-प्रवीण कुमार शर्मा-
प्रदेश में नए जिलों के निर्माण की चर्चाओं से राजनीति में उबाल आना निश्चित है। ‘छोटी इकाइयों की प्रशासनिक
दृष्टि से उपयोगिता का प्रश्रय लेकर नए जिलों की कदमताल को अंतत: राजनीतिक लाभ और हानि की दृष्टि से ही
तोला जाएगा। लोकतंत्र का आधार परिचर्चा के आधार पर सर्वसम्मति के निर्णय है, पर आज की कड़वी सच्चाई है
कि सियासत स्वस्थ बहस के सारे रास्ते बंद कर देती है, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि नए जिलों के
निर्माण से पूर्व प्रशासनिक दृष्टि से उपयोगिता के साथ-साथ प्रदेश के आर्थिक संसाधनों पर पडऩे वाले बोझ को भी
चर्चा का विषय बनाया जाए, तत्पश्चात ही इस संबंध में कोई निर्णय लिया जाए।
छोटी प्रशासनिक इकाइयों के पक्षधरों के अनुसार कांगड़ा में तीन, मंडी में दो और शिमला में दो अतिरिक्त जिले
बनाए जाने से यह क्षेत्र तेजी से विकास करेंगे। दूसरी ओर राजनीतिक रूप से कमजोर पडऩे के डर से सियासत से
जुड़े लोग इस प्रस्ताव का हमेशा से विरोध करते रहे हैं और बड़े जिले से जुड़े होने के जनता के भावनात्मक लगाव
का दोहन करके वे जिलों के पुनर्गठन की सियासी गूगली से हमेशा बचते रहे हैं, पर क्या वास्तव में ही प्रदेश में
नए जिलों के निर्माण की आवश्यकता है?
देश में इस समय 727 जिले हैं। एक जिले का औसत क्षेत्रफल 4356 वर्ग किलोमीटर है। हिमाचल प्रदेश में अगर
लाहौल-स्पीति और किन्नौर को किनारे कर दिया जाए तो हिमाचल में जिलों का औसत क्षेत्रफल 3543 वर्ग
किलोमीटर रह जाएगा। उसी तरह से देश में एक जिले की औसत जनसंख्या 18.6 लाख है। वहीं हिमाचल प्रदेश में
एक जिले की औसत जनसंख्या 6.5 लाख है। देश की तुलना में हिमाचल पहले से ही बहुत छोटी इकाइयों में
विभक्त किया जा चुका है। जिलों के निर्माण के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क यह दिया जाता है कि छोटी प्रशासनिक
इकाइयों से प्रशासन व्यक्तियों के नजदीक आता है। पारदर्शिता के साथ-साथ कार्यकुशलता बढ़ती है, पर इस तर्क
को देने वाले यह भूल जाते हैं कि प्रशासनिक कुशलता जिले के आकार पर नहीं, बल्कि उस जिले में कार्यरत
अधिकारियों की मानसिकता पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए वर्ष 2020 के लिए ‘जिला सुशासन सूचकांकÓ में
जिला मंडी ने आकार में बड़ा होने के बावजूद ऊना और हमीरपुर को प्रशासनिक दक्षता में पीछे छोड़ दिया है।
दूसरा एक अन्य तर्क दिया जाता है कि छोटे जिलों मे विकास तेजी से होता है। विकास को मापने के लिए सबके
अलग-अलग मापदंड हो सकते हैं, पर प्रमाणिक संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रचलित ‘मानव विकास सूचकांकÓ ही है जो
स्वास्थ्य (जीवन प्रत्यशा), शिक्षा एवं जीवन स्तर (प्रति व्यक्ति आय) को ध्यान में रखता है। एक सितंबर 1972
को कांगड़ा का विघटन करके बनाए गए दो जिलों ऊना और हमीरपुर की तुलना जब इन्हीं विकास सूचकांकों के
आधार पर सबसे बड़े जिले कांगड़ा के साथ की गई तो कुछ आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए। कांगड़ा जिले में 1000
व्यक्तियों पर 1.10, हमीरपुर में 1.05 में और ऊना में 0.96 प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध हैं अर्थात प्राथमिक शिक्षा
