विकास गुप्ता
देश में प्रदूषण का स्तर बढ़ता ही जा रहा है। हालत यह है कि इसे मापने का पैमाना छोटा पड़ रहा है। खासकर
वायु प्रदूषण के मामले में तो पूरी दुनिया में भारत की स्थिति काफी खराब है। उत्तर भारत के कई इलाके गैस चैंबर
में तब्दील होते जा रहे हैं। इसीलिए इस बार के बजट से काफी उम्मीद लगाई गई थीं कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए
बजट में कुछ बड़ा प्रावधान किया जाएगा। यह उम्मीद और ज्यादा इसलिए भी थी, क्योंकि सरकार ने पिछले साल
ही राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू किया गया था। देश में दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों की
संख्या 84 है। विशेषज्ञों का अनुमान यह है कि एक शहर में प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम के लिए औसतन साढ़े
तीन हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। इस लिहाज से सालाना बजट की 4400 करोड़ रुपए की रकम दो
शहरों के लिए भी काफी नहीं है। हालांकि एनसीएसी के तहत 122 शहर चिन्हित किए गए थे। यानी इस बार के
बजट में एलान किए गए दस लाख आबादी से छोटे शहर नजर से बाहर हो गए हैं। फिर भी प्रदूषण के मोर्चे पर
खर्च के लिए धन की कमी के कारण कुछ न होने से तो इतना होना भी बहुत माना जाएगा। दुनिया में प्रदूषण से
सबसे ज्यादा मौतों वाले देशों की सूची में भारत सबसे ऊपर है। ग्लोबल अलांयस ऑन हेल्थ एंड पॉल्युशन ने यह
रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं
भागीदार हैं। प्रदूषण और स्वास्थ्य पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ने इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स
इवेल्यूएशन के आंकड़े इस्तेमाल करते हुए बताया है कि हर साल सभी प्रकार के प्रदूषण से पूरी दुनिया में 83 लाख
लोग मर रहे हैं। किसी भी बीमारी या प्राकृतिक आपदा से होने वाली मौतों की तुलना में यह आंकड़ा सबसे बड़ा है।
आज दुनिया में एचआइवी, टीबी और मलेरिया से होने वाली मौतों की तुलना में प्रदूषण से होने वाली मौतें तीन
गुना ज्यादा हैं। युद्ध और दूसरी तरह की हिंसा में होने वाली मौतों की तुलना में यह आंकड़ा करीब 15 गुना
ज्यादा है। रिपोर्ट में प्रदूषण के विभिन्न रूपों का भी ब्योरा है। इससे यह पता चलता है कि सबसे भयावह हालत
वायु प्रदूषण की है। इससे दुनिया में हर साल करीब 50 लाख लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य
संगठन के मुताबिक वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा 70 लाख है। ऐसे में जरूरत फौरन युद्धस्तर पर
काम करने की है। भारत इस समय चौतरफा प्रदूषण की आपात स्थिति में है। वायु प्रदूषण चरम पर है। जल और
जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधन भी व्यापक रूप से प्रदूषित हो रहे है। खासतौर पर देश में जल संसाधन जिस तरह
कम पड़ता जा रहा है, उसमें सीमित जल का प्रदूषित होते जाना बड़े संकट का संकेत है। उधर, उत्पादकता बढ़ाने
की होड़ में कीटनाशकों और अंधाधुंध रासायनिक खाद का इस्तेमाल अब पूरी खाद्य शृंखला को जहरीला बना रहा
है।
कुछ समय पहले ही भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के सर्वेक्षण में देश भर से उठाए गए दूध के
नमूनों में एफलोटॉक्सिन नाम का खतरनाक पदार्थ हद से ज्यादा पाया गया था। ऐसे में प्रदूषण से मौतों के मामले
में भारत को शीर्ष पर रखे जाने पर हैरत नहीं होनी चाहिए। भारत ने पेरिस समझौते के तहत 40 फीसद ऊर्जा
उत्पादन गैर जीवाश्म ईंधन से करने का लक्ष्य बनाया था। यही नहीं, इस समझौते के तहत यह तय किया गया था
कि कार्बन उत्सर्जन तीव्रता 2005 की तुलना में 2030 तक 35 फीसद तक कम करेंगे। वन क्षेत्र बढ़ाने और
वृक्षारोपण जैसे कई उपायों को लागू करने पर भी भारत विभिन्न मंचों पर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुका है,
लेकिन इन कामों को करने में हमेशा ही पैसे की कमी आड़े आती रही। इस बार के बजट में वायु प्रदूषण के मद में
तय 4400 करोड़ की रकम स्वच्छ ऊर्जा और स्वच्छ ईंधन जैसे उपायों के लिए भले ही नाकाफी लगे, लेकिन इससे
प्रदूषण पर निगरानी का काम जरूर बढ़ाया जा सकता है। लेकिन यह काम अकेले सरकार या किसी संस्था के
भरोसे मुमकिन नहीं है। जब तक हम अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे तब तक प्रदूषण की समस्या का समाधान
होने की उम्मीद नहीं है।