-योगेश कुमार गोयल-
टोक्यो ओलम्पिक का समापन हो चुका है। लेकिन हर भारतीय इस ओलंपिक को भारतीय हॉकी के पुनर्जीवन के रूप
में रेखांकित करेगा। जिसमें भारत की पुरुष हॉकी टीम ने 41 वर्षों का सूखा खत्म कर भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी
में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचा। जिस प्रकार दूसरे क्वार्टर में 3-1 से पिछड़ने के बाद टीम ने जबरदस्त
वापसी करते हुए जर्मनी की मजबूत टीम को 5-4 से मात देकर कांस्य पदक अपने नाम किया, उसके लिए हमारे
हॉकी खिलाड़ियों की जितनी सराहना की जाए, कम है। दरअसल जर्मनी की हॉकी टीम अपने आक्रामक खेल के लिए
जानी जाती है और हमारे खिलाड़ियों ने न केवल उसके आक्रमण का बखूबी जवाब दिया बल्कि अवसर मिलते ही
गोल करने से भी नहीं चूके। कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में भारत की शूटिंग दक्षता जर्मनी के मुकाबले बेहतर
रही। भारत के खिलाड़ियों की यह करीब 45 फीसदी तो जर्मनी के खिलाड़ियों की ओर से महज 17 फीसदी रही।
शुरुआती मैच न्यूजीलैंड से जीतने के बाद टीम भले ही आस्ट्रेलिया से हार गई थी लेकिन वह पुल से आगे बढ़कर
अपने बुलंद इरादों के बूते सेमीफाइनल तक पहुंची। वैसे इसबार भारत की दोनों हॉकी टीमें जिस जोश और जज्बे के
साथ खेल रही थी, उससे दोनों से पदक जीतने की उम्मीदें शुरू से ही थी। विश्व हॉकी की रैंकिंग में आठवें से चौथे
स्थान पर आने वाली पुरुष टीम ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने के बाद अपने सभी मुकाबलों में जिस प्रकार
दुनिया की मजबूत मानी जाने वाली टीमों के खिलाफ भी पूरे जोश के साथ सफलतापूर्वक लड़ी, उससे आस बंधी थी
कि यह टीम ओलम्पिक में भारत का लंबा सूखा खत्म करने में अवश्य सफल होगी।
भारत के लिए ओलम्पिक में कांस्य पदक मिलना भी इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि कभी ओलम्पिक खेलों में
हॉकी का सिरमौर रहा भारत 41 वर्षों बाद ओलम्पिक में जीत का स्वाद चख सका है। भारतीय हॉकी के भविष्य से
निराश हो चुके देश के युवाओं में इस जीत ने जो नई आशा जगाई है, उसे देखते हुए ही टोक्यो ओलम्पिक में मिले
कांस्य पदक को स्वर्ण से कम नहीं माना जा रहा। भारत की हॉकी की महिला और पुरुष, दोनों ही टीमें इस बार
सेमीफाइनल में पहुंची और 6 अगस्त को हुए कांस्य पदक के मुकाबले में महिला हॉकी टीम भले ही ब्रिटेन से हार
गई लेकिन ओलम्पिक में अपने सभी मैचों में इस टीम ने जिस तरह का शानदार प्रदर्शन किया, उसकी बदौलत
ओलम्पिक में हारकर भी इसने तमाम भारतवासियों का दिल जीत लिया।
महिला हॉकी टीम इससे पहले केवल दो बार ही ओलम्पिक में खेली है। 1980 में ओलम्पिक खेलों में सेमीफाइनल
फॉर्मेट नहीं था, तब टीम शीर्ष-4 में पहुंची थी जबकि दूसरी बार 2012 रियो के ओलम्पिक में 12वें स्थान पर रही
थी लेकिन इस बार महिला टीम ने पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाकर इतिहास रच दिया। महिला टीम भले
ही हार गई और पुरुष टीम कांस्य ही जीत सकी, फिर अगर ओलम्पिक में भारत के इस प्रदर्शन को गौरवान्वित
करने वाला माना रहा है तो इसका कारण बिल्कुल स्पष्ट है। दरअसल हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी में हमारा गौरव कहीं
खो गया था, जो 41 वर्षों के बेहद लंबे अंतराल के बाद पुनः हासिल करने का अवसर मिला है। 1980 के मास्को
ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद भारतीय टीम ओलम्पिक में कभी भी पांचवें स्थान से ऊपर नहीं जा सकी
थी। कभी उसे 7वें तो कभी 8वें और 12वें स्थान से भी संतोष करना पड़ा और 2008 में तो वह ओलम्पिक के लिए
क्वालिफाई तक नहीं कर सकी थी।
एक समय था, जब हमारी हॉकी टीम विश्व चैम्पियन थी लेकिन लंबे समय से भारत अपने इसी खेल में एक पदक
पाने के लिए भी तरस रहा था। आज यह एक दिवास्वप्न जैसा ही लगता है कि भारत ने हर चार वर्ष के अंतराल
पर होने वाले ओलम्पिक खेलों में 1928 से लेकर 1956 तक लगातार छह बार स्वर्ण पदक जीते थे। अभीतक
भारत हॉकी टीम ने कुल 8 स्वर्ण, 1 रजत और 3 कांस्य पदक जीते हैं। 1928, 1932, 1936, 1948, 1952,
1956, 1964 और 1980 में स्वर्ण, 1960 में रजत और 1968, 1972 तथा 2020 के टोक्यो ओलम्पिक में कांस्य
पदक हॉकी टीम ने जीते हैं।
