शिशिर गुप्ता
संयुक्त राष्ट्र एक वैश्विक मंच है, जो आपसी सहमति और लोकतांत्रिक मूल्यों का संबोधन-स्थल है। आज के दौर में
विश्व के अधिकतर राष्ट्र, बेशक सुपर अमीर हो या कोई पिछड़ा, गरीब देश, सभी समान हैं और एक कुटुम्ब की
तरह व्यवहार करते हैं। ऐसे परिदृश्य में अफगानिस्तान के तालिबान अमानवीय, असैन्य और आतंकवादी हैं। वे सेना
और सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय मानकों को न तो जानते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। वे 21वीं सदी में भी
‘जंगली’ हैं और कबीलों के प्राचीन संघर्षों की तर्ज पर सिर्फ मारना-काटना ही जानते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण और नैतिक
सवाल तो अमरीका पर है कि उसने अपनी सेनाएं अफगानिस्तान में क्यों भेजी थीं? यदि अलकायदा और उसके
तालिबान लड़ाकों का सूपड़ा साफ करना था, तो वह क्यों नहीं कर पाया? अमरीका ने अफगानिस्तान में एक
समानांतर सेना को प्रशिक्षित कर स्थापित क्यों नहीं किया? अमरीका ने अफगानिस्तान में तालिबान को जि़ंदा क्यों
रहने दिया और आज वे गाजर-मूली की तरह लोगों को काट रहे हैं?
पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश तक ने अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की वापसी पर टिप्पणी की है कि
तालिबान द्वारा लोगों को मार दिए जाने के लिए अफगानिस्तान को अकेला छोड़ दिया गया है। यह बहुत बड़ी
गलती की गई है। बहरहाल तालिबान ने 70 फीसदी से ज्यादा अफगान इलाकों पर कब्जे कर लिए हैं। साउथ कंधार
में एक अहम व्यापारिक मार्ग पर भी कब्जा कर लिया है। यह मार्ग चमन और कंधार को जोड़ता है। पाकिस्तान
और अफगान के बीच का यह इतना अहम मार्ग है कि रोज़ाना सामान से लदे करीब 900 ट्रक ईरान समेत मध्य
एशिया के देशों में जाते हैं। कब्जे के बाद शुल्क और राजस्व तालिबान के हाथों ही जाएगा। हालांकि अफगान
हुकूमत ने ऐसे कब्जे का खंडन किया है। सबसे खौफनाक और अनैतिक दृश्य तब सामने आया, जब आत्मसमर्पण
कर चुके 22 अफगान कमांडो और सैनिकों को तालिबान के आतंकियों ने सरेआम गोलियों से भून दिया। पाकिस्तान
के खैबर पख्तून इलाके में हमले कर फौजियों को मार डाला। क्वेटा में मुख्यमंत्री दफ्तर पर तालिबानों ने जुलूस
निकाला, लिहाजा पाकिस्तान को अपना बॉर्डर बंद करना पड़ा है। पाकिस्तान के लिए भी तालिबान ‘भस्मासुर’
साबित हो रहे हैं। एक बस पर विस्फोटक हमला किया गया, जिसमें 9 चीनी इंजीनियरों समेत 13 मारे गए। कई
ज़ख्मी भी हुए हैं। क्या ‘सुपर पॉवर’ चीन भी तालिबान के ऐसे हमलों को झेलता रहेगा? एक अमरीकी सेना ही तो
लौट रही है, उसके अलावा रूस, चीन, भारत, तजाकिस्तान, पाकिस्तान सरीखे कई और देश ऐसी हिंसा और बर्बरता
के मूकदर्शक बने रहेंगे क्या? हालांकि तजाकिस्तान के दुशांबे में शंघाई सहयोग संगठन के देशों के विदेश मंत्रियों
की बैठक हुई है।
अफगानिस्तान की सुरक्षा, शांति, जन-स्वास्थ्य और आर्थिक सुधार जैसे मुद्दे प्राथमिक रहे। भारत के विदेश मंत्री
एस.जयशंकर ने साफ कहा कि अफगानिस्तान का भविष्य उसका अतीत नहीं हो सकता। दुनिया हिंसा और बल
द्वारा सत्ता हथियाने के खिलाफ है। भारत का बहुत कुछ दांव पर है। भारत ने खंडहर हो चुके अफगानिस्तान में
अभी तक 3 अरब डॉलर का निवेश किया है। अफगान का संसद भवन हमने बनाया है। योजना आयोग को स्थापित
किया है। एक बड़े बांध का निर्माण कराया जा रहा था। अफगानिस्तान के पुनरोत्थान और नए निर्माण में भारत की
भूमिका और योगदान बेहद अहम हैं। तालिबान बुनियादी तौर पर आतंकवादी हैं। उनकी पिछली हुकूमत का मुखिया
मुल्ला उमर था, जो अलकायदा के संस्थापक सरगना ओसामा बिन लादेन का दामाद था। एक अमरीकी हवाई हमले
में वह मारा गया था। तालिबान का मानस आज भी आतंकवादी रहा है और उसकी बर्बरताओं के जरिए वह साफ
दिख भी रहा है। क्या ये आतंकी इतने ताकतवर और हथियारबंद हैं कि रूस, चीन और भारत सरीखे देश उन पर
पलटवार कर उनका सफाया नहीं कर सकते? यह चुनौती संयुक्त राष्ट्र के लिए भी है। अमरीका को अपनी शेष सेना
की वापसी पर पुनर्विचार करना चाहिए। वैसे अमरीकी सेना जिस भी देश में गई है, वहां से नाकामी लेकर ही लौटी
है, लिहाजा अब अमरीका को दादागीरी से भी बाज आ जाना चाहिए।