दक्षिणेश्वर: जहां रामकृष्ण हुए परमहंस

asiakhabar.com | November 24, 2021 | 5:46 pm IST

कोलकाता में हुगली के पूर्वी तट पर स्थित मां काली व शिव का प्रसिद्ध मंदिर है दक्षिणेश्वर। कोलकाता आने वाले
प्रत्येक सैलानी की इच्छा यहां दर्शन करने की अवश्य होती है। यह मंदिर लगभग बीस एकड़ में फैला है। वास्तव में
यह मंदिरों का समूह है, जिसमें प्रमुख है-काली मां का मंदिर, जिन्हें भवतारिणी भी कहते हैं। मंदिर में स्थापित मां
काली की प्रतिमा की आराधना करते-करते रामकृष्ण ने परमहंस अवस्था प्राप्त कर ली थी। इसी प्रतिमा में उन्होंने
मां के स्वरूप का साक्षात्कार कर, जीवन धन्य कर लिया था। पर्यटक भी इस मंदिर में दर्शन कर मां काली व
परमहंस की अलौकिक ऊर्जा व तेज को महसूस करने का प्रयास करते हैं।
रानी रासमणी ने कराया निर्माण
इस मंदिर का निर्माण कोलकाता के एक जमींदार राजचंद्र दास की पत्नी रानी रासमणी ने कराया था। सन् 1847
से 1855 तक लगभग आठ वर्षो का समय और नौ लाख रुपये की लागत, इसके निर्माण में आई थी। तब इसे
भवतारिणी मंदिर कहा गया। परंतु अब तो यह दक्षिणेश्वर के नाम से ही प्रसिद्ध है। दक्षिणेश्वर अर्थात् दक्षिण भाग
में स्थित देवालय। प्राचीन शोणितपुर गांव अविभाजित बंगाल के दक्षिण भाग में स्थित है। यहां के प्राचीन शिवमंदिर
को लोगों ने दक्षिणेश्वर शिव मंदिर कहना शुरू किया और कालांतर में यह स्थान ही दक्षिणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध
हो गया। आज यह केवल बंगाल या भारत ही नहीं, संपूर्ण हिंदू मतावलंबियों के लिए एक पुनीत तीर्थ स्थल है।
सौ फुट ऊंचा शिखर
मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही लगभग सौ फुट ऊंचे शिखर को देखकर ही अनुमान लग जाता है कि यही मुख्य
मंदिर है। इसकी छत पर नौ शिखर हैं, जिनके बीचोंबीच का शिखर सबसे ऊंचा है। इसी के नीचे बीस फुट वर्गाकार
में गर्भगृह है। अंदर मुख्य वेदी पर सुंदर सहस्त्रदल कमल है, जिस पर भगवान शिव की लेटी हुई अवस्था में,
सफेद संगमरमर की प्रतिमा है। इनके वक्षस्थल पर एक पांव रखे कालिका का चतुर्भुज विग्रह है। गले में नरमुंडों का
हार पहने, लाल जिह्वा बाहर निकाले और मस्तक पर भृकुटियों के मध्य ज्ञान नेत्र। प्रथम दृष्टि में तो यह रूप
अत्यंत भयंकर लगता है। पर भक्तों के लिए तो यह अभयमुद्रा वरमुद्रा वाली, करुणामयी मां है।
राधाकांत मंदिर
काली मंदिर के उत्तर में राधाकांत मंदिर है, इसे विष्णु मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर पर कोई शिखर नहीं है। मंदिर
के गर्भ गृह में कृष्ण भगवान की प्रतिमा है। श्यामवर्णी इस प्रतिमा के निकट ही चांदी के सिंहासन पर, अष्टधातु
की बनी राधारानी की सुंदर प्रतिमा है। राधाकृष्ण के इस रूप को यहां जगमोहन-जगमोहिनी कहते हैं। काली मंदिर
के दक्षिणी ओर नट-मंदिर है। इस पर भी कोई शिखर नहीं है। भवन के चारों ओर द्वार बने हैं। मंदिर की छत के
मध्य में माला जपते हुए भैरव हैं। नट मंदिर के पीछे की ओर भंडारगृह व पाकशाला है। दक्षिणेश्वर के प्रांगण के
पश्चिम में एक कतार में बने बारह शिव मंदिर है। यह देखने में कुछ अलग से कुछ विशिष्ट से लगते हैं क्योंकि
इन मंदिरों का वास्तु शिल्प बंगाल प्रांत में बनने वाली झोपडि़यों सरीखा है। वैसे ही धनुषाकार गुंबद इनके ऊपर बने
हैं। सभी मंदिर एक आकार के हैं। इनके दोनों ओर चैड़ी सीढि़यां बनी हैं। इन सभी में अलग-अलग पूजा होती है।
इनके नाम हैं- योगेश्वर, यत्नेश्वर, जटिलेश्वर, नकुलेश्वर, नाकेश्वर, निर्जरेश्वर, नरेश्वर, नंदीश्वर, नागेश्वर,
जगदीश्वर, जलेश्वर व यज्ञेश्वर। मंदिरों के मध्य भाग में स्थित चांदनी डयोढ़ी से एक रास्ता हुगली घाट की ओर
जाता है। जहां से हुगली का विस्तार देखते ही बनता है।

पंचवटी
मंदिर प्रांगण के बाहर भी महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान हैं जहां पर्यटक अवश्य ही जाते हैं। उत्तर की ओर
बकुल तला घाट के निकट पंचवटी नामक स्थान है। उस समय यहां बरगद, पीपल, बेल, आंवला और अशोक पांच
पेड़ थे। परमहंस अकसर यहां आते थे और यहां के सुरम्य वातावरण में वे समाधिस्थ हो जाया करते थे। प्रांगण के
सामने ही एक कोठी है जिसमें परमहंस रामकृष्ण निवास करते थे। यहीं पर उन्होंने अनेकों वर्षो तक साधना की।
उन्होंने वैष्णव, अद्वैत और तांत्रिक मतों के अतिरिक्त इस्लाम व ईसाई मत का भी गहन अध्ययन किया और
ईश्वर सर्वतोभाव की खोज की। कोठी के पश्चिम में नौबतखाना है। जहां रामकृष्ण की माता देवी चंद्रामणी निवास
करती थी। बाद के दिनों में मां शारदा (परमहंस की अर्धागिनी) भी वहीं रहने लगीं। कुछ वर्षो बाद रामकृष्ण, प्रांगण
के उत्तरपूर्व में बने एक कमरे में रहने लगे थे जहां वे अंतकाल तक रहे। अब यहां एक लघु-संग्रहालय है। यहीं
दक्षिणेश्वर में एक युवक उनके मिला था ओर उनके प्रभाव से, संसार को राह दिखाने विवेकानंद बन गया। सामने
ही हुगली के पश्चिमी तट पर वेलूर मठ है। जहां रामकृष्ण मिशन का कार्यालय है। स्वामी विवेकानंद के बाद भी
दक्षिणेश्वर में संत महात्माओं का आना जाना चलता रहा और यह स्थान अध्यात्म व भक्ति का प्रमुख केंद्र बन
गया।


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