-नीरज कुमार दुबे-
तालिबान ने जब अपना परचम लहराने का अभियान शुरू किया तो उसने सबसे पहले ग्रामीण इलाकों की चौकियों
पर कब्जा करना शुरू किया और सैनिकों तथा पुलिस बलों को घेरना शुरू किया। कम संख्या में तैनात अफगान
बलों पर तालिबानी विद्रोहियों की बड़ी संख्या भारी पड़ने लगी।
अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जा हो चुका है जिसको लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। सब जगह चर्चा हो रही है कि
अफगानिस्तानी सुरक्षा बलों ने एक सप्ताह के अंदर ही कैसे पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया जबकि अमेरिका ने
उन्हें हथियार और उपकरण दिये थे साथ ही उनके प्रशिक्षण पर भी अरबों डॉलर खर्च किये थे। एक अनुमान के
मुताबिक पिछले दो दशकों में अमेरिका ने अफगान सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण पर और उन्हें साजो-सामान मुहैया
कराने पर 88 बिलियन डॉलर यानि करीब 65 खरब रुपए खर्च किये थे। लेकिन जैसे ही अमेरिका अफगानिस्तान
छोड़ कर भागा, अफगान बलों ने भी अपने घुटने टेक दिये। देखा जाये तो यह खबर का एक पहलू भर है। इसका
दूसरा पहलू यह है कि सेना को प्रशिक्षित भले किया गया था लेकिन अफगान सरकार अपने सुरक्षा बलों की जरूरतों
के प्रति लापरवाह रुख अपनाये रही। हाल के दिनों में अफगान सेना के समक्ष भूखों मरने की नौबत आ गयी थी।
भूखे सैनिक आखिर तालिबान से कितनी देर लड़ पाते? अफगान सेना और पुलिसकर्मियों की ओर से सरकार को
बार-बार राशन और साजो-सामान की कमी दूर करने के लिए कहा जा रहा था, एयर सपोर्ट मांगा जा रहा था लेकिन
सरकार ने एक नहीं सुनी। यही नहीं सैनिकों को सुबह से लेकर शाम तक खाने के लिए सिर्फ आलू दिये जा रहे थे।
सैनिकों का कहना भी था कि सिर्फ फ्रेंच फ्राइज खाकर कब तक तालिबान से लड़ेंगे लेकिन सरकार ने एक नहीं
सुनी। अफगान सेना दिनभर आलू खाकर रोजाना गोश्त उड़ाने वाले तालिबान लड़ाकों का मुकाबला करती भी तो
कैसे। अब जो हश्र हुआ उसके लिए सेना नहीं अफगान सरकार ज्यादा जिम्मेदार है जिसने अमेरिकी सैनिकों की
वापसी की घोषणा के बाद अपने देश के लिए कोई योजना बनाने की बजाय खुद का बोरिया बिस्तर समेटने पर
ज्यादा ध्यान दिया।
तालिबान ने कैसे मिली जीत?
तालिबान ने जब अफगानिस्तान पर अपना परचम लहराने का अभियान शुरू किया तो उसने सबसे पहले ग्रामीण
इलाकों की चौकियों पर कब्जा करना शुरू किया और सैनिकों तथा पुलिस बलों को घेरना शुरू किया। कम संख्या में
तैनात अफगान बलों पर तालिबानी विद्रोहियों की बड़ी संख्या भारी पड़ने लगी। अफगान बलों के हथियार छीनकर
उनसे आत्मसमर्पण कराने के बाद उन्हें सही सलामत जाने दिया गया। ऐसा ही तालिबान विद्रोहियों ने बाद में जिलों
में करना शुरू किया और जब सुरक्षा बलों ने यह देखा कि आत्मसमर्पण करने पर जान बख्शी जा रही है तो सभी
ने आत्मसमर्पण करना शुरू कर दिया क्योंकि वैसे ही सरकार को अब उनकी परवाह नहीं रही थी। देखा जाये तो
एक तरफ अफगान सुरक्षा बल अकेले पड़ गये थे तो दूसरी ओर तालिबान की शक्ति बढ़ती ही जा रही थी। हम
आपको बता दें कि अफगानिस्तान में इस समय 80 हजार से ज्यादा तालिबान लड़ाके हैं और उनके पास आधुनिक
हथियार, गोला-बारूद तो है ही साथ ही पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का समर्थन भी है। यही नहीं
कबाइली इलाकों के लड़ाके भी तालिबान की बड़ी ताकत हैं।
हार किस-किस की हुई है?
अफगानिस्तान में तालिबान की तो जीत हो गयी लेकिन सवाल यह है कि हारा कौन-कौन है तो आइये जरा इस पर
भी चर्चा कर लेते हैं। सिर्फ अफगानिस्तान की सरकार और वहां के सुरक्षा बलों की हार नहीं हुई है बल्कि यह अपने
आप को सुपर पावर समझने वाले अमेरिका की भी करारी हार है। विश्व इतिहास में अमेरिका की इस हार और
अमेरिका की वजह से अफगानिस्तान की जनता के सिर पर पड़ी मुसीबतों की चर्चा जरूर होगी। काबुल स्थित
दूतावास से अमेरिकी झंडा उतारे जाने की घटना बाइडेन प्रशासन के लिए हमेशा शर्म का विषय बनी रहेगी।
तालिबान ने जिस तेजी के साथ अफगानिस्तान पर कब्जा किया है, उस पर अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और
अन्य शीर्ष अमेरिकी अधिकारी जिस तरह अचंभित नजर आ रहे हैं वह दर्शाता है कि बाइडेन ने यह फैसला लेते
समय ज्यादा विचार-विमर्श नहीं किया था। कहां तो बाइडेन प्रशासन 31 अगस्त तक सेना की वापसी की योजना
को मूर्त रूप देने में जुटा था और कहां उसका अभियान अपनी सेना को वहां से सुरक्षित निकालने के अभियान में
तब्दील हो गया।
बुरी तरह घिर गये हैं बाइडेन
अफगान के मुद्दे पर अब अमेरिका की घरेलू राजनीति में भी घमासान छिड़ गया है। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने
कहा है कि तालिबान का विरोध किए बिना काबुल का पतन होना अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी हार के रूप में
दर्ज होगा। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की पूर्व राजदूत निक्की हेली ने अफगान के हालात को बाइडन प्रशासन की
विफलता करार दिया है। इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश भी अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी
को गलत फैसला बता चुके हैं। वैसे तो पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी अमेरिकी फौजों की वापसी चाहते थे लेकिन
उन्होंने अपने कार्यकाल में इस बात का अंदाजा लगा लिया था कि ऐसा करना गलत फैसला होगा इसीलिए वह
आगे नहीं बढ़े थे लेकिन बाइडेन ने सत्ता में आते ही अपने चुनावी वायदों को पूरा करने की जल्दबाजी में एक ऐसा
फैसला ले लिया जिसने अमेरिका के अब तक के किये कराये पर पानी फेर दिया।
बहरहाल, अफगानिस्तान के बेकाबू होते हालात के बीच वहां के कई सांसद, मंत्री और अफगान राष्ट्रपति के
सलाहकार भारत आ चुके हैं। वहां के कई आम नागरिक भी भारत आ चुके हैं। यही नहीं पाकिस्तान में भी कई
अफगान नागरिकों ने शरण ली है। अफगानिस्तान में तालिबान को कब्जा करने से तो कोई देश नहीं रोक पाया ऐसे
में पड़ोसी देशों का यह कर्तव्य तो बनता ही है कि यदि कोई शरणार्थी आया है तो उसकी यथासंभव मदद की जाये
हालांकि मदद करने की सीमितता है।