-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
लगभग एक साल के बाद किसान आंदोलन की समाप्ति हो गई है। आंदोलनकारियों द्वारा दिल्ली के चारों ओर
लगाया गया धरना भी उठा लिया गया है और धीरे-धीरे यातायात भी सामान्य होने लगा है। कृषि संबंधी तीन
क़ानून जिनको लेकर इतना विवाद उत्पन्न हुआ था, वे सरकार ने वापस ले लिए। वैसे वे क़ानून कभी लागू नहीं
हुए थे। उन्हें उच्चतम न्यायालय ने लम्बित रखा हुआ था। उन क़ानूनों को लेकर शुरू से ही दो मत थे। कृषि
अर्थशास्त्री तो इन क़ानूनों को किसानों के लिए हितकारी ही बता रहे थे। पंजाब के जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री तो
इस संबंधी अपनी राय मीडिया के माध्यम से ज़ाहिर भी करते रहते थे। वे इस बात पर दुख भी प्रकट करते थे कि
कुछ लोग इन क़ानूनों को लेकर किसानों को गुमराह कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी लगभग यही बात कही
कि हम किसानों को इन क़ानूनों के लाभ नहीं समझा सके। इस बात से सभी सहमत हैं कि कृषि को उद्योग से
जोड़ना होगा, तभी भविष्य में कृषि लाभकारी रहेगी। साथ ही किसानों को अपना माल बेचने के अधिक विकल्प हों
तो निश्चय ही उनको अपनी उपज का लाभकारी मूल्य मिल सकेगा। फसलों के चक्र को भी बदलना होगा, अन्यथा
भूमि की शक्ति कम होती जाएगी। फसलों का उत्पादन स्थानीय ज़मीन का गुण-दोष देखकर ही करना चाहिए
अन्यथा जलस्तर की स्थिति पंजाब के मालवा जैसी हो सकती है। किसानों की सबसे बड़ी समस्या बिचौलियों की है।
कहा भी जाता है, किसान सदा ग़रीब रहता है, बिचौलिया मालामाल हो जाता है। किसान के रास्ते में आ रही इन
रुकावटों को दूर करना ही इन कृषि क़ानूनों का लक्ष्य था। लेकिन ये सभी दूरगामी लक्ष्य हैं। दूरगामी लक्ष्यों की
प्राप्ति के लिए जिस प्रकार का वातावरण संबंधित पक्ष में बनाना चाहिए, वह शायद सरकार बना नहीं पाई।
दरअसल यह काम सरकार का है भी नहीं। यह कार्य सामाजिक संगठनों का है।
सामाजिक संगठन किसी न किसी राजनीतिक संगठन से जुड़े रहते हैं। राजनीतिक दल को अपने राजनीतिक हित
साधना होता है। उसका लक्ष्य अल्पगामी होता है। उसके लिए ठीक-ग़लत का निर्णय इस पैमाने से होता है कि उसे
कौन सा निर्णय ज्यादा वोट दिलवा सकता है। ये तीन कृषि क़ानून कुछ राजनीतिक दलों की इसी हवश का शिकार
हो गए। जिन किसान संगठनों ने आंदोलन शुरू किया, उनमें से कुछ तो कांग्रेस से जुड़े हुए थे, कुछ अकाली पार्टी
से ताल्लुक़ रखते थे, कुछ कम्युनिस्ट पार्टियों के विभिन्न गुटों से ताल्लुक़ रखते थे। पंजाब में कांग्रेस सरकार थी,
इसलिए उसके लिए जरूरी था कि इस आंदोलन को हवा ही नहीं देती, बल्कि इसकी व्यवस्था भी करती और उसने
ऐसा किया भी। प्रश्न उठ सकता है कि यदि क़ानून किसानों के लिए लाभकारी थे तो आखिर सरकार या उससे जुड़े
सामाजिक संगठन किसानों को यह समझा क्यों नहीं पाए। मैंने उन दिनों पंजाब के मालवा क्षेत्र में कुछ स्थानों का
दौरा किया था। किसानों में आम चर्चा होने लगी थी कि इन क़ानूनों से उनकी ज़मीनें छीन ली जाएंगी। ऐसा संभव
नहीं था, लेकिन कुछ संगठनों ने यह बात आम किसान के दिमाग में उतार दी थी। यह घटना कुछ-कुछ उसी प्रकार
की थी, जैसी प्रताप सिंह कैरों के मुख्यमंत्रित्व काल में जब भाखड़ा डैम से निकली नहरों के पानी को लेकर
ख़ुशहाली टैक्स लगाया तो कम्युनिस्ट पार्टी ने आंदोलन छेड़ दिया कि इस पानी की तो बिजली पहले ही निकाल ली
गई है, अब इस पानी पर कैसा टैक्स? बिजली निकाल लेने के बाद तो पानी में ताक़त ही नहीं बची। सब जानते हैं
कि इस बात में कोई दम नहीं, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी पंजाब के किसानों के दिमाग में यह बात डालने में सफल
