-डॉ. वेदप्रताप वैदिक-
भारत के लोग समझ रहे हैं कि काबुल में तालिबान के आ जाने से पाकिस्तान की पौ-बारह हो गई है। यह ठीक है
कि यदि पाकिस्तान मदद नहीं करता तो तालिबान का जिंदा रहना ही मुश्किल हो जाता। पाकिस्तान ने उन्हें
हथियार, पैसा, प्रशिक्षण और रहने को जगह दी है। इसका अर्थ सारी दुनिया ने यह लगाया कि तालिबान उसकी
कठपुतली बनकर रहेगा लेकिन ऐसा समझनेवाले लोग अफगान पठानों का मूल चरित्र नहीं समझते।
अफगानों से बढ़कर आजाद स्वभाववाले लोग सारी दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने 1842 में ब्रिटिश सेना के 16000
जवानों में से 15999 को मौत के घाट उतार दिया था। अन्य दो हमलों में फिर उसने ब्रिटेन को मात दी। उसके
बाद उसने 30-40 साल पहले रूस के हजारों सैनिकों को मार भगाया और अब 20 साल छकाने के बाद अमेरिकी
फौज को धूल चटा दी। दुनिया के तीन बड़े साम्राज्यों की नाक नीची करनेवाले अफगान क्या पाकिस्तान की ''पंजाबी
फौज' के आगे अपनी नाक रगड़ेगें ? कदापि नहीं।
पाकिस्तान के नेता, फौजी और इतिहास के विद्वान इन तथ्यों से अनजान नहीं हैं। इसीलिए वे जश्न तो मना रहे
हैं लेकिन उनसे पूछिए कि वे कितने पसीने में तर हो गए हैं ? यदि तालिबान पाकिस्तान की कठपुतली होते तो
क्या वजह है कि अभी तक काबुल में नई सरकार शपथ नहीं ले सकी है ? पाकिस्तान के हुक्मरानों को डर है कि
यदि काबुल में तालिबान की निरंकुश इस्लामी सत्ता कायम हो गई तो वह पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिरदर्द होगा।
तालिबान पर पाकिस्तान नहीं, पाकिस्तान पर तालिबान चड्डी गांठेगें। वे उससे पूछेंगे कि सारी दुनिया में इस्लाम
के नाम पर बननेवाला अकेला राष्ट्र पाकिस्तान है लेकिन 'ए पंजाबियों, तुम कितने इस्लामी हो?'
तालिबान आंदोलन में कई फिरके हैं। 'तहरीके-तालिबान पाकिस्तान' तो पाकिस्तान के अंदर रहकर उसके खिलाफ
कार्रवाई करता रहा है। 1983 में जब पेशावर के जंगलों में मैं पहली बार मुजाहिदीन नेताओं से मिला तो वे कहते
थे कि पेशावर तो हम पठानों का है। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उस पर जबरन कब्जा कर रखा है। वे 1893 में
अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरेंड सीमा-रेखा को बिल्कुल नहीं मानते। आजतक किसी भी अफगान सरकार ने उसे
मान्यता नहीं दी है बल्कि सरदार दाऊद के प्रधानमंत्री काल में तीन बार पाक-अफगान युद्ध की नौबत आ खड़ी हुई
थी। इसीलिए अब पाकिस्तान फूंक-फूंककर कदम रख रहा है। उसकी कोशिश है कि काबुल में अब एक मिली-जुली
सरकार कायम हो जाए। उसे पता है कि यदि काबुल में कोहराम मच गया तो लाखों अफगान शरणार्थी उनके यहां
घुस आएंगे। उसकी अर्थ-व्यवस्था पहले ही डांवाडोल है। वह संकट में फंस जाएगी।
यदि काबुल की सरकार स्थिर और मजबूत हो तो अफगानिस्तान खनिजों का भंडार है। वह दक्षिण एशिया का सबसे
मालदार देश बन सकता है। पिछले 40 साल में पहली बार काबुल में अब ऐसी सरकार बन सकती है, जो स्वायत्त
हो। यदि काबुल की सत्ता अनुभवहीन, अल्पदृष्टि और संकुचित हाथों में चली गई तो अफगानिस्तान अस्थिरता के
गहरे कीचड़ में फिसल सकता है।