-सपना मांगलिक-
जब भी हम शौच की समस्या के बारे में सोचते हैं तो बस सोच कर ही रह जाते हैं.कहने में संकोच का अनुभव
होता है और मन की बात मन में ही रह जाती है.सोचना यह है कि इतने आवश्यक और अनुसंधानात्मक तत्व को
समाज ने इतना निकृष्टतम शव्द घोषित किया हुआ है कि मेरा जैसा कोई बुद्धिजीवी इस विषय पर चर्चा करना
भी चाहे तो उसे तो उसे सरेआम,भरे समाज असभ्य मान लिया जाता है.जबकि तमाम रोगों की जड़ यही शौच
अर्थार्थ गंदगी है जो हमारे शरीर से उत्सर्जित हो या पशु पक्षियों या कीटाणु के शरीर से (मधुमक्खी अपवाद है
)रोगाणु ही फैलाती है.
साथ में यह हमारे शरीर और जीवन की वो अत्यंत आवश्यक क्रिया है जो सही समय पर यदि उत्सर्जित ना हो तो
यह विस्फोटक रूप में स्वंय उत्सर्जित होने को उतावली हो उठती है,कभी कभी हो भी जाती है.और आपको महफ़िल
में शर्मिंदगी का पात्र भी बना सकती है.अब सोचिये की एक बार गलती से यह विस्फोटक रूप में उत्सर्जित हो जाए
तो क्या होगा? महोदय ऐसा रायता फैलेगा कि समेटे न सिमटेगा.उत्सर्जन का विसर्जन करने की समस्या जो सर पे
आएगी तो हाथों से तोते उड़ जायेंगे.
अब सवाल यह उठता है कि इतनी आवश्यक दैनिक क्रिया निकृष्टतम मानकर उसकी अवहेलना करना या उससे
सम्बंधित समस्याओं पर विचार ना करना कहाँ तक उचित है? मेरी नजर में तो यह उतना ही संवेदनशील और
जरूरी मुद्दा है जैसे कि -"कश्मीर का मुद्दा."जी हाँ,जब भी कश्मीर का मुद्दा उठता है तो गोलीबारी होती है,गैस के
गोले छोड़े जाते हैं.ठीक वैसा ही इस मामले में होता है यह मुद्दा (शौच)एक बार उठा तो भैया इसे रोकना लगभग
नामुमकिन हो जाता है.गैस के गोले अपने आप छूटने लगते हैं.और जो आपने गलती से बिना सोचे समझे कहीं
मौका देख चौका मार लिया तो गोलीबारी प्लस मारामारी होना निश्चित है.
हमारे एक सगे सम्बन्धी के साथ कुछ ऐसा ही हादसा हुआ.हमारे मित्र भी हमारी तरह थोड़ी शायरी वेरी कर लिया
करते हैं.तो जनाब उन्हें किसी कस्बे की एक बारात में बाराती बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.बारात कस्वे कि एक
पुरानी जर्जर धर्मशाला में ठहराई गयी.शाम को जैसे ही बरात की निकासी शुरू हुई.उधर हमारे सम्वन्धी को
निकासने की प्रवाल इच्छा शुरू हो गयी.वह बरात बीच में ही छोड़ इधर उधर निकासने का स्थान खोजने भागे
वापस धर्मशाला पहुंचकर देखा कि पूरी धर्म शाला में चार शौचालय हैं जिनमे तीन घिरे थे और एक की कुण्डी खुली
हुई थी.वह लपक कर उसमे घुसे और अन्दर से कुण्डी लगा निकासने की तैयारी कर ही रहे थे कि उनकी नजर
जिस दुर्गन्धयुक्त नजरते पर पड़ी तो वहां से उल्टियां करते करते वापस भागने में ही भलाई समझी.इधर बाई पास
रास्ते से दनादन गोलीबारी जारी थी और साथ में विस्फोट कि चेतावनी भी कूट संकेतों से उन्हें प्राप्त होने लगी.वह
अब धर्मशाला के बाहर स्थान तलाशने को भागे.वह जिस गति से दौड़ रहे थे उस तरह से तो लाहोर में मिल्खा सिंह
भी नहीं दौड़े होंगे.
मगर बेचारे जहाँ भी नजर घुमाते या तो कोई मंदिर दिखाई पड़ जाता या कही किसी देवता का दुकान या चौराहों
पर लिख नाम नजर आ जाता.सड़क के हर कोने या गार्वेज के पास भगवान् के नाम की या तो कोई शिला रखी
होती या दो चार इन्ट जोड़कर बनाया मकबरानुमा चीज दिखाई दे जाती.और वह दुगनी रफ़्तार से दूसरी दिशा में
स्थान ढूँढने लगते.जब भागते भागते वह इस स्थिति में पहुँच गए कि -भैया या तो "आर या फिर पार "तो बेचारे
वक्त की नजाकत भांप अँधेरे में खडी एक गाडी की शरण में चले गए और कुछ समय पश्चात् जब आराम की
स्थिति में आये तो ना जाने कहाँ से गाडी का मालिक टपक पड़ा.उनकी स्तिथि काटो तो खून नहीं जैसी हो गयी
मरता क्या ना करता की तर्ज पर वह गाडी मालिक से हाथ पांव जोड़ क्षमा याचना करते रहे मगर गाडी मालिक ने
जब तक उन्हें अपनी भरी भरकम गालियों के ज्ञान से अवगत ना कर लिया तब तक चैन की सांस नहीं ली.
तो जनाब यह समस्या केबल हमारे सम्बन्धी के साथ ही नहीं जीवन में एक ना एक बार आप सबको कहीं ना कहीं
अनुभव जरूर हुआ होगा.आखिर हों भी क्यों ना? हमारे समाज में कदम कदम पर मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे और
उनको बनाने वाले धर्म के ठेकेदार जो सुबह उठकर सबसे पहले यही क्रिया करते हैं तो आपको मिल जायेंगे मगर
शौचालय बहुत कम मिलेंगे.हमारे यहाँ जितनी धार्मिक इमारतें हैं अगर उन का 10 प्रतिशत भी शौचालय हमारे पूरे
भारत में नहीं है.बहुत ही हास्यापद बात है कि जिन देवालयों में हम स्वच्छ होकर प्रवेश करना अनिवार्य है उसी
स्वच्छता के लिए जगह जगह स्थान का निर्माण करना कोई जरूरी नहीं समझता.और फिर जनाब हालात कुछ ऐसे
बन पड़ते हैं कि जगह की सुविधा प्राप्त ना होने पर मनुष्य असुविधा के साथ ही अपना कर्म तो करता ही है.और
क्यों ना करे हमारे देवालयों में विराजमान देव भी तो यह शिक्षा देते हैं कि- “हे मनुष्य कर्म कर फल की चिंता मत
कर.”