हो गई और उसने लंबे अरसे तक एक दमदार आंदोलन चला दिया। कैरों को उस आंदोलन को दबाने के लिए जगह-
जगह बल प्रयोग करना पड़ा।
वर्तमान किसान आंदोलन के मामले में भी लगभग वैसा ही हुआ। कम्युनिस्ट जत्थेबंदियां, जिनका प्रभाव पंजाब
क्षेत्र से अरसा पहले समाप्त हो चुका था, पिछले आठ-दस साल से नए कैडर के निर्माण में लगी हुई थीं। अब उन्हें
किसी आंदोलन की दरकार थी। जैसे ही कृषि क़ानून आए, उन्हें अपने कैडर को मैदान में उतारने का अवसर प्राप्त
हो गया। पंजाब की कांग्रेस सरकार को केन्द्र में भाजपा सरकार को घेरने का सुअवसर प्राप्त हो गया। कैप्टन
अमरेंद्र सिंह की सरकार ने आंदोलन को पुख्ता किया। जब एक बार मामला जम गया तो उसमें अपने-अपने देशी-
विदेशी हित साधने वाले अनेक समूह प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सक्रिय हो गए। लाल कि़ले वाला समूह भी सक्रिय
हुआ। इस बार अंतर केवल इतना ही था कि कैरों ने उस आंदोलन को दबाने के लिए बल प्रयोग किया, लेकिन नरेंद्र
मोदी की सरकार ने बल प्रयोग नहीं किया। यही तथ्य इस आंदोलन को पूर्ववर्ती आंदोलनों से अलग करता है।
लेकिन अब जब आंदोलन समाप्त हो गया है तो अंदर की बहुत सी बातें चौंकाने वाली हैं। सबसे पहले तो पंजाब में
अकाल तख्त के जत्थेदार हरप्रीत सिंह ने कहा कि कुछ लोग इस आंदोलन के माध्यम से हिंदू और सिखों को
आपस में लड़ाने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि इस आंदोलन को सिख बनाम भारत सरकार बनाने
की भी कोशिश की जा रही थी। लगभग यही बात दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पूर्व अध्यक्ष मनजिंद्र
सिंह सिरसा ने भी कही। सिरसा इस आंदोलन में शुरू से लेकर अंत तक अतिरिक्त सक्रिय रहे हैं। ज़ाहिर है भीतर
की उठापटक से वे वाकि़फ़ रहे होंगे। इस पृष्ठभूमि में उनके ये दोनों रहस्योद्घाटन सचमुच चिंताजनक हैं। आंदोलन
के एक दूसरे स्तम्भ जगजीत सिंह डल्लेवाल के रहस्योद्घाटन तो और भी चौंकाने वाले हैं। उन्होंने कहा आंदोलन से
जुड़े सभी नेताओं को विदेशों से अकूत धनराशि प्राप्त हुई। डल्लेवाल का कहना है कि उन्होंने विदेशों से एक डालर
तक नहीं लिया।
इससे यह भी पता चलता है कि विदेशों से धनराशि अलग-अलग व्यक्तियों को प्राप्त हुई, संयुक्त किसान मोर्चा
को संगठन के तौर पर प्राप्त नहीं हुई। यह तो भीतरी परतों के खुलने की शुरुआत है। लेकिन आंदोलन के अनेक
नेता जो पहले राजनीति से दूर रहने की क़समें खाते थे, अब आंदोलन के बाद ख़ुद राजनीति में आने के लिए बेसब्र
दिखाई दे रहे हैं। अंबाला के गुरनाम सिंह चढूनी ने तो पंजाब मिशन के नाम से राजनीतिक दल खड़ा करने और
उसकी ओर से पंजाब विधानसभा में प्रत्याशी उतारने का निर्णय कर दिया है। कम्युनिस्ट उग्राहां, ज़ाहिर है
कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में रणभूमि में उतरेंगे। बलबीर सिंह राजेवाल का नाम तो आम आदमी पार्टी
की ओर से पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर चलाया जा रहा है, ऐसी ख़बरें भी आनी शुरू हो गई हैं। उग्राहां ने इस
पर परोक्ष व्यंग्य भी किया कि जो मुख्यमंत्री बनने की उतावली में हैं, उनका भी बुरा हश्र करेंगे। पता चला है सबसे
निराश वे हैं जो विदेश से पैसा भेजकर आंदोलन को मालामाल किए हुए थे। पंजाब विधानसभा के 2017 के चुनावों
में उन्होंने केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर दांव खेला था, जो अंत में पिट गया। 2022 के विधानसभा चुनावों
से पूर्व उन्होंने किसान आंदोलन पर दांव लगाया था जो चुनावों से पहले ही पिट गया। इस बार दांव बड़ा था तो
पैसा भी बड़ा होगा। लेकिन सब पानी में बह गया। हो सकता है डल्लेवाल भविष्य में इस संबंध में कुछ और
रहस्योद्घाटन करें।