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1928 के एम्स्टर्डम ओलम्पिक से भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग की शुरुआत हुई थी,
जब भारतीय खिलाड़ी ध्यानचंद की कप्तानी में टीम ने पांच मैचों में बिना एक भी गोल खाए कुल 29 गोल करते
हुए ओलम्पिक में पहला स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा था। ध्यानचंद ने सबसे ज्यादा 14 गोल दागे थे। 1932
के लॉस एंजिल्स और 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में भी ध्यानचंद के ही नेतृत्व में भारत स्वर्ण पदक जीतने में
सफल हुआ। 1932 के ओलम्पिक में ध्यानचंद ने 12 और 1936 के अपने आखिरी ओलम्पिक में 13 गोल दागे थे।
इस प्रकार तीन ओलम्पिक में उन्होंने कुल 39 गोल किए थे। उसी के बाद से ही मेजर ध्यानचंद को 'हॉकी का
जादूगर' कहा जाने लगा था। दरअसल उनके बारे में माना जाने लगा था कि गेंद उनकी हॉकी स्टिक से ऐसी चिपक
जाती थी, जैसे उस पर गोंद लगा हो।
1948 के ओलम्पिक में बलबीर सिंह सीनियर के नेतृत्व में भारत ने फिर स्वर्ण पदक जीता और स्वर्णिम जीत का
यह सिलसिला 1952 तथा 1956 के ओलम्पिक में भी बरकरार रहा। 1960 के रोम ओलम्पिक में भारत को रजत
से ही संतोष करना पड़ा लेकिन 1964 के टोक्यो ओलम्पिक में अपने 7वें स्वर्ण पदक के साथ भारतीय टीम हॉकी
के शिखर पर पहुंच गई। 1968 के मेक्सिको ओलम्पिक में भारत को पहली बार कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा
और उसके बाद 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में भी कांस्य ही मिल सका। 1976 के मॉन्ट्रियल ओलम्पिक में
भारतीय हॉकी टीम का सबसे खराब प्रदर्शन रहा, वह 7वें स्थान पर रही। 1980 के मॉस्को ओलम्पिक में भारत को
16 वर्ष बाद स्वर्ण पदक मिला। उस ओलम्पिक में सुरिंदर सिंह सोढ़ी ने कुल 15 गोल दागकर मेजर ध्यानचंद के
सर्वाधिक गोल के रिकॉर्ड को तोड़ दिया था। यह अबतक किसी भारतीय हॉकी खिलाड़ी द्वारा एक ओलम्पिक में
किए गए सर्वाधिक गोल का रिकॉर्ड है।
इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत ने ओलम्पिक खेलों में सर्वाधिक पदक पुरुष हॉकी में ही
जीते हैं लेकिन 1980 के बाद से भारत ओलम्पिक में हॉकी में जीत के लिए तरस रहा था। ऐसे में इस सवाल की
पड़ताल जरूरी है कि जो भारत दशकों तक हॉकी चैम्पियन रहा, उसकी अपने इसी राष्ट्रीय खेल में इतनी दुर्गति
क्यों हुई? जिस हॉकी की बदौलत भारत बड़ी शान से हर ओलम्पिक में भागीदारी करता था, आखिर क्या कारण रहे
कि उसी हॉकी में पदक जीतना तो दूर की बात, भारत को सेमीफाइनल में प्रवेश के लिए भी चार दशक लंबा
इंतजार करना पड़ा। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही रहा कि जिन लोगों ने स्वयं कभी हॉकी में बड़ा कमाल नहीं
किया, बरसों तक उन्हीं के हाथों में भारतीय हॉकी की कमान रही। खिलाड़ियों के चयन के मामले में भाई-
भतीजावाद की बात हो या भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी अथवा नीतियों के निर्धारण की, भारतीय हॉकी संघ पर
काबिज ऐसे ही मठाधीशों ने हॉकी का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत में क्रिकेट की चकाचौंध ने
भी हॉकी जैसे परम्परागत खेलों को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा यूरोपीय देशों ने खेल
मैदानों से लेकर नियमों तक में अपने अनुकूल जिस प्रकार के परिवर्तन समय-समय पर किए हैं, उनके कारण भी
भारतीय हाकी ढ़लान पर आई।
बहरहाल, हॉकी में बरसों बाद मिली जीत के पश्चात् देश में हॉकी के पुनरुत्थान की आस जगी है और निश्चित रूप
से यह देश में हॉकी के बेहतर भविष्य की उम्मीद जगाता है। ऐसे में जीत के इस उत्साह को बरकरार रखते हुए
जरूरत अब इस बात की है कि देश में हॉकी तथा अन्य खेलों को भी किसी बड़े टूर्नामेंट के लिए खेलने या किसी
एक सीजन का खेल मानकर चलने की सोच तक सीमित रखने के बजाय मौजूदा खेल ढांचे की खामियों को दूर
करते हुए इन्हें समाज का अटूट अंग बनाने की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की मेहनती
युवा प्रतिभा को इस हद तक निखारने पर ध्यान केन्द्रित होना जाए ताकि विभिन्न खेलों में विभिन्न स्पर्धाओं में
भारत पूरे दम-खम के साथ सीधे स्वर्ण पर निशाना लगाने में सक्षम बन सके।