स्वामी विवेकानंद ने बजाया था भारतीय अध्यात्म का डंका

asiakhabar.com | September 11, 2021 | 4:25 pm IST
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-योगेश कुमार गोयल-
अपने ओजस्वी विचारों और आदर्शों के कारण सदैव युवाओं के प्रेरणास्रोत और आदर्श व्यक्त्वि के धनी माने जाते
रहे स्वामी विवेकानंद 39 वर्षों के अपने छोटे से जीवनकाल में समूचे विश्व को अपने अलौकिक विचारों की ऐसी
बेशकीमती पूंजी सौंप गए, जो आने वाली अनेक शताब्दियों तक समस्त मानव जाति का मार्गदर्शन करती रहेगी।
12 जनवरी 1863 को कोलकाता में जन्मे नरेन्द्र नाथ आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुए, जो
आधुनिक मानव के ऐसे आदर्श प्रतिनिधि और महान व्यक्तित्व थे, जिनकी ओजस्वी वाणी युवाओं के लिए सदा
प्रेरणास्रोत बनी रही। युवा शक्ति का आह्वान करते हुए उन्होंने एक मंत्र दिया था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य
वरान्निबोधत’ अर्थात् ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि मंजिल प्राप्त न हो जाए।’
ऐसा अनमोल मूलमंत्र देने वाले स्वामी विवेकानंद ने सदैव अपने क्रांतिकारी और तेजस्वी विचारों से युवा पीढ़ी को
ऊर्जावान बनाने, उसमें नई शक्ति एवं चेतना जागृत करने और सकारात्कमता का संचार करने का कार्य किया।
उन्होंने ऐसे वैश्विक समाज की कल्पना की थी, जिसमें देश, धर्म, नस्ल या जाति के आधार पर इंसान-इंसान में
कोई भेद न किया जाता हो। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने वेदों तथा दर्शन
शास्त्र का ज्ञान हासिल कर लिया था।
जब कभी स्वामी विवेकानंद की चर्चा होती है तो अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद में वर्ष 1893 में दिए गए
उनके ओजस्वी भाषण की चर्चा अवश्य होती है। आज से ठीक 128 वर्ष पूर्व विवेकानंद ने सिर्फ 30 साल की उम्र में
विश्व धर्म संसद में जो भाषण दिया था, उसके जरिये उन्होंने न केवल अमेरिकावासियों का बल्कि पूरी दुनिया के
लोगों का दिल जीत लिया था। हालांकि वे शिकागो की धर्म संसद में न तो भारत की किसी मान्य संस्था द्वारा
भेजे गए प्रतिनिधि थे और न ही उन्हें किसी प्रकार का निमंत्रण मिला था बल्कि अपने अनुयायियों के अनुरोध पर
उन्होंने वहां जाने का मन बनाया था और जब वे बोस्टन में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राइट से मिले तो प्रो.
राइट ने उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए विश्व धर्म संसद में उन्हें बतौर प्रतिनिधि सम्मिलित कराते हुए स्थान और
सम्मान दिलाया। जब धर्म संसद की कार्यवाही शुरू हुई तो सभामंच पर भले ही वे एकमात्र भारतीय नहीं थे किन्तु
सही मायने में हिन्दू धर्म के वहां वे एकमात्र प्रतिनिधि थे क्योंकि अन्य सभी प्रतिनिधि किसी न किसी संस्था, मत
अथवा पंथ से संबद्ध थे। विश्व को समग्र हिन्दुओं के भावों का दिग्दर्शन करानेवाले एकमात्र वही थे और उस दिन
उन्हीं के माध्यम से हिन्दू धर्म को एकसूत्रता तथा स्पष्टता प्राप्त हुई थी।
11 सितम्बर 1893 को शिकागो के ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में हिन्दू धर्म पर अपने प्रेरणात्मक भाषण की शुरुआत
जब उन्होंने ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ के साथ की थी तो बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही
थी। अपने उस भाषण के जरिये उन्होंने दुनियाभर में भारतीय अध्यात्म का डंका बजाया था और उसके बाद विदेशी
मीडिया तथा वक्ताओं द्वारा भी स्वामीजी को धर्म संसद में सबसे महान् व्यक्तित्व एवं ईश्वरीय शक्ति प्राप्त सबसे
लोकप्रिय वक्ता बताया जाता रहा। यह स्वामी विवेकानंद का अद्भुत व्यक्तित्व ही था कि वे यदि मंच से गुजरते
भी थे तो तालियों की गड़गड़ाहट होने लगती थी।

