-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री-
किसानों के नाम पर आंदोलन की शुरुआत शाहीनबाग अंदाज में हुई थी। उसकी तरह ही असत्य पर आधारित
अभियान चलाया जा रहा है। सीएए ने नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान किया गया था। जबकि आंदोलन इस
बात कर किया गया कि सरकार वर्ग विशेष की नागरिकता छीन लेगी लेकिन कुछ ही समय में ऐसा कहने वाले
बेनकाब हुए। इसी प्रकार किसानों के नाम पर चल रहा आन्दोलन भी बड़े झूठ पर आधारित है। सीएए विरोध की
तर्ज पर कहा जा रहा है कि कृषि कानूनों से किसानों की जमीन छीन ली जाएगी। वास्तविकता यह कि पुरानी
व्यवस्था में किसान अपनी जमीन बेचने को विवश हो रहे थे क्योंकि कृषि में लाभ कम हो रहा था। इसका फायदा
पूंजीपति उठा रहे थे। नए कृषि कानूनों से किसानों को विकल्प उपलब्ध कराए गए हैं। इनको भी स्वीकार करने की
बाध्यता नहीं है। किसानों को अधिकार प्रदान किये गए।
देश में अस्सी प्रतिशत से अधिक किसान छोटी जोत वाले हैं। आंदोलन के नेताओं को इनकी कोई चिंता नहीं है।
आंदोलन का स्वरूप अभिजात्य वर्गीय है। ऐसा आंदोलन नौ महीने क्या नौ वर्ष तक चल सकता है। आंदोलन के
नेता कृषि कानूनों का काला बता रहे हैं। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि इसमें काला क्या है, वह
कह रहे है कि किसानों की जमीन छीन ली जाएगी लेकिन उनके पास इसका जवाब नहीं कि किस प्रकार किसानों
की जमीन छीन ली जाएगी। कॉन्ट्रैक्ट कृषि तो पहले से चल रही है। किसानों को इसका लाभ मिल रहा है। ऐसा
करने वाले किसी भी किसान की जमीन नहीं छीनी गई।
आंदोलन के नेता कह रहे है कि कृषि मंडी समाप्त हो जाएगी। जबकि वर्तमान सरकार ने कृषि मंडियों को आधुनिक
बनाया है। कृषि मंडियों से खरीद के रिकार्ड कायम हुए हैं। आंदोलन के नेता कह रहे है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य
समाप्त हो जाएगा। लेकिन वर्तमान सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में अब तक कि सर्वाधिक वृद्धि की है।
जाहिर है कि यह आंदोलन भी सीएए की तरह विशुद्ध राजनीतिक है। इससे किसानों का कोई लेना देना नहीं है।
इसमें किसान हित का कोई विचार समाहित नहीं है। सीएए विरोधी आंदोलन जल्दी समाप्त हो गया। लेकिन इस
आंदोलन में किसान शब्द जुड़ा है। इसका लाभ मिल रहा है। इसी नाम के कारण सरकार ने बारह बार इनसे वार्ता
की। संचार माध्यम में भी किसान आंदोलन नाम चलता है। जबकि वास्तविक किसान इससे पूरी तरह अलग है।
उन्हें कृषि कानूनों में कोई खराबी दिखाई नहीं दे रही है। आंदोलन के नेता और उनका समर्थन करने वाले
राजनीतिक दल अपनी जवाबदेही से बच रहे हैं। किसी ने यह नहीं बताया कि वह पुरानी व्यवस्था को बचाने हेतु
इतना बेकरार क्यों है। इसका क्या निहितार्थ निकाला जाए, क्या उनके पास पुरानी व्यवस्था की अच्छाइयां बताने के
लिए कुछ नहीं है।
किसी ने यह नहीं कहा कि पुरानी व्यवस्था में किसान खुशहाल थे इसलिए वे सुधारों का विरोध कर रहे हैं। जबकि
सुधार तथ्यों पर आधारित है। इसका विरोध कल्पनाओं पर आधारित है। मात्र कल्पना के आधार पर आंदोलन
चलाया जा रहा है। सरकार के विरोध में विपक्ष ने अपने हितों का भी ध्यान नहीं रखा। सत्ता पक्ष ने उनको
बिचौलियों के बचाव हेतु परेशान बताया। क्योंकि विधेयकों के माध्यम से बिचौलियों को ही दूर किया गया। मंडियां
समाप्त नहीं होंगी, न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा, किसानों को अपनी मर्जी से उपज बेचने का अधिकार मिला।
