अर्पित गुप्ता
लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हम कई साधनों का सहारा लेते हैं। बातचीत, भाषण, चिट्ठी, ईमेल, वीडियो
आदि। इन सब साधनों में अब सोशल मीडिया भी जुड़ गया है। व्यावसायिक संस्थान और सरकारें इसके लिए इन
सब साधनों के अलावा विज्ञापन और जनसंपर्क का भी सहारा लेती हैं। पेशेवर बातचीत में विज्ञापन को ‘पेड मीडिया’
कहा जाता है, यानी मीडिया संस्थानों द्वारा प्रसारित या प्रकाशित ऐसी कोई खबर, लेख, फीचर या सूचना जिसके
लिए भुगतान किया गया हो, और जनसंपर्क को ‘अर्न्ड मीडिया’ कहा जाता है जिसका अर्थ है कि संबंधित खबर,
लेख, फीचर या सूचना के प्रकाशन अथवा प्रसारण के लिए मीडिया संस्थान को कोई भुगतान नहीं किया गया है।
इन सब साधनों के उपयोग से लोगों तक संबंधित सूचनाएं पहुंचती हैं, और जो लोग उनसे प्रभावित होते हैं उनमें से
बहुत से लोग उस पर अमल भी करते हैं या उसे अपने जीवन में अपनाते हैं। मनोविज्ञान कहता है कि अगर हमारे
सामने कुछ ऐसे तथ्य हों जो हमारी स्थापित विचारधारा से अलग हों तो तथ्यों के बावजूद हमारी पहली कोशिश
यह होती है कि हम अपने स्थापित विश्वासों को सही सिद्ध करने का प्रमाण ढूंढने में जुट जाएं। यानी, हम तथ्य
सामने होने पर भी आसानी से अपना मन बदलने के लिए तैयार नहीं होते।
शोध से यह साबित हुआ है कि न्यूनतम बुद्धि वाले किसी व्यक्ति को भी सबसे कठिन बात समझाई जा सकती है
बशर्ते कि उसने उस विषय पर पहले से कोई मत न बना रखा हो, लेकिन किसी ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति को
बिलकुल नहीं समझाया जा सकता यदि उसने उस विषय पर अपना मत पहले ही निर्धारित कर रखा हो। चाहे उसके
सामने कितने ही तथ्य पेश किए जाएं, चाहे हमारे तर्क अकाट्य हों, पर हम ऐसे व्यक्ति के विचार नहीं बदल सकते
जो पूर्वाग्रह ग्रस्त है। विचार नहीं बदलते, तथ्यों के बावजूद नहीं बदलते क्योंकि हमारा मस्तिष्क नए तथ्यों को
स्वीकार ही नहीं करता। एक ऐसा व्यक्ति जिससे हम अक्सर असहमत रहते हों, या ऐसा व्यक्ति जो हमें पसंद न
हो, वह कोई ऐसा तथ्य हमारे सामने लेकर आए जो हमारे पुराने विश्वासों पर खरा न उतरता हो तो हम बिना
किसी विश्लेषण के उस तथ्य को अस्वीकार कर देंगे, इसलिए नहीं कि वह तथ्य, तथ्य नहीं था, बल्कि इसलिए कि
नया तथ्य बताने वाला वह व्यक्ति हमारे विचार में हमारे अनुरूप नहीं था। लेकिन वही तथ्य अगर कोई ऐसा
व्यक्ति बताए जो हमें बहुत पसंद है तो हम अपना विचार बदलने में ज्यादा देर नहीं लगाते। यहां तक कि कोई
ऐसा व्यक्ति जो हमारे लिए अनजान है, लेकिन हम उसे नापसंद नहीं करते तो उसके बताए किसी ऐसे तथ्य को
हम स्वीकार कर सकते हैं जो हमारे स्थापित विश्वास से मेल न खाता हो। इसका मतलब है कि हमारे रिश्तों में,
हमारी पसंद-नापसंद पर निर्भर करता है कि हम किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा सामने लाए गए किसी नए तथ्य को
स्वीकार करेंगे या नहीं करेंगे। सच यही है कि अक्सर तथ्य हमारे विचार नहीं बदलते, बल्कि किसी व्यक्ति पर
हमारा विश्वास यह तय करता है कि हम अपने विचार बदलेंगे या नहीं, यानी हमारे विचार बदलने में सच की
भूमिका वैसी नहीं है जो भूमिका सामने वाले व्यक्ति के प्रति हमारे विश्वास की है।
सच समझाना हो, विचार बदलवाने हों तो हमें पहले सामने वाले व्यक्ति का विश्वास जीतना होगा। हमारे जीवन पर
