-डॉ. राघवेंद्र शर्मा-
अफगानिस्तान में तालिबान राज से उपजे हालातों ने भारत के छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों की भूमिका पर गंभीर
सवाल खड़े कर दिए हैं।बहुलता, सहिष्णुता, जेंडर और धार्मिक आजादी की तकरीरें देने वाली जमात इस अफगान
संकट पर मुंह में दही जमाकर बैठी है। देश में जिस तरह से तालिबान के पक्ष में बड़ा वर्ग खड़ा नजर आ रहा है
वह भारत के लिए बड़ी चिंता का सबब है। जिस तरह से आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड ने तालिबान को
शुभकामना संदेश भेजा है और सपा सांसद शफीकुर्रहमान ने आजादी के संघर्ष के साथ तालिबानी आंदोलन की
तुलना की वह खतरनाक है। सोशल मीडिया पर कतिपय मुस्लिम संगठन भी वकालत की मुद्रा में खड़े हुए हैं।
कल्पना कीजिये अगर किसी हिन्दू संगठन ने ऐसा किया होता तो देश के सेक्यूलर बुद्धिजीवियों ने कैसा रुदन मचा
दिया होता। आज इन बुद्धिजीवियों और तुष्टिकरण की राजनीति के झंडाबरदारों के लिए अफगानी महिलाओं, बच्चों
पर बर्बर अत्याचार नजर नहीं आ रहा है क्योंकि वहां उनकी सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म की थियरी फिट बैठती है।
असल में अफगानिस्तान के अप्रत्याशित तौर पर बदले हालातों ने भारत जैसे शांति प्रिय देशों की चिंताएं बढ़ा दी हैं।
पाकिस्तान ,चीन और रूस जैसे देश तालिबान के प्रति नरम रवैया अपना रहे हैं, वह स्पष्ट करता है कि हम उन
पड़ोसियों से घिरे हुए हैं, जो अपने तात्कालिक लाभ के चलते दूसरों का अनिष्ट करने में शायद ही देर लगाएं। ऐसे
में बात उन मुस्लिम भाइयों की भी होनी चाहिए, जो दुनिया भर में इस्लामिक आतंक की भेंट चढ़ते चले जा रहे हैं।
ठीक वैसे ही अफगानिस्तान का मुसलमान भी तालिबानों के हाथों मरने को मजबूर है।
मौत का यह भय इतना विकराल है कि लोग जान हथेली पर रखकर अपने वतन से भागने को मजबूर हैं। लेकिन
तालिबान के प्रति हमदर्दी रखने वाले अफगानिस्तान के पड़ोसी मुस्लिम देशों ने इस देश के चारों ओर मजबूत बाड़े
बंदी कर दी है। फलस्वरूप अफगानियों के पास अपने देश से भागकर जान बचाने का विकल्प भी लगभग समाप्त
ही हो गया है। नतीजा यह है कि जिंदगी से निराश हो चुका अफगानी मुसलमान काबुल हवाई अड्डे से उड़ान भर
रहे हवाई जहाजों के पीछे दौड़ रहा है, इस उम्मीद के साथ कि काश उसे इन हवाई जहाजों में चढ़कर मौत से बचने
का मौका मिल जाए ! अमेरिकी फौजों ने काबुल के हवाई अड्डे को उस वक्त तक के लिए ही अपने कब्जे में ले
रखा, जब तक कि वह अपने सभी लोगों को अफगान से बाहर नहीं निकाल लेता।
कुल मिलाकर आम अफगानी अपने ही देश में कैद होकर तिल तिल मरने को मजबूर हो गया है। आश्चर्य की बात
तो यह है कि इन्हें यातनाएं देने वाले लोग बाहर से नहीं आए। बल्कि अधिकांश कष्टदाता भी पीड़ितों की तरह
उनके अपने ही देश के नागरिक हैं। लेकिन एक ही देश के व्यक्तियों के इन दोनों समूहों में खासा अंतर है। एक
समूह मजबूरों को यातनाएं देने का एक भी मौका हाथ से जाने देना नहीं चाहता। वहीं दूसरे समूह के लोग केवल
