-डॉ. हितेश-
देश के अग्रणी महापुरुषों में शामिल पांडुरंग शास्त्री जी आठवले ने सामाजिक और मानव निर्माण की दिशा में
उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने लोगों के समक्ष निष्काम भाव से कर्म का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत कर लाखों लोगों
और कई पीढ़ियों को प्रेरित किया। दादा के नाम से मशहूर पांडुरंग शास्त्रीजी आठवले ने श्रीमदभागवत गीता के
विचारों की सिद्धि के द्वारा हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लोगों को स्वाध्याय द्वारा श्वेत क्रांति का
सन्देश दिया। उन्हें टेम्पल्टन प्राइज, रेमन मैग्सैसे सम्मान सहित भारत सरकार की तरफ से दूसरे सर्वोच्च नागरिक
सम्मान पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।
श्रीमदभागवद गीता के विचारों को अपनी सरल शैली में लोगों को बताकर, उन्होंने लाखों लोगों को स्वार्थ के बिना
कर्म करने के लिए प्रेरित किया है। आज विश्वभर में दो करोड़ से भी ज्यादा उनके अनुयायी हैं, जो गीता के
सिद्धांत पर चलकर, अपना टाईम, टिफिन और अपना टिकट खर्च करके, हार्ट टू हार्ट और हट टू हट गीता के
विचारों को पहुंचा रहे हैं।
पांडुरंग शास्त्री का जन्म महाराष्ट्र के रोहा गाँव में 10 अक्टूबर 1920 में हुआ था और 25 अक्टूबर 2003 में मुंबई
में उन्होंने देह का त्याग किया। मराठी होने के नाते पांडुरंग शास्त्री जी को ’दादा’ के नाम से लोग पुकारा करते थे,
जिनका अर्थ बड़ा भाई होता है। आज हमारे देश के एक लाख से भी ज्यादा गाँवो में और विश्व के 40 से भी
अधिक देशों में लोग स्वाध्याय कार्य नियमित और अक्षरशः भगवद गीता के विचारों और सिद्धांतों पर चल रहे हैं।
2003 में दादाजी के निधन के बाद, उनकी बेटी जयश्री आठवले जी ने उनका कार्यभार संभाला था, जिनको ‘’दीदी’’
के नाम से स्वाध्यायी लोग जानते हैं। दादाजी को जब 70 साल पूरे हुए तब से लेकर अबतक, हर साल स्वाध्याय
परिवार उनके जन्मदिन को ‘मनुष्य गौरव दिन’ के नाम से मनाता रहा है।
पांडुरंग शास्त्रीजी की एक विशेषता यह थी की उन्होंने कभी भी प्रेस और मीडिया का प्रयोग अपने और अपने कार्य
की प्रसिद्धि के लिए नहीं किया। दादा जी ने अपने पूरे जीवन में भगवदगीता के 700 श्लोकों पर 6 से 7 बार
प्रवचन किये हैं और आज लाखों वीडियो कैसेट उनके गीता और वेद-उपनिषद के प्रवचनों में उपलब्ध है। उनकी
दूसरी विशेषता है कि उनके प्रवचन की कोई भी विडियो कैसेट बाजार में बिकती नहीं है। अगर किसी को उनका
प्रवचन सुनना है तो उन्हें दादाजी के स्वाध्याय केंद्र में ही जाना पड़ता है और वहीं पर सबके साथ बैठकर वो
प्रवचन सुन सकते हैं। दादाजी की तीसरी विशेषता यह थी कि उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी भी किसी से
सामने हाथ फैलाया नहीं। किसी भी तरह का फंड और डोनेशन कभी स्वीकार नहीं किया। दादाजी, भारत के
10,000 गाँवों में पैदल चलकर या साइकिल पर खुद गए और घरों एवं खेतों में जाकर लोगों को गीता का उपदेश
सुनाया है।
शास्त्री जी ने देश के छोटे-छोटे गाँवों में जाकर भगवद गीता के नियम के अनुसार गाँव में अपौरुषेय लक्ष्मी उत्पन्न
करके वही लक्ष्मी गाँव के जरूरतमंदों को प्रसाद के रूप में मिले, जिससे कोई देने वाला बड़ा न हो और लेने वाला
छोटा न हो, ऐसे अनगिनत प्रयोग दिए है। जिसमें एक गाँव का हर कोई कर सके ऐसा प्रयोग, योगेश्वर कृषि, 20
गाँवों का सामूहिक प्रयोग श्रीदर्शनम, मछुआरों के लिए मत्स्यगंधा, पूरे एक जिले का प्रयोग वृक्षमंदिर, गाँव के एक
ही स्थान पर इकठ्ठे होकर सुबह शाम प्रार्थना करने के लिए और उनके द्वारा गाँव के सारी मुश्किल दूर करने के
लिए अमृतालयम, उनके प्रयोग में अति लोकप्रिय बन चुके हैं। एक खेत में गाँव के सब लोग काम करके अपौरुषेय
लक्ष्मी पैदा करके, गाँव के उत्थान के लिए उपयोग किया जा सकता है, यह किसी की सोच में ही नहीं था, जो
