-सिद्धार्थ शंकर-
दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन आसियान का 39वां शिखर सम्मेलन सदस्य देश म्यांमा की गैर-मौजूदगी में
संपन्न हो गया। ऐसा नहीं कि म्यांमार इसमें शिरकत नहीं करना चाहता था, पर आसियान संगठन ने ही उसे
सम्मेलन से दूर रखा। म्यांमार के सैन्य शासक मिन आंग लेंग के लिए यह एक बड़ा झटका है। म्यांमार को
आसियान का यह संदेश है कि लोकतंत्र के बिना क्षेत्रीय सहयोग संभव नहीं है। हालांकि म्यांमार को लेकर आसियान
सदस्य देशों में भी एक राय नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक प्रभाव वाले सदस्य देशों ने म्यांमार के सैन्य शासन को
साफ संकेत दे दिया है कि जब तक वह लोकतंत्र बहाली के लिए कदम नहीं उठाता, तब तक उसे ऐसा बहिष्कार
झेलना पड़ सकता है। इस बार आसियान की सालाना बैठक इस लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण रही कि बैठक को
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी संबोधित किया। उन्होंने भाषण में चीन व म्यांमार की नीतियों को लेकर चिंता
जताई। आसियान के उन सदस्य देशों जहां लोकतंत्र खासा मजबूत है, ने म्यांमार के सैन्य शासन के प्रति खुल कर
अपनी नाराजगी जताई। क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उनके यहां भी इस तरह तानाशाही की प्रवृति न उभरने लगे।
आसियान के सदस्य देश इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन और सिंगापुर पूर्ण लोकतांत्रिक देश हैं जहां सरकारें चुनी
जाती हैं। सेना पूर्णरूप से निर्वाचित सरकार के अधीन काम करती है। इसलिए इन्हीं चार देशों ने म्यांमा के सैन्य
शासन को लेकर ज्यादा नाराजगी दिखाई और उस पर लोकतंत्र बहाली के लिए दबाव बना रखा है। पर म्यांमार के
सैन्य शासक इन देशों की अपील की अनदेखी ही कर रहे हैं। दरअसल आसियान के सदस्य देश और म्यांमा के
पड़ोसी थाईलैंड का रवैया म्यांमार को लेकर स्पष्ट नहीं है। थाईलैंड में भी लोकतंत्र पर सेना हावी है। यहां भी सेना
द्वारा तख्तापलट का इतिहास रहा है। 2014 में थाईलैंड में सेना ने तख्तापलट दिया था। फिर 2016 में थाईलैंड
की सेना ने सहूलियत के हिसाब से नया संविधान बनाया, जिसमें देश पर सेना की पकड़ को और मजबूत कर दिया
गया। हालांकि आसियान जैसे क्षेत्रीय संगठन के स्थापित सिद्धांत में स्पष्ट किया गया है कि इसके सदस्य देशों के
आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। यही कारण है कि आसियान के सदस्य देश इस बात को लेकर
अभी तक एक राय नहीं बना पाए हैं कि अगर किसी सदस्य देश की सीमा में घटी किसी राजनीतिक घटना या
सत्ता परिवर्तन से क्षेत्रीय शांति प्रभावित होती हो तो उससे कैसे निपटा जाए। कुछ सदस्य देश म्यांमार के प्रति
सख्त हैं, तो कुछ का रवैया नरम है। लंबे समय बाद म्यांमार में लोकतंत्र बहाली और लोकतंत्र समर्थक नेता आंग
सान सू की सत्ता वापसी से लोकतंत्र मजबूत होने के संकेत मिलने लगे थे। पर लोकतांत्रिक सरकार सेना के दखल
से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई थी। महत्वपूर्ण मंत्रालय सेना के पास ही थे। सेना शासन पर पूरा नियंत्रण हासिल
करने की कोशिश में थी और अंतत: सेना तख्तापलट से ऐसा करने में कामयाब हो गई। इस घटना से पड़ोसी देशों
का प्रभावित होना स्वाभाविक था। म्यांमार में जब लोकतंत्र था तब भी सेना बेलगाम थी। तख्तापलट के बाद देश
के रखाइन प्रांत में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों का दमन हुआ। इस प्रांत के संसाधनों और भूमि पर सेना की
कंपनियों और इसके साथ कारोबार करने वाली विदेशी कंपनियों की नजर थी। रोहिंग्या मुसलमानों के दमन का
असर यह हुआ कि लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को बांग्लादेश, भारत, नेपाल, थाईलैंड में शरण लेने को मजबूर होना
पड़ा। रोहिंग्या शरणार्थियों से सबसे ज्यादा प्रभावित बांग्लादेश है। इस समय वहां नौ लाख रोहिंग्या शरणार्थी हैं।
इसका असर बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर भी पडऩे लगा है। थाईलैंड में एक लाख से ज्यादा रोहिंग्या शरणार्थी हैं।
भारत, इंडोनेशिया, नेपाल जैसे देशों में रोहिंग्या शरणार्थियों ने शरण ली।
सशस्त्र सेना दिवस पर आयोजित सैन्य परेड में चीन, रूस, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वियतनाम, लाओस और थाईलैंड
के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। ऐसे में यह माना जा सकता है कि भारत का यह कदम रणनीतिक हो। लेकिन इस
कार्यक्रम में वियतनाम, लाओस और थाईलैंड के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। ये सारे आसियान के सदस्य देश हैं।
बांग्लादेश जो रोहिंग्या लोगों के बोझ से परेशान है, उसने भी रणनीति के तहत म्यांमार के सैन्य शासकों के प्रति
नरम रुख अपना रखा है। भारत और बांग्लादेश की म्यांमार संबंधी कूटनीति में चीन शामिल है।