इसका स्पष्ट प्रभाव है। हम अक्सर सारे तथ्यों के बावजूद कई बार अपने सहकर्मियों अथवा प्रियजनों को कोई बात
नहीं समझा पाते। सारे प्रयत्नों के बावजूद हम ऐसा नहीं कर पाते। हाल ही में खुद मेरे साथ एक ऐसी घटना घटी
जिसने मेरी सोच को एक नया आयाम दिया। एक नवविवाहित दंपत्ति आपस में बहुत लड़ते-झगड़ते थे। रोज़-रोज़ की
चख-चख से परेशान पति गुस्से में घर से बाहर चला जाता था और बीवी घर में बैठी रोती रह जाती थी। दोनों दुखी
थे। लड़के की मां ने दोनों को समझाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इसी वर्ष 3 मई को एक
अनपेक्षित घटना घटी। बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स ने ट्वीट करके दुनिया को अपनी शादी टूटने की सूचना दी।
सत्ताइस साल पुरानी शादी का यूं टूटना सबके लिए आश्चर्य का विषय था। मैंने अपने ढंग से इस मामले की
व्याख्या की और मेरे यूट्यूब चैनल पर इसका वीडियो ‘तोल-मोल के बोल’ बहुत लोकप्रिय हुआ। इस वीडियो का
जि़क्र करना इसलिए आवश्यक है कि लड़के की माताजी ने मेरे उस वीडियो का लिंक अपनी बहू को भेजा, बहू ने
वीडियो देखा, फिर अपने पति को दिखाया। दोनों ने मेरे उस वीडियो को कई बार देखा और दोनों ने अपना-अपना
व्यवहार बदल लिया। अब वे दोनों बहुत खुश हैं। मुझे धन्यवाद करते हुए लंबी ईमेल भेजी तो मुझे इस सारे किस्से
की जानकारी हुई। इस सारे किस्से की सीख यह है कि अगर कभी हम अपने किसी प्रियजन को अपनी बात नहीं
समझा पा रहे तो हमें किसी ऐसे साधन की तलाश करनी चाहिए जिसमें वही बात किसी अन्य उपदेशक ने ज्यादा
अच्छे ढंग से कही हो। वह चाहे कोई समाचार हो, लेख हो या वीडियो हो। यही कारण है कि मेरे एक वीडियो ने
एक शादी टूटने से बचा दी। बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स ने माइक्रोसॉफ्ट जैसी दैत्याकार कंपनी का नेतृत्व किया
है। लोगों को समझना और उन्हें अपनी बात समझाना उन्हें खूब आता है। इसके बावजूद वे अपने जीवन साथी को
ही अपनी बात नहीं समझा पाए। इसका एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है।
जब हम अपने किसी कर्मचारी से बात करते हैं, वरिष्ठ अधिकारी से बात करते हैं, ग्राहक से बात करते हैं या किसी
अनजान व्यक्ति से बात करते हैं तो हम औपचारिकता का ध्यान रखते हैं। आपसी रिश्तों में औपचारिकता की
आवश्यकता नहीं महसूस होती और अक्सर हम जाने-अनजाने अपने साथी की भावनाएं आहत कर बैठते हैं, और
ऐसा जब लंबे समय तक चलता है तो कहानी तलाक पर जाकर खत्म होती है। अक्सर हम यह नहीं समझ पाते कि
सामने वाले को हमारे शब्दों से भी ज्यादा चोट हमारी टोन और हमारे हाव-भाव ने पहुंचाई है। यह एक वैज्ञानिक
तथ्य है कि हमारे शब्दों से भी कहीं ज्यादा फर्क इस बात से पड़ता है कि बोलते समय हमारी टोन कैसी थी, उसमें
व्यंग्य था, गुस्सा था, हिकारत थी या प्यार था। अफसोस की बात यह है कि आपसी रिश्तों में हम इसी बात का
ध्यान नहीं रखते और स्थिति विस्फोटक होती चलती है, परिणामस्वरूप जब ज्वालामुखी फटता है तो सारा लावा
बाहर निकलता है और रिश्ते चटक जाते हैं। कोई सीख भी तभी असर करती है जब वह किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा
दी जाए जिस पर हमें विश्वास हो, या कम से कम अविश्वास तो न ही हो। यहां कोई गुणा-भाग नहीं चलता, गणित
नहीं चलता, भावनाएं चलती हैं। इसलिए हमारी हरचंद कोशिश यह होनी चाहिए कि हमारा विश्वास बना रहे ताकि
रिश्तों की गर्मी बरकरार रहे और जीवन भी शांतिपूर्ण हो।