इतने से रहम की भीख मांग रहे हैं कि खुदा के लिए हमें जिंदा छोड़ दो, हम तुम्हारी जागीर छोड़कर कहीं और चले
जाएंगे। यह सब क्यों हो रहा है, इस विषय पर सारे विश्व को चिंतन करने की आवश्यकता है। कौन नहीं जानता
कि अफगानिस्तान में जो तालिबान ताकत में आए हैं, वह देश को शरिया कानून के मुताबिक चलाना चाहते हैं। वह
शरिया कानून, जो महिलाओं को पढ़ने की छूट नहीं देता। वह शरिया कानून, जिसे महिलाओं का नौकरी करना
पसंद नहीं है। वह शरिया कानून, जो महिलाओं और बच्चियों को खुले में सांस लेने देना भी नहीं चाहता। इससे भी
बदतर सूरत यह है कि जिन बालिकाओं ने किशोरावस्था को स्पर्श भर कर लिया है अथवा जो महिलाएं प्रौढ़ावस्था
से तनिक भी दूर रह गई हैं, उनके यौन शोषण की आशंकाएं मुंह बाए खड़ी हैं।
क्षोभ होता है तब, जब हमारे देश में भी कथित धर्मनिरपेक्षता वादी लोग शरिया कानूनों के हिमायती बनकर
भारतीय संविधान को कमतर आंकते नजर आते हैं। ऐसे में इनसे यह पूछा जाना चाहिए कि वह किसके साथ हैं।
उनके साथ? जो शरिया कानून की आड़ लेकर अपने ही हमवतन और हम बिरादर लोगों के लिए काल साबित हो
रहे हैं ! या फिर उनके साथी हैं, जो एक लोकतांत्रिक देश के अनुशासित नागरिक होने के नाते खुली हवा में सांस
लेना चाहते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस सवाल का जवाब किसी के पास ना हो। सही बात तो यह है कि जानते सब
हैं, लेकिन मानना कोई भी नहीं चाहता। क्योंकि ऐसा करने से समय अनुकूल आचरण करने वाले नेताओं को
राजनैतिक लाभ हानि का गणित परेशान करने लगता है। यही वजह है कि ऐसे लोग धर्मनिरपेक्षता की आड़ में
मुसलमानों का अनिष्ट करने में ही लगे रहते हैं। वरना कौन नहीं जानता कि भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें
मुसलमानों की जनसंख्या ऐसे अनेक राष्ट्रों से अधिक है, जो खुद को मुस्लिम देश कहलवाना पसंद करते हैं। फिर
भी हमारे यहां का मुसलमान अन्य देशों की तुलना में ज्यादा सुरक्षित और संरक्षित है। क्योंकि यहां का शासन
किसी संप्रदाय विशेष की पुस्तक के अनुसार नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संविधान के हिसाब से चलता है।
तब सवाल यह उठता है कि भारत जैसे बहु संप्रदायों वाले देश में ऐसा कैसे संभव हो पाया? तो जवाब एक ही है,
वह यह कि यह देश वसुधैव कुटुंबकम की विचारधारा में पला-बढ़ा है। यहां सर्वधर्म समभाव के व्यवहार को आचरण
में डाला गया है। यहां के मूलवासी एकात्म मानववाद के मार्ग पर चलना जानते हैं। इसी सोच, संस्कार और
विचारधारा का यह जीवंत प्रमाण है कि अफगान के पीड़ितों को ई-वीजा जारी करने का निर्णय भी भारत ने ही
लिया है। उसने अफगानिस्तान के अन्य पड़ोसियों की भांति आतंकवाद के मारे अफगानियों के लिए अपने द्वार बंद
नहीं किए हैं। काश यह बात समय रहते उन तथाकथित धर्मनिरपेक्षता वादियों की समझ में भी आ जाए, जो केवल
अपने सियासी लाभ के लिए सच कहने से बच रहे हैं, एक भाई के हाथों दूसरे भाई को मरता हुआ देखकर भी चुप्पी
साधे हुए हैं।