ऐसे में विरोध का कोई औचित्य या आधार ही नहीं था। विरोध में सर्वाधिक मुखर दलों को सत्ता में रहने का अवसर
मिलता रहा है।
कांग्रेस आज भी कई प्रदेशों की सत्ता में है। नरेंद्र मोदी सरकार के ठीक पहले कांग्रेस की केंद्र में सरकार थी। ऐसी
सभी पार्टियों को तो किसान हित पर बोलने का अधिकार ही नहीं है। दस वर्षों में एक बार किसानों की कर्ज माफी
मात्र से कोई किसान हितैषी नहीं हो जाता। आज हंगामा करने वाली पार्टियां स्वयं जवाबदेह हैं। उनको बताना
चाहिए कि पुरानी व्यवस्था के माध्यम से उन्होंने किसानों को कितना लाभान्वित किया था। उन्हें बताना चाहिए कि
क्या उस व्यवस्था में बिचौलिओं की भूमिका नहीं थी। क्या सभी किसानों की उपज मंडी में खरीद ली जाती थी।
स्वामीनाथन समिति का गठन यूपीए सरकार ने किया था। उसकी सिफारिशों पर मोदी सरकार अमल कर रही है।
कुछ दिन पहले कांग्रेस सवाल करती थी कि स्वामीनाथन रिपोर्ट कब लागू होगी। सरकार अमल कर रही है तो
हंगामा किया जा रहा है। यह दोहरा आचरण कांग्रेस के लिए हानिकारक है। जाहिर है कि विपक्ष पिछली व्यवस्था के
लाभ बताने की स्थिति में नहीं है।
भाषण और बयान चल रही है,किसानों के हित की दुहाई दी जा रही है,लेकिन कोई यह नहीं बता रहा है कि अब
तक चल रही व्यवस्था में किसानों को क्या लाभ मिल रहा था, कोई यह नहीं बता रहा है कि कितने प्रतिशत कृषि
उत्पाद की खरीद मंडियों में होती थी। कोई यह नहीं बता रहा है कि पिछली व्यवस्था में बिचौलियों की क्या भूमिका
थी। कोई यह नहीं बता रहा है कि कृषि उपज का वास्तविक मुनाफा किसान की जगह कौन उठा रहा था। विपक्ष
इन सबका जवाब देता तो स्थिति स्पष्ट होती। कहा जा रहा है कि किसान बर्बाद हो जाएंगे, बड़ी कम्पनियां उनके
खेतों पर कब्जा कर लेंगी, अंग्रेजों की तरह उनसे नील का उत्पादन कराएंगी, खेत बर्बाद हो जाएंगे आदि।
पुरानी व्यवस्था में अनेक कमियां थी। इसमें किसानों पर ही बन्धन थे, वही परेशान होते थे। इस व्यवस्था में वे
लोग लाभ उठा रहे थे, जो किसान नहीं थे। वह किसानों की तरह मेहनत नहीं करते थे, उन्हें फसल पर मौसम की
मार से कोई लेना देना नहीं था। ऐसे में इस आंदोलन से किसका लाभ हो सकता है। आंदोलन किसके बचाव हेतु
चल रहा है। इसमें किसानों का हित नजरअंदाज किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो पुरानी व्यवस्था में लाभ उठाने वालों के गिरोह का उल्लेख किया है। कहा कि देश में
अब तक उपज और बिक्री के बीच में ताकतवर गिरोह पैदा हो गए थे। यह किसानों की मजबूरी का फायदा उठा रहे
थे। जबकि इस कानून के आने से किसान अपनी मर्जी और फसल दोनों के मालिक होंगे। उन्होंने देश के किसानों
को आश्वस्त किया कि देश में न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होगा ना ही कृषि मंडियां समाप्त होंगी।
कांग्रेस किसानों को भ्रमित कर रही है। कांग्रेस ने शुरू से ही देश के किसानों को कानून के नाम पर अनेक बंधनों
से जकड़ रखा है। आज तक किसानों के हित में कोई फैसला नहीं लिया। आज जब कृषि सुधार के प्रयास किए जा
रहे हैं तो किसानों को गुमराह किया जा रहा है। देश में एमएसपी अनवरत जारी है। फसल मंडियां अपनी जगह
यथावत है। लेकिन कांग्रेस पार्टी किसानों को यह कह कर गुमराह कर रही है कि एमएसपी खत्म हो जाएगी। मंडियों
को खत्म कर दिया जाएगा। सरकार ने किसानों को अधिकार के लिए ऐतिहासिक कानून बनाये हैं। यह कृषि सुधार
इक्कीसवीं सदी के भारत की जरूरत है।