-राकेश सैन-
देश के संवेदनशील सीमान्त राज्य पंजाब व इसके आसपास क्षेत्रों में उच्च स्तर पर हो रहे धर्मपरिवर्तन पर चिन्ता
जताते हुए सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने उत्तर भारत
में धर्मान्तरण पर रोक लगाने की मांग की है। जत्थेदार के अनुसार, ईसाई मिशनरीज के लोग सीमावर्ती क्षेत्रों में
लालच देकर हिन्दू-सिखों का धर्म बदल रहे हैं जिस पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए। वैसे तो पंजाब में 1834 में
ही जॉन लॉरी व विलियम रीड नामक ईसाई मिशनरियों के प्रवेश के बाद से ही धर्मांतरण का दुष्चक्र जारी है परन्तु
इन दिनों इसमें आई तेजी ने यकायक धर्मगुरुओं के साथ-साथ समाज शास्त्रियों व सामरिक विशेषज्ञों का ध्यान
अपनी ओर आकर्षित किया है।
जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के इन आरोपों के बदले चर्च का कोई आधिकारिक ब्यान तो नहीं आया है परन्तु ऐसे
अवसरों पर मिशनरियों का एक ही रटा-रटाया जवाब होता है कि देश का संविधान उन्हें धर्म के प्रचार की अनुमति
देता है और वे उसी के अनुसार देश में प्रभु ईसा के सन्देशों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। असल में धर्म प्रचार के
अधिकार की आड़ में अभी तक ऐसा झूठ पेश किया जाता रहा है जिसकी हमारा संविधान व न्याय व्यवस्था कतई
अनुमति नहीं देते। संविधान सभा में हुई चर्चाओं व सर्वोच्च न्यायालय के समय-समय पर आए निर्णयों में यह साफ
निर्देश है कि धर्म के प्रचार का अधिकार किसी को कहीं भी धर्मांतरण की अनुमति नहीं देता।
संविधान सभा में ‘धर्म स्वातन्त्रय’ अधिकार से सम्बन्धित अनुच्छेद पर हुई बहस में एक मुद्दा था कि ‘धर्म के
प्रचार’ का अधिकार देना उचित होगा या नहीं। संविधान का वर्तमान अनुच्छेद 25 संविधान प्रारूप में अनुच्छेद
क्रमांक 19 पर रखा गया जिस पर 3 व 6 दिसम्बर, 1948 को विस्तृत बहस हुई। इस बहस में प्रो. के.टी. शाह,
सर्वश्री तजामुल हुसैन, लोकनाथ मिश्रा, एच.वी. कॉमथ, मो. इस्माइल साहिब, पं. लक्ष्मीकान्त मैत्रा, एल.
कृष्णास्वामी भारती, के. सन्थानम, रोहिणी कुमार चौधरी, टी.टी. कृष्णामचारी व के.एम. मुंशी सहित 11 सदस्यों ने
हिस्सा लिया। धर्म के प्रचार के अधिकार का विरोध करते हुए तजामुल हुसैन ने कहा कि- ‘‘मैं समझता हूं कि धर्म
एक व्यक्ति तथा रचनाकार के बीच एक निजी मामला है। मेरा धर्म मेरा और आपका धर्म आपका विश्वास है। आप
मेरे धर्म में हस्तक्षेप क्यों करें ? मैं भी आपके धर्म में दखलन्दाजी क्यों करूं ?’’ मतान्तरण को देश विभाजन का
कारण बताते हुए लोकनाथ मिश्रा ने कहा- ‘‘संविधान प्रारूप का अनुच्छेद 13 (वर्तमान 19) यदि स्वतन्त्रता का
घोषणापत्र है तो अनुच्छेद 19 (वर्तमान 25) हिन्दुओं के सर्वनाश का घोषणापत्र। मैंने सभी संवैधानिक पूर्वनिर्णयों
का अध्ययन व उनका चिन्तन किया है। मुझे धर्म से सम्बन्धित मौलिक अधिकार में कहीं भी ‘प्रचार’ शब्द नहीं
मिला।’’ उन्होंने स्पष्ट कहना था कि हर व्यक्ति को जैसा वह जीना चाहता है वैसा उसे जीने दो परन्तु उसे अपनी
संख्या बढ़ाने की कोशिश मत करने दो। यह दीर्घकाल में बहुमत को निगलने वाला उपाय है।
