-प्रमोद भार्गव-
कश्मीर में आम नागरिकों की आतंकियों द्वारा हत्या ने खौफनाक हालात पैदा कर दिए हैं। यह स्थिति भारत
सरकार और सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती है। आतंकी संगठनों ने 18 दिन के भीतर बारह बेकसूर नागरिकों की
निर्मम हत्याएं की हैं। इनमें दस गैर-मुस्लिम हैं। इनमें से ज्यादातर उत्तर-प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य-प्रदेश के
वे मजदूर हैं, जो ठेला-पटरी लगाकर व मेहनत- मजदूरी करके अपना और परिवार का गुजारा करते हैं। अल्पसंख्यकों
और प्रवासियों को लगातार निशाना बना रही ये घटनाएं संकेत देती हैं कि आतंकी गिरोह एक बार फिर घाटी में
सक्रिय होकर इस पूरे क्षेत्र को अस्थिर करना चाहते हैं। इन वारदातों की जिम्मेदारी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट
(यूएलएफ) आतंकी संगठन ने ली है। इस संगठन और आतंकियों को न केवल पाकिस्तान का खुला समर्थन मिल
रहा है, बल्कि इन वारदातों में पाकिस्तानी और रोहिंग्या घुसपैठियों के शामिल होने की सूचनाएं भी मिल रही हैं।
बांग्लादेश में हिंदुओं के घरों व दुर्गा पंडालों में आगजनी व लूटपाट भी इन्हीं रोहिंग्याओं द्वारा किए जाने की पुष्टि
हुई है। गोया, नए सिरे से उभर रही इस चुनौती का सामना दृढ़ कठोरता से करना होगा। आतंकियों के साथ इनको
छिपकर मदद करने वाले लोगों का भी सफाया जरूरी है। यदि आतंकियों समेत पाकिस्तान से आर-पार की लड़ाई
नहीं लड़ी गई तो कश्मीर में सुधार के उपाय बेनतीजा रह जाएंगे।
इसमें कोई दो मत नहीं कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद आतंकवाद पर लगाम और आतंकी
संगठनों की कमर टूटी है। बचे-खुचे आतंकियों को खत्म करने के लिए सेना और सुरक्षा बल जान हथेली पर लेकर
मुठभेड़ कर रहे हैं। लेकिन वारदातों का यह जो नया सिलसिला शुरू हुआ है, वह इनके कमजोर होने की धारणा को
संदिग्ध बनाता है। जिस तरह से गैर-मुस्लिम नागरिकों को पहचान करके चुन-चुनकर मारा जा रहा है, उससे लगता
है कि इन दहशतगर्दों को तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे ने उकसाया है। इन हत्याओं का सीधा-सीधा मकसद
गैर-कश्मीरियों में ऐसा डर पैदा करना है, जिससे वे घाटी से पलायन कर जाएं। घाटी में करीब पांच से सात लाख
स्थानीय हिंदु और प्रवासी भारतीय हैं। दरअसल 1989-90 में कुछ इसी तरह की वारदातों के चलते हिंदु, सिख और
डोंगरों को कश्मीर से खदेड़ दिया गया था। उस समय मस्जिदों से भी ऐलान किया गया था कि 'कश्मीर पंडितों के
बगैर, कश्मीरी पंडितों की औरतों के साथ' है। अर्थात पंडित अपनी औरतों को छोड़कर भाग जाएं। इस त्रासदी को
32 साल से कश्मीरी विस्थापित भोग रहे हैं। धारा-370 हटने के साथ उम्मीद बंधी थी कि अब हालात बदल जाएंगे,
लेकिन लगता है गैर-कश्मीरियों से दुर्भाग्य ने अभी साथ छोड़ा नहीं है।
विस्थापित पंडितों ने एक समय 'पनुन कश्मीर संगठन' के माध्यम से अलग राज्य की मांग की थी। उनका तर्क था
कि कश्मीरी पंडित बीते चार सौ साल से पीड़ित समाज हैं। 1989 में उनका जो घाटी से पलायन हुआ था, वह कोई
पहली घटना नहीं थी। मुगल शासनकाल में जब निरंकुश औरंगजेब दिल्ली की सल्तनत का सुल्तान था, तब उनका
कश्यप ऋषि की इस वादी से पहली बार पलायन हुआ था। जिसे रोकने की कोशिश में सिख गुरू तेग बहादुर को
अपना बलिदान देना पड़ा था। क्योंकि उन्हें पंडितों की मदद के दंडस्वरूप इस्लाम स्वीकारने की सजा औरंगजेब ने
दी थी। लेकिन इस वीर ने धर्म परिवर्तन अस्वीकार कर दिया था।
फिर पठानों के शासन में ज्यादातर कश्मीरी-हिंदु पलायन को विवश हुए। पठानों की जब पराजय हो गई, तब कुछ
पंडितों का पुनर्वास भी हो गया था। आजादी के बाद 1948 में पाकिस्तानी हमलों के चलते भी हिंदु बहुल अनेक
गांव वीरान हुए और उनके परिजन कश्मीर से भागकर देश के बड़े शहरों में रहने पहुंच गए। अतएव ऐसे बदतर
हालात में एक ही समाधान निकलता है कि उन्हें एक अलग केंद्र शासित राज्य मिले, जहां वह निश्चिंतता से रह
सकें और उन्हें सुन्नी बहुमत की धमकियों के चलते अपनी जमीन न छोड़नी पड़े। कश्मीर पुनर्गठन के अंतर्गत
लद्दाख को केंद्र शासित राज्य बनाकर भारत सरकार ने लद्दाखी बौद्ध और अन्य हिंदुओं के साथ न्याय का काम
किया है। दरअसल घाटी में अलगाव का जो संकट निर्मित हुआ, उसका एक बड़ा करण हिंदुओं के संख्या बल में