में यह दोनों जिले कांगड़ा से पीछे हैं। इसी तरह उच्च विद्यालय और उच्च माध्यमिक पाठशालाओं में भी जिला
कांगड़ा दोनों छोटे जिलों से आगे है।
एलोपैथिक स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में जहां कांगड़ा में 2631 व्यक्तियों पर एक स्वास्थ्य संस्थान है, वहीं
हमीरपुर में 2369 और ऊना में 2944 लोगों पर एक स्वास्थ्य संस्थान है। ऊना इसमें भी पिछड़ा हुआ है। कांगड़ा
जिला में 1400 जनसंख्या पर एक उचित मूल्य की दुकान है तो हमीरपुर में 1547 और ऊना में 1749 लोगों पर
यह सुविधा हासिल है। ग्रामीण विकास को देखा जाए तो कांगड़ा में 1837 की जनसंख्या पर एक पंचायत घर
उपलब्ध है तो हमीरपुर में 1849, ऊना में 2020 व्यक्तियों पर एक पंचायत घर है। प्रदेश की कुल जीडीपी का
13.76 फीसदी कांगड़ा से होने के बाद भी ‘प्रति व्यक्ति आयÓ के मामले में कांगड़ा जिला अवश्य अंतिम पायदान
पर है, परंतु ऊना और हमीरपुर की हालत भी प्रति व्यक्ति आय के मामले में अच्छी नहीं है। ऐसे में यह कहना कि
छोटी प्रशासनिक इकाइयों से कार्य में दक्षता या विकास में तेजी आती है, मात्र भ्रम और मिथक से अतिरिक्त और
कुछ नहीं है।
नए जिलों के निर्माण से अगर किसी को सर्वाधिक लाभ पहुंचेगा तो वह है अधिकारी वर्ग। एक नए जिले के निर्माण
का अर्थ मात्र एक जिलाधीश या एक पुलिस अधीक्षक की तैनाती नहीं है। 2 आईएएस अधिकारियों के अतिरिक्त 2
आईपीएस, कम से कम पांच एचएएस अधिकारियों सहित लगभग 25 विभागों के जिला स्तरीय विभाग प्रमुखों की
नियुक्तियां भी करनी पड़ेंगी। सैकड़ों नए कर्मचारियों की भर्ती के साथ ही नए भवनों के निर्माण पर करोड़ों रुपए के
धन का प्रावधान भी आने वाले समय में करना पड़ेगा और ऐसे में नए जिलों की संख्या 4 से अधिक हुई तो
आर्थिक संसाधनों पर पडऩे वाले भार से प्रदेश के अन्य क्षेत्रों का विकास ही डगमगा जाएगा। पहले से ही 60 हजार
करोड़ रुपए के कर्ज में दबे पड़े प्रदेश के लिए यह स्थिति भयावह होगी।
ऐसा नहीं है कि हिमाचल प्रदेश में जिलों के पुनर्गठन की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान जिलों को ही अगर समान
विधानसभा क्षेत्रों के अनुसार पुनर्गठित कर दिया जाए तो प्रशासनिक दृष्टि से ज्यादा बेहतर परिणाम संभव हैं, परंतु
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि प्रदेश की वर्तमान आर्थिक स्थिति हमें जिलों के पुनर्गठन की इजाजत नहीं देती
है। ऐसे में प्रदेश सरकार को चाहिए कि सर्वप्रथम वह उपायुक्त की वित्तीय शक्तियों का उपमंडल स्तर पर
विकेंद्रीकरण करे। दूसरा, प्रत्येक जिले में पिछड़े ब्लॉकों को चिन्हित करके उनमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार के
ढांचे को विकसित करने के लिए अतिरिक्त आर्थिक प्रावधान करे। तीसरा, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य व स्वरोजगार
सुनिश्चित करने के लिए उपमंडल स्तर पर अधिकारियों को अधिक वित्तीय शक्तियां प्रदान करने के साथ ही सबसे
महत्त्वपूर्ण कदम होगा कि प्रशासनिक व विभागीय कार्यप्रणाली में पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। इन
कदमों से नए जिलों के निर्माण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।