राजीव गोयल
कोविड के पहले ही देश की न्याय व्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं थी। अपने देश में 73 प्रतिशत आपराधिक
मामलों में निर्णय आने में एक वर्ष से अधिक का समय लग रहा था। इसके सामने आस्ट्रेलिया में केवल 4 प्रतिशत
आपराधिक मामले एक वर्ष से अधिक अवधि में निर्णय किए जाते हैं। शेष 96 प्रतिशत मामले एक वर्ष से कम में
तय कर दिए जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि 73 और 4 प्रतिशत का फासला बहुत गहरा है। हमारी यह
दुरूह परिस्थिति तब थी जब कोविड के पहले हमारे न्यायालयों में लंबित वादों की संख्या में विशेष वृद्धि नहीं हो
रही थी। वर्ष 2019 में 1.16 लाख वाद प्रतिमाह दायर किए गए थे जबकि 1.10 लाख वाद प्रतिमाह में निर्णय दिए
गए। लंबित वादों की संख्या में प्रति वर्ष केवल 6 हजार की वृद्धि हो रही थी। कोविड के समय अप्रैल 2020 में 83
हजार नए वाद दायर किए गए जबकि निर्णय केवल 35 हजार का हुआ, यानी 48 हजार नए वाद लंबित रह गए।
स्पष्ट है कि कोविड के समय हमारी न्याय व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। न्याय में देरी का आर्थिक विकास पर
कई प्रकार से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पहला यह कि तमाम पूंजी अनुत्पादक रह जाती है। जैसे मेरी जानकारी में
किसी फैक्टरी की भूमि का विवाद था। हाई कोर्ट में उस विवाद पर निर्णय आने में 25 वर्ष का समय लग गया।
इसके बाद जो पक्ष हारा, उसने पुनर्विचार याचिका दायर कर दी। पुनर्विचार याचिका पर निर्णय आने के बाद सुप्रीम
कोर्ट में वाद दायर किया। 40 वर्ष की लंबी अवधि में देश की वह पूंजी अनुत्पादक बनी रही और देश के जीडीपी में
इसका योगदान नहीं हो सका। इसी क्रम में विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि न्याय में देरी से भारत की जीडीपी
में 0.5 प्रतिशत की गिरावट आती है, जबकि इंस्टिट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पीस ने अनुमान लगाया है कि
आपराधिक मामलों में न्याय में देरी होने से अपराधियों में हिंसा बढ़ती है और जिसके कारण हमारे जीडीपी में 9
प्रतिशत की गिरावट आती है। जब न्याय शीघ्र नहीं मिलता तो गलत कार्य करने वालों को बल मिलता है। जैसे
यदि किसी किराएदार को मकान खाली करना था और उसने नहीं किया। यदि मकान मालिक कोर्ट में गया और उस
वाद में 10 साल लग गए तो किराएदार को कमरा न खाली करने का प्रोत्साहन मिलता है। वह समझता है कि कोर्ट
से निर्णय आने में बहुत देरी लग जाएगी और तब तक वह गैर कानूनी आनंद मनाता रहेगा। न्याय में देरी से
अपराधियों का मनोबल बढ़ता है जिससे पुनः आर्थिक विकास प्रभावित होता है। न्याय व्यवस्था के खस्ताहाल का
एक परिणाम है कि अपने देश से कम से कम 5 हजार अमीर व्यक्ति हर वर्ष अपनी संपूर्ण पूंजी को लेकर पलायन
कर रहे हैं। देश का सामाजिक वातावरण उनके लिए अनुकूल नहीं है, चूंकि अपराधी निरंकुश हैं और इसका एक
मुख्य कारण न्याय वयवस्था की दुरूह स्थिति है। इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट और सरकार द्वारा चार कदम उठाए
जा सकते हैं। पहला कदम यह कि सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट में वर्तमान में 1079 पदों में से 403 यानी 37
प्रतिशत पद रिक्त हैं। मेरी जानकारी में इसका कारण मुख्यतः न्यायाधीशों की अकर्मण्यता अथवा आलस्य है
