-राजेंद्र राजन-
राजधानी में 26 से 28 नवंबर तक आयोजित हो रहे शिमला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का यह सातवां संस्करण
होगा। साल 2015 में जब हिमालयन विलोसिटी संस्था के पुष्पराज व देवकन्या के सद्प्रयासों से गेयटी थियेटर में
फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत हुई थी, तो हिमाचल के फिल्म मेकर्स और सिनेमा जैसे माध्यम के दीवानों का उत्साह
और उत्सुकता देखते ही बनते थे। इसलिए क्योंकि अंग्रेजी राज की देन गेयटी थियेटर का निर्माण 1889 में हुआ
था। मूल रूप से यह विश्व स्तरीय सांस्कृतिक धरोहर नाटक, ड्रामा, रंगमंच को समर्पित थी। जीर्ण शीर्ष अवस्था में
पहुंच चुके गेयटी का रैनोवेशन 2008 में करोड़ों की लागत से संपन्न हुआ था। यहां एक बड़े हाल का निर्माण किया
गया था जो आज फिल्म प्रोजैक्शन की अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस है। शिमला का मोह कुछ ऐसा है कि
दुनियाभर से फिल्म समारोह में फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों को पैनोरामा में शामिल हुआ देखना चाहते हैं।
हिमाचल के अनेक युवा कलाकारों ने अनेक ऐसे विषयों पर फिल्में बनाईं जिनकी ओर कमोबेश आमजन का ध्यान
नहीं जाता। भारत की विभिन्न भाषाओं व विदेशी भाषाओं की फिल्मों का समावेश शिमला फिल्म फेस्टिवल में हर
साल देखने को मिलता रहा। डाक्यूमेंटरी, शार्ट फिल्में, एनिमेशन, म्यूजिक वीडियो के अलावा फीचर फिल्मों का इस
समारोह में पहुंचना इस बात का संकेत है कि फिल्म निर्माता माकूल मंच की तलाश में रहते हैं। कोरोना महामारी
के कारण साल 2020 में यह फेस्टिवल ऑनलाइन ही हो पाया था।
कोरोना में लोग घरों में बंद रहे और घुटन के माहौल से बाहर आने के लिए सिनेमा जैसे माध्यमों में मनोरंजन की
तलाश करते रहे। इस बार तीन दिन तक गेयटी थियेटर में करीब 16 देशों की 55 फिल्मों की स्क्रीनिंग होगी,
जिन्हें कुल प्राप्त 100 फिल्मों से चुना गया है। गेयटी के अलावा कंडा जेल में भी कैदियों के लिए फिल्में दिखाई
जा रही हैं जो काबिले-तारीफ कदम है। इस जेल में तकरीबन 500 सज़ायाफता कैदी हैं जिन्हें 30 फिल्में दिखाई
जाएंगी। ज़ाहिर है लघु फिल्मों के सरोकार बड़े हैं क्योंकि इनका उद्देश्य केवल बालीवुड या हालीवुड फिल्मों की तरह
मनोरंजन नहीं होता। हर फिल्म कुछ न कुछ कहती है और मूक सामाजिक परिवर्तन का संकेत लेकर आती है।
ग्लोबल, भारतीय व क्षेत्रीय फिल्मों का एक ही मंच पर शोकेस होना वास्तव में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को
चरितार्थ करता है क्योंकि फिल्म की भाषा कोई भी हो, उसका संप्रेषण दर्शक के लिए सहज होता है। वि़जुअल
लैंगवेज ही सिनेमा की ताकत है। इसी कारण अकसर साइलेंट फिल्में इतना कुछ बयान कर जाती हैं जो शायद भारी
भरकम संवादों के बोझ से लदी फिल्में कम्यूनिकेट नहीं कर पातीं। शिमला फिल्म फेस्टिवल को इस बात का श्रेय है
कि आयोजकों ने हिमाचल के अनेक कलाकारों व फिल्म निर्माता, निर्देशकों को प्रोमोट किया है जो वास्तव में किसी
भी फिल्म फेस्टीवल का मूल उद्देश्य होना चाहिए।
इनमें अजय सकलानी, पवन चोपड़ा, सिद्धार्थ चौहान, अजय सहगल, अभि शर्मा, मेला राम शर्मा, मनुज वालिया,
निशांत, हिमाला, अर्जुन लुथेटा कुछ प्रमुख नाम हैं। देवकन्या महिला फिल्मकारों में एकमात्र नाम है जिनकी फिल्में