संविधान सभा के वरिष्ठ सदस्य प्रो. के.टी. शाह ‘प्रचार’ के विरोधी तो नहीं थे परन्तु वे चाहते थे कि इसका
दुरुपयोग न हो। वे मानते थे कि चिकित्सक, नर्स, अनाथालयों व बालगृहों के संचालक, अध्यापक या संरक्षक अपने
प्रभाव का प्रयोग कर प्रभावित लोगों का धर्मांतरण करवाते हैं तो यह अनुचित होगा जिसे रोका जाना चाहिए।
संसदीय प्रणाली के ज्ञाता व वामपन्थी झुकाव वाले प्रकाण्ड विद्वान एच.वी. कॉमथ ने विचार किया कि भारत के
सनातन जीवन मूल्यों के बारे में नागरिकों को प्रशिक्षण दिया जाए। उन्होंने कहा कि- ‘‘युगों से भारत आध्यात्मिक
अनुशासन व आध्यात्मिक उपदेश की एक निश्चित पद्धति के लिए कटिबद्ध है, जो संसार में ‘योग’ के नाम से
जानी जाती है। महायोगी अरविन्द ने बार-बार कहा है कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता ‘योग’ के अनुशासन
द्वारा चेतना के रुपान्तरण की है। मानवता को उच्च स्तर तक उठाना है।’’ इसी तरह रोहिणी कुमार चौधरी ने
ईसाई मिशनरियों से आग्रह किया कि वह अन्य धर्मों पर कीचड़ न उछालें। समिति के अन्य सदस्य एल.
कृष्णास्वामी भारतीप, पं. लक्ष्मीकान्त मैत्रा ने प्रचार का समर्थन तो किया परन्तु उनका उद्देश्य था कि प्रचार के
माध्यम से एक धर्म दूसरे की विशेषताओं को जानें, ताकि वे परस्पर कुछ न कुछ सीख सकें, पर प्रचार का अर्थ
धर्मांतरण किसी भी सूरत में नहीं लिया जा सकता। इसके बावजूद देखने में आ रहा है कि चर्च प्रचार के शब्द की
मनमाफिक व्याख्या करती है और इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानती है।
केवल संविधान सभा ही नहीं बल्कि समय-समय पर न्यायालयों ने भी धर्मांतरण को गलत बताया है। साल 1968
में मध्य-प्रदेश सरकार ने ‘म.प्र. धर्म स्वातन्त्रय अधिनियम’ तथा ओडिशा सरकार ने इसी तरह का अधिनियम
पारित करते हुए धर्मांतरण पर रोक लगाई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने रेवरेण्ड स्टैनिस्लास बनाम म. प्र. (1977) 2-
एस.सी.आर. 616, में उपरोक्त अधिनियमों के प्रावधानों को संवैधानिक रूप से सही ठहराया। सर्वोच्च न्यायालय ने
अनुच्छेद 25 के तहत धर्म स्वातन्त्र्य अधिकार की व्याख्या करते हुए ‘धर्म प्रचार के अधिकार’ की व्याख्या
सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर अपना निर्णय दिया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘‘यह अनुच्छेद किसी अन्य व्यक्ति
को अपने रिलीजन में मतान्तरित करने का अधिकार नहीं देता, बल्कि रिलीजन तत्वों को प्रकट करते हुए उसके
प्रचार या प्रसार करने की आज्ञा देता है। अनुच्छेद 25(1) अन्त:करण की आजादी की गारण्टी प्रत्येक नागरिक को
देता है, जो अवधारित करता है कि दूसरे व्यक्ति को अपने रिलीजन में मतान्तरित करने का कोई मूल अधिकार
नहीं है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो वह सभी नागरिकों को दिए गए ‘अन्त:करण की स्वतन्त्रता’ के मौलिक
अधिकार का हनन करेगा।’’ देश में मतान्तरण का गन्दा खेल खेल रहे ईसाई मजहब के प्रचारकों को उक्त सन्दर्भों
से सीख ले कर न केवल आत्मविश्लेषण करना बल्कि धर्मांतरण के असंवैधानिक कृत्यों को तुरन्त बन्द करना
चाहिए। देश में धर्म प्रचार व धार्मिक स्वातन्त्र्य के अधिकार की मनमाफिक व्याख्या स्वीकार्य नहीं है।