एंटीना इतना छोटा होता है कि हथेली में सिमट जाए। इसकी लंबाई 20 मिमी व चौड़ाई करीब 15 मिमी होती है। इस तकनीक से सुसज्जित होने पर इसरो की अंतरिक्ष में पकड़ और बढ़ेगी। इसरो स्वदेशी तकनीक के दम पर ही अमेरिका, यूरोपियन यूनियन व रूस को कड़ी टक्कर दे रहा है।
इन तीनों के पास यह एंटीना बनाने की तकनीक है, लेकिन इसरो इनका सहयोग लेने की बजाय स्वदेशी तकनीक विकसित करने की ओर अग्र्रसर है।
मिलेगी सफलताः इसरो ने इस काम के लिए आईआईटी धनबाद के इलेक्ट्रॉनिक एंड कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग (ईसीई) को दो साल का वक्त दिया है। आईआईटी ने प्रोजेक्ट पर काम भी शुरू कर दिया है। उसे उम्मीद है कि वह इसमें सौ फीसद सफल होगा। आईआईटी (आइएसएम) धनबाद की पहचान अर्थ साइंस इंजीनियरिंग में देश के सर्वोच्च संस्थान के रूप में है।
नहीं किसी से कमः 1992 की बात है जब अमेरिका के विरोध के चलते रूस ने भारत को क्रायोजेनिक लिक्विड राकेट इंजन तकनीक देने से इंकार कर दिया था। इसरो ने चुनौती को स्वीकार किया। दो साल के भीतर ही रूस से कहीं बेहतर स्वदेशी तकनीक विकसित कर दिखाई। और जनवरी, 2014 को स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण जीएसएलवी डी5 उड़ान में कर दिखाया।