उन्होंने सैंकड़ों गाँवों में करके दिखाया है।
इलाहाबाद में ‘तीर्थराज मिलन’ करने के बाद देशभर में उनके कई बड़े कार्यक्रम हुए जिसमे 10 लाख, 15 लाख,
लोग इकट्ठे होते थे, पर कोई पुलिस या सिक्युरिटी की जरूरत न पड़े ऐसे ‘स्वयं शिस्त’ का उनके कार्यक्रम जैसा
उदहारण आजतक हमारे देश में कोई दे नहीं सका। दूसरी विश्वधर्म परिषद् में भारत के प्रतिनिधि के रूप में दादाजी
को आमंत्रित किया गया था और उनके द्वारा कहे भगवद गीता के विचारों से विश्व के कई देश और कई लोग
बहुत प्रभावित हुए थे।
दादाजी ने स्वाध्याय कार्य की शुरुआत गुजरात से की थी और फिर महाराष्ट्र से आगे देशभर में लेकर गए। गुजरात
में अलग-अलग कई स्थानों पर बिना मूल्य वेद-उपनिषद एवं कौशल के लिए उनके द्वारा पाठशाला शुरू की गई है।
मुंबई के पास थाना में एक विद्यापीठ की स्थापना की गई है। जहां स्नातक होने के बाद युवाओं को वेद-उपनिषद
का प्रशिक्षण बिना मूल्य दिया जाता है।
जब-जब कोई अच्छा काम होता है तब उसमें बाधा डालने वाले लोग तो तैयार ही होते हैं। और ऐसे ही उनके यह
पवित्र कार्य में भी हुआ था। ‘दीदाजी’ के 80वें साल के कार्यक्रम पर उनकी खराब तबियत के कारण जब उन्हें ऐसा
लगा कि अब इस कार्य की डोर किसी को सौंपनी चाहिए तब उनका प्रस्ताव एकमात्र उनकी दत्तक पुत्री, ‘जयश्री
दीदी’ के नाम पर ही था। यह बात भी सही थी क्योंकि जो कार्य अपनी कड़ी महेनत से तैयार किया गया हो, उसको
वह किसी के भी हाथ में कैसे दे ? उनकी यह बात में कोई वांशिक परंपरा का उद्देश्य नहीं था पर जिस व्यक्ति
को उन्होंने बचपन से ही अपने साथ रखकर संस्कृति के विचारों पर चलना सिखाया था, उस पर ही उनका विश्वास
होता न। लेकिन सालों से पद, प्रतिष्ठा और पैसे की लालसा में उनके आसपास भी ऐसे कई लोग थे, जो चाहते थे
की यह जिम्मेदारी उनको दी जाये, जो दादाजी को मंजूर नहीं था। और यही बात को लेकर देशभर में यह 10-12
लोगों ने स्वाध्याय कार्य के कई अनुयायी को उकसाया और ‘दीदी’ का विरोध किया। सिर्फ विरोध ही नहीं किया पर
दादाजी और दीदीजी पर कई तरह के पैसों को लेकर आरोप लगाये, जो बिलकुल गलत थे। वो सारा स्वाध्याय
परिवार जानता था।
यह बात अति सिद्ध है कि अगर दादाजी को पैसे की लालसा होती तो जब डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति थे तब
उनके पास उनकी ‘तत्वज्ञान विद्यापीठय् में गए थे, जब दादाजी कई आर्थिक मुश्किलों में घिरे हुए थे और
राधाकृष्णन ने उनको कई चीजें ऑफर की थी तब उन्होंने बहुत नम्र भाव से कहा था कि, यह कार्य भगवान का है।
उसको चलाना है तो वो अपने आप मदद कर देगा, यह कार्य को सरकारी मदद की जरूरत नहीं है।
उनके कार्यकाल में एक-दो ऐसे प्रसंग भी हुए जो स्वाध्याय कार्य के लिए ज्यादा चर्चित हो गए थे और उसके
खिलाफ भी थे, पर इतने बड़े कार्य में ह्यूमन एरर मतलब मानव भूल हमेशा होती है और कुछ अनुयायी की वजह
से ऐसा हुआ था। पर सारा स्वाध्याय परिवार दादाजी के द्वारा दी गई दीदीजी की जिम्मेदारी के साथ ही रहा और
अनेक मुश्किलों के बाद भी कार्य आगे बढ़ता गया। दादा और दीदी ने आजतक कभी भी अपने परिवार के लोगों को
उकसाया नहीं है और कभी किसी को गलत मार्ग में चलने की प्रेरणा नहीं दी। आज देश के एक लाख गाँवों से
ज्यादा और विश्व के 40 ज्यादा देशों में यह पवित्र कार्य गति के साथ चल रहा है।
दादाजी ने बगैर कंठी बांधकर और कोई लौकिक धार्मिक प्रक्रिया के बिना लाखों लोगों को ‘एक बाप- ईश्वर’ के बंधन
से जोड़ा। स्वाध्याय कार्य शुरू हुआ तब भी कोई फंड-डोनेशन नहीं होता था और आज भी नहीं होता है। बिना किसी
लेनदेन से ही यह कार्य चल रहा है। हमारे देश में यह संभव ही नहीं है कि कोई एक धार्मिक संस्था हो और उसका
प्रमुख-मंत्री न हो, उसके लिए कोई डोनेशन न हो, लेकिन यह असंभव बात को दादाजी ने संभव करके दुनिया के
सामने रखा है और वो है-स्वाध्याय कार्य।