बात करते हैं स्वामी विवेकानंद के उस भाषण की, जो उन्होंने 1893 में शिकागो में दिया था और आज भी उतना
ही प्रासंगिक है, जितना उस समय माना गया था। अपने उस ओजस्वी भाषण में उन्होंने पूरी दुनिया के समक्ष
भारत को एक मजबूत छवि के साथ पेश करते हुए कहा था, ‘‘अमेरिका निवासी भगिनी और भ्रातृगण ! आपने जिस
स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है, उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परम्परा और
सभी धर्मों की जननी की ओर से आपको धन्यवाद देता हूं, सभी जातियों और सम्प्रदायों के लाखों-करोड़ों हिन्दुओं
की ओर से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मैं इस मंच पर बोलने वाले कुछ वक्ताओं का भी धन्यवाद करना
चाहता हूं, जिन्होंने यह व्यक्त किया कि दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूर्व के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं
उस धर्म से हूं, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी और जिसने दुनिया
को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं
करते बल्कि हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।’’
अपने उस भाषण में साम्प्रदायिकता और कट्टरता पर तंज कसते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि
साम्प्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़
रखा है, जिन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है, न
जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुई हैं और कितने ही देश मिटा दिए गए। हिंसा के जरिये धरती को रक्तरंजित करने
वाले लोगों पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा था कि यदि ये खौफनाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज आज के
मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर होता। उन्होंने कहा था कि ऐसे लोगों का वक्त अब पूरा हो चुका है और मुझे उम्मीद है
कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा, फिर चाहे
वह तलवार से हो या कलम से।
शिकागो सम्मेलन को उस समय तक की सबसे पवित्र सभाओं में से एक बताते हुए उन्होंने गीता के उपदेशों का भी
उल्लेख किया था, जिनमें कहा गया है कि जो भी मुझ तक आता है, चाहे कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं,
लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं, लेकिन आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं। अपने प्रेरक
भाषण में विवेकानंद ने कहा था कि जिस प्रकार अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से
होकर अंततः समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये
रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हों लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा जाता है कि वे स्वयं खुद भूखे रहकर अतिथियों को खाना खिलाते थे और बाहर
ठंड में सो जाते थे। मानवता के वे कितने बड़े हितैषी थे, यह उनके इस वक्तव्य से समझा जा सकता है कि भारत
के 33 करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी-देवताओं की भांति मंदिरों में स्थापित कर दिया
जाए और मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। विवेकानंद का व्यक्तित्व कितना विराट था, यह
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि अगर आप भारत को जानना चाहते हैं तो आप
विवेकानंद को पढ़िए।
भारतीय युवाओं के लिए विवेकानंद से बढ़कर भारतीय नवजागरण का अग्रदूत अन्य कोई नेता नहीं हो सकता।
उन्होंने देश को सुदृढ़ बनाने और विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए हमेशा युवा शक्ति पर भरोसा किया। उनका
कहना था कि मेरी भविष्य की आशाएं युवाओं के चरित्र, बुद्धिमत्ता, दूसरों की सेवा के लिए सभी का त्याग और

आज्ञाकारिता, खुद को और बड़े पैमाने पर देश के लिए अच्छा करने वालों पर निर्भर है। युवा शक्ति का आह्वान
करते हुए उन्होंने अनेक मूलमंत्र दिए।
जब विवेकानंद शिकागो धर्म संसद से भारत वापस लौटे तो उन्होंने समस्त देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा
था, ‘‘नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकल पड़े
झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों और पर्वतों से।’’ उनके इस आह्वान के बाद कांग्रेस को स्वाधीनता संग्राम में देशवासियों का
भरपूर समर्थन मिला और इस प्रकार वे भारतीय स्वाधीनता संग्राम के भी बहुत बड़े प्रेरणास्रोत बने।


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