चर्चित व पुरस्कृत रही हैं। विगत सभी 6 संस्करणों में दर्शकों को कुछ यादगार फिल्में देखने को मिलीं जिनमें लाल
होता दरख़्त, ब्रिणा, सांझ, नवल द ज्यूवल, किताब, आर यू ए बालीवाल आदि शामिल हैं। इस बार दर्शक कांगड़ी
भाषा में बनी फिल्म ‘झट आई बसंत’ देख पाएंगे, जिसका निर्माण अहमदाबाद की प्रमाती आनंद ने किया है। राज
मोरे की ‘खीसा’ और अभि शर्मा की ‘ए मैन एण्ड हिज शूज़’ भी देश-विदेश में पुरस्कृत व चर्चित फिल्में हैं जिन्हें
दर्शक गेयटी थियेटर में देख पाएंगे। इस फेस्टिवल का एक अन्य सुखद पहलू यह है कि हिमाचल का कला भाषा व
संस्कृति विभाग सक्रिय पार्टनर के रूप में सामने आया है। सिनेमा जैसे महंगे फिल्म माध्यम को प्रोत्साहित करने
में सरकार की भूमिका अहम है। लेकिन इंडीपेंडेंट सिनेमा व फिल्म समारोहों का निजी संस्थानों द्वारा आयोजन यह
विमर्श भी पैदा करता है कि संघर्षशील कलाकारों व हिमाचल के छोटे फिल्म निर्माताओं के लिए क्या राज्य सरकार
वह अनुकूल वातावरण अथवा सुविधाओं का निर्माण करने में सक्षम है, जिसकी दरकार व मांग लंबे समय से रही
है? भाषा विभाग की पूर्व सचिव अनुराधा ने 5 साल पहले हिमाचल व बाहर के कुछ फिल्म निर्माताओं को फिल्म
निर्माण के लिए 30 लाख रुपए स्वीकृत किए थे। कुछ फिल्में बनीं भीं लेकिन वे किसी फिल्म समारोह के मंच
अथवा किसी अन्य माध्यम से दर्शकों तक पहुंचतीं तो अपनी उपयोगिता को साबित कर पातीं। हिमाचल अकादेमी
की फिल्में अब यू ट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं। बेहतर होगा अगर भाषा विभाग और सूचना विभाग अपनी फिल्मों
को यू ट्यूब जैसे ग्लोबल चैनल पर ले आएं तो सरकारी फिल्मों के प्रचार का यह सशक्त माध्यम होगा।
सरकार ने धर्मशाला में इंवैस्टर मीट से पहले फिल्म पॉलिसी को हरी झंडी दी थी जिसका उद्देश्य हिमाचल व
बाहर के फिल्म निर्माताओं को फिल्म निर्माण के लिए प्रोत्साहित करने के साथ-साथ फिल्म वर्कशाप और फिल्म
समारोहों का आयोजन करना शामिल था। लेकिन फिल्म नीति भी ठंडे बस्ते का शिकार हो चुकी है जबकि 3 साल
पहले मीडिया में उसका खूब प्रचार-प्रसार किया गया था। यानी भाषा विभाग के ‘रूल ऑफ बिजनेस’ में से फिल्मों
को निकालकर सूचना विभाग को सौंपा गया था, लेकिन परिणाम शून्य है। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण
विभाग के तहत फिल्म निदेशालय भी है और वह देशभर में फिल्म समारोहों का भव्य आयोजन करता है। गोवा में
एक ही स्थान पर कोई दस फिल्म थियेटर बने हैं जहां हर साल विश्व का सबसे बड़ा फिल्म समारोह होता है,
जिसका बजट 8 करोड़ रुपए है। देश के अन्य प्रांतों की सरकारें भी फिल्म समारोहों का आयोजन करती रही हैं।
करीब 12 साल पहले जब वर्तमान मुख्य सचिव राम सुभाग सिंह सूचना सचिव थे तो उन्होंने शिमला गेयटी थियेटर
में तीन बड़े फिल्म समारोह करवाए थे। हिमाचल में अंग्रेजों की देन गेयटी थियेटर के अलावा गत 74 सालों में
किसी बड़े या छोटे शहर में एक भी ऐसे थियेटर का निर्माण नहीं हुआ जहां फिल्मों की स्क्रीनिंग हो सके। हिमाचल
की खूबसूरत वादियों में युवा फिल्मकार सिनेमा जैसे क्रिएटिव मीडियम के लिए जमीन तलाश कर रहे हैं तो सरकार
का कर्त्तव्य है कि उन्हें वे संसाधन व सुविधाएं उपलब्ध करवाने की पहल करे, ताकि वे अपने सपनों को साकार कर
सकें।