भारत के राष्ट्रपति जैसे गरिमामय पद पर किसी व्यक्ति के चयन का आधार क्या हो सकता है ? निश्चित रूप से योग्यता, ज्ञान, विद्वता और संविधान के अनुसार देश के लिए फैसले ले सकने की क्षमता ! बाद में इसमें राजनीतिक तालमेल जैसी ‘योग्यता’ भी जुड़ती चली गई।
मगर क्या कभी ऐसा हो सकता है कि किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति न बनाने के पीछे यह तर्क दिया जाए कि ‘वे तो जहां भी घूमने जाते हैं, अपने पूरे परिवार को साथ ले जाते हैं, इसलिए उन्हें राष्ट्रपति नहीं बनाया जाना चाहिए !’ सुनने में यह अजीब लगता है, लेकिन भारतीय राजनीति में ऐसा हो चुका है।
किस्सा भारत के चौथे राष्ट्रपति बने श्री वीवी गिरि से जुड़ा है। हुआ यूं था कि 24 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं। मोरारजी देसाई उनकी सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका में थे, लिहाजा वे बड़े फैसलों में सदैव श्री देसाई से सलाह-मशविरा करतीं।
श्रीमती गांधी के कार्यकाल के दौरान 3 मई 1969 को तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की असमय मृत्यु हो गई। इससे यह संकट आ खड़ा हुआ कि ‘नया राष्ट्रपति किसे बनाया जाए ?’ कांग्रेस की सबसे ताकतवर नेता होने के नाते यह फैसला एक तरह से इंदिरा गांधी को ही लेना था। तब इंदिरा ने मोरारजी देसाई को गोपनीय चर्चा के लिए बुलवाया और पूछा कि – ‘आपकी राय में किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए?’ इस पर श्री देसाई चुप रहे।
दरअसल, देसाई मन ही मन चाहते थे कि ‘क्यों न इस पद के लिए उन्हीं का नाम प्रस्तावित हो ! ऐसे में यदि वे किसी का भी नाम प्रस्तावित नहीं करेंगे तो विकल्प के अभाव में इंदिराजी उन्हीं के नाम को आगे कर सकती हैं।’ मगर मंझी हुई राजनीतिज्ञ इंदिरा गांधी श्री देसाई की मंशा समझ गईं और उन्होंने तुरंत एक अन्य कद्दावर नेता वीवी गिरि के नाम पर राय पूछी।
श्री गिरि का नाम सुनते ही देसाई लगभग नाराजगी के स्वर में बोले – ‘उन्हें तो सपरिवार घूमने का शौक है। जहां भी जाते हैं, परिवार को साथ ले जाते हैं। इससे उनकी बड़ी आलोचना होती है। इसलिए उन्हें तो किसी भी सूरत में राष्ट्रपति नहीं बनाना चाहिए।’ इंदिरा गांधी गिरि के नाम पर श्री देसाई की खीझ को ताड़ गईं। अंततः श्री गिरि का ही नाम राष्ट्रपति पद के लिए तय हुआ।