कमी और उनका उदार होना भी रहा है। यही स्थिति पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों समेत केरल और उत्तर-प्रदेश के 20
जिलों में भी बन रही है। जिसके प्रति भारत सरकार और हिंदुओं को सचेत होने की जरूरत है।
साफ है, कश्मीर देश और वहां की अल्पसंख्यक आबादी के लिए एक नासूर आजादी के बाद से ही बना हुआ है।
इसलिए इस गंभीर समस्या का हल जरूरी था। लिहाजा कश्मीर को इन हालातों तक पहुंचाने में तत्कालीन
सत्ताधारियों की जो भी मजबूरियां और गलतियां रही हों, उन्हें सुधारने की पहल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार से
पहले की सरकारों को भी करनी चाहिए थी ? लेकिन साहस की कमी के चलते ऐसा संभव नहीं हो पाया। नतीजतन
कश्मीर के जिस समाज को गतिशील बनाए रखने की जरूरत थी, उसे आतंक की खूनी इबारतों और पंडितों के
विस्थापन ने स्थिर बना दिया। सांस्कृतिक बहुलता भी खत्म कर दी गई। इसी का दुष्परिणाम रहा कि इस स्थिरता
ने नासूर को मवाद से भर दिया। जबकि धारा-370 और 35-ए के रूप में जम्मू-कश्मीर को जो विशेष दर्जा दिया
गया था, उसकी पहली शर्त कश्मीरियत और मजहबी सद्भाव बनाए रखना था। जिससे पूरे राज्य में सामाजिक,
प्रशासनिक और सांस्कृतिक समन्वय व पहचान बने रहें। किंतु सुन्नी बहुमत ने गैर-मुस्लिमों को मार-मारकर भगाने
का काम किया। नतीजतन घाटी में तरक्की की राह खुलने की बजाय बंदूकों की खेती और आतंकियों की जमात
पैदा होने लगी। इसी का परिणाम रहा कि यह गंभीर मसला पाक से आयातित सांप्रदायिक आतंकवाद स्थानीयता की
शक्ल में तब्दील होता चला गया।
जुलाई 2012 में पत्तन में एक मुठभेड़ के बाद मारे गए आतंकवादियों की शिनाख्त हुई तो ये लाशें स्थानीय लड़कों
मोहम्मद इब्राहिम जांवरी और निसार अहमद की निकली थीं। जिससे तय हुआ था कि वादी में दहशतगर्दी की नई
नस्ल तैयार की जा रही है। इन ताजा वारदातों में एक बार यही नस्ल फिर से देखने में आई है। साफ है, यूएलएफ
जैसे आतंकी संगठनों ने घाटी में पहले से कहीं ज्यादा मजबूत जाल तो नहीं फैला दिया ? क्योंकि राज्य पुलिस एवं
खुफिया एजेंसियों को ऐसी आशंकाएं पहले से ही थीं। उन्हें ऐसे संकेत व सबूत लगातार मिल रहे थे कि 1989 के
बाद जन्मी पीढ़ी जो युवा है, उन्हें आतंकवादी संगठन उग्रवादी बनाने में लगे हैं। यह नस्ल उग्रवाद के गढ़ माने
जाने वाले किस्तवाड़ सोपोर, पुलनामा और त्राल में गढ़ी जा रही हैं। हैरानी की बात है कि घाटी के स्थानीय
प्रभावशाली नेता और दल इन हत्याओं पर कुछ खुलकर नहीं बोल रहे है। महबूबा मुफ्ती आतंकियों के खिलाफ अब
तक कुछ भी नहीं बोली हैं। जबकि नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुला कश्मीरियों की हत्याओं को महज कश्मीर के
खिलाफ षड्यंत्र जताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। उन्हें यह भी स्पष्ट कहना चाहिए कि आखिर इस
साजिश का रचयिता कौन है ? भारत के सभी विपक्षी दल वामपंथी बौद्धिक संगठन भी मौन हैं। ऐसी विरोधाभासी
स्थितियों में घाटी में अमन व खुशहाली लाने के परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार की जिम्मेदारी और बढ़ती दिखाई देती
है।
कश्मीर को बदहाल बनाने में केंद्र सरकार द्वारा दी जा रही बेतहाशा आर्थिक मदद भी है। यहां गौर करने की बात
है कि जब कश्मीर की धरती पर खेती व अन्य उद्योग-धंधे चौपट हैं, तब भी वहां की आर्थिक स्थिति मजबूत कैसे
है ? एक रिपोर्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर में देश की मात्र एक फीसदी आबादी रहती है, लेकिन राज्य को 10
प्रतिशत से ज्यादा केंद्रीय आर्थिक सहायता मिलती है। राज्य की कुल आय का 54 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार देती
है। वर्ष 2000 से 2016 के दौरान केंद्र ने लगभग 1.14 लाख करोड़ रुपए की कश्मीर को मदद की। सीएजी ने जब
इस खर्च की समीक्षा की तो पाया कि 71088 करोड़ रुपए का कोई हिसाब ही नहीं है। तय है, कश्मीर को दी जा
रही आर्थिक मदद सूबे की सत्ता पर काबिज बने रहने वाले चंद परिवारों ने हथिया ली है। यहां चौंकाने वाला एक
तथ्य यह भी है कि यहां प्रति व्यक्ति खर्च 9661 रुपए है, जो राष्ट्रीय औसत से 3,969 रुपए से तीन गुना अधिक
है। यदि कश्मीर में अतिरिक्त आर्थिक मदद पर अंकुश लगाया जाता है तो यह स्थिति भी आतंकवाद और बढ़ती
मौजूदा हिंसा को नियंत्रित करने का काम करेगी।