क्योंकि वे पर्याप्त संख्या में जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव सरकार को नहीं भेज रहे हैं। नियुक्तियों में भाई-
भतीजावाद भी सर्वविदित है।
जज के पद पर जजों के परिजनों की नियुक्ति अधिक संख्या में होती है। संभव है कि मुख्य न्यायाधीशों द्वारा
पर्याप्त संख्या में नियुक्ति के प्रस्ताव न भेजने का यह भी एक कारण हो। सुप्रीम कोर्ट को इस दिशा में हाई कोर्ट
के मुख्य न्यायाधीशों को सख्त आदेश देना चाहिए कि पद रिक्त होने के 3 या 6 महीने पहले ही पर्याप्त संख्या में
नियुक्ति की संस्तुतियां भेज दी जानी चाहिए। दूसरा कदम यह कि कोर्ट के कार्य दिवस की संख्या में वृद्धि की
जाए। एक गणना के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में एक वर्ष में 189 दिन के कार्यदिवस होते हैं। हाईकोर्ट में 232 दिन के
और निचली अदालतों में 244 दिन। इसकी तुलना में सामान्य सरकारी कर्मचारी को लगभग 280 दिन कार्य करना
होता है। देश के आम मजदूर को संभवतः 340 दिन कार्य करना होता है। सेवित मजदूर 340 दिन कार्य करे और
उन्हें न्याय दिलाने के लिए नियुक्त न्यायाधीश केवल 189 दिन कार्य करें, यह कैसा न्याय है? सुप्रीम कोर्ट और
हाई कोर्ट के जज घर पर अवकाश ग्रहण करें और आपराधिक मामलों में निरपराध लोग जेल में बंद रहें, यह कैसा
न्याय है? मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर अपने कार्य दिवसों में वृद्धि करनी चाहिए क्योंकि
जनता को न्याय उपलब्ध कराने की प्राथमिक जिम्मेदारी उन्हीं की है। तीसरा कदम यह कि अनावश्यक तारीख न
दी जाए। जजों और वकीलों का एक अपवित्र गठबंधन बन गया है। अधिकतर वादों में वकीलों द्वारा हर सुनवाई की
अलग फीस ली जाती है, इसलिए जितनी बार सुनवाई स्थगित हो और जितनी देर से कोर्ट द्वारा निर्णय लिया
जाए, उतना ही वकीलों के लिए हितकर होता है। अधिकतर वकील ही जज बनते हैं।
अपनी बिरादरी के हितों की वे रक्षा करते हैं। एक वाद में हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि 6 माह में वाद का
निस्तारण किया जाए। इसके बाद भी 4 साल में निर्णय आया। अब जिला जज के विरुद्ध क्या मुवक्किल हाई कोर्ट
में मुकदमा करेगा? इस गठबंधन को तोड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट को आदेश देना चाहिए कि किसी भी मामले में
कोई वकील एक बार से अधिक तारीख नहीं ले। इसकी मिसाल स्वयं सुप्रीम कोर्ट को पेश करनी चाहिए। चौथा
कदम यह कि वर्चुअल हियरिंग को बढ़ावा दिया जाए। इससे दूर क्षेत्रों में स्थित वकीलों के लिए मामले की पैरवी
करना आसान हो जाएगा। हाल में सेंट्रल इनफार्मेशन कमीशन एवं उत्तराखंड इनफार्मेशन कमीशन द्वारा मेरी सुनवाई
टेलीफोन पर की गई। बहुत राहत मिली। वर्चुअल हियरिंग की जानकारी जनता को देनी चाहिए। हमारे कानून में
किसी भी वादी को स्वयं अपने मामले में दलील देने का अधिकार है। मैंने स्वयं अपने वादों की पैरवी की है।
वर्चुअल हियरिंग के माध्यम से वादी स्वयं अपने वाद की पैरवी आसानी से कर सकता है। वर्चुअल हियरिंग का
वकीलों द्वारा विरोध किया जा रहा है जो कि उचित नहीं दिखता है। इतना सही है कि आज के दिन लगभग आधे
वकीलों के पास लैपटॉप नहीं होगा, लेकिन कोविड की स्थिति को देखते हुए और जनता को त्वरित न्याय उपलब्ध
कराने की उनकी जिम्मेदारी को देखते हुए उनके लिए लैपटॉप पर कार्य करने को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।