-सिद्वार्थ शंकर-
जम्मू कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ अभियान जारी है, फिर भी आतंकी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं।
कश्मीर में आम नागरिकों पर लगातार हो रहे आतंकी हमलों ने एक बार फिर सुरक्षा दावों पर सवालिया निशान
लगा दिया है। लेकिन इन हमलों का एक दूसरा पहलू है, जिसमें आतंकियों की हताशा साफ नजर आती है। इस
बात को सरकार ने भी स्वीकार किया है कि 18 दिनों में बारह लोग आतंकी हमलों में मारे जा चुके हैं, जिनमें दस
गैर-मुसलिम हैं। जबकि इस साल जनवरी से सितंबर तक बीस आम नागरिक आतंकी हमलों के शिकार हुए थे।
यानी इस महीने आतंकी घटनाओं में अचानक से तेजी आई है। कुलगाम में रविवार को दो और मजदूरों की हत्या
कर दी गई। ये दोनों बिहार से काम-धंधे के लिए यहां आए थे। इसके ठीक एक दिन पहले भी आतंकियों ने दो
कामगारों को मार डाला था। ये भी उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वाले थे। इन हत्याओं की जिम्मेदारी यूनाइटेड
लिबरेशन फ्रंट (यूएलएफ) नाम के आतंकी संगठन ने ली है। बढ़ते आतंकी हमले बता रहे हैं कि घाटी में आतंकी
संगठनों का जाल पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत हुआ है। कश्मीर के ताजा हालात की जानकारी गृह मंत्री
अमित शाह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दी है। सेना प्रमुख नरवणे खुद कश्मीर पहुंच कर सुरक्षा का जायजा लिया
है। दिल्ली से कश्मीर तक सरकार एक्टिव है और आतंकियों के मंसूबों को ध्वस्त करने का इंतजाम कर रही है।
इस बार आतंकी संगठनों ने आम लोगों को मार कर दहशत फैलाने की रणनीति अपनाई है। जिस तरह लोगों का
परिचय पत्र देख कर उन्हें मारा जा रहा है, उसका मकसद गैर-कश्मीरियों और गैर-मुसलिमों के भीतर खौफ पैदा
करना है। इससे तो लग रहा है कि जैसे नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोडऩे को मजबूर होना पड़
गया था, वैसे ही अब कहीं प्रवासी कामगारों को भी घाटी छोडऩे को मजबूर न होना पड़ जाए। घाटी में करीब पांच
लाख प्रवासी श्रमिक हैं जो निर्माण संबंधी गतिविधियों से लेकर खेती व अन्य स्थानीय उद्योगों में काम करते हैं।
रेहड़ी-पटरी वाले काम-धंधों में लगे प्रवासियों की तादाद भी कम नहीं है। ऐसे में अगर बड़ी संख्या में कामगार अपने
राज्यों में लौटने लगे तो कश्मीर की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है। कश्मीर की अर्थव्यवस्था में पर्यटन पर
टिकी है। अगर इसी तरह आतंकी हमले होते रहे तो लोग क्यों जान जोखिम में डाल कर कश्मीर घूमने जाएंगे?
घाटी में लगातार हो रहे आतंकी हमलों को हताशा में किए गए हमले बता कर या सिर्फ पाकिस्तान पर ठीकरे फोड़
कर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। अगर सेना के आतंकवाद निरोधी अभियानों के बावजूद आतंकी सरेआम हत्याएं
करने में कामयाब हो रहे हैं, तो यह कहीं न कहीं सुरक्षा संबंधी रणनीति पर सवाल खड़े करने वाली बात है। इस
वक्त सबसे जरूरी है कि सरकार तत्काल ऐसे कदम उठाए जिससे प्रवासियों के भीतर पनपा असुरक्षा का भाव खत्म
हो और उन्हें घर लौटने को मजबूर न होना पड़े। हालांकि केंद्र सरकार दावा करती आई है कि अगस्त 2019 में
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिए जाने बाद से वहां आतंकवाद पर लगाम लगी है और
आतंकी संगठनों की कमर टूटी है। बचे-खुचे आतंकियों के खात्मे के लिए सेना और सुरक्षाबल अभियान चला रहे हैं।
पर जिस तरह से आतंकी संगठन सिर उठा रहे हैं, उसे देख कर कौन कहेगा कि आतंकी संगठनों की कमर टूट
चुकी है? यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल भी घाटी में आतंकियों ने राजनीतिक दलों के स्थानीय नेताओं
और कार्यकर्ताओं को चुन-चुन कर निशाना बनाया था। तब भी डर के मारे में कई लोगों ने राजनीति से तौबा कर
ली थी।