भारत में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान पश्चिमी मीडिया का दोगलापन सामने आया

asiakhabar.com | July 16, 2021 | 5:33 pm IST

अर्पित गुप्ता

कोविड-19 की वैश्विक आपदा ने भारत के विरुद्ध पश्चिमी मीडिया के दुराग्रह को पूरी प्रामाणिकता के साथ पुनः
बेनकाब कर दिया है। सच्चाई और जवाबदेही के युग्म से पत्रकारिता के आदर्श का खंब ठोकने वाला पश्चिमी
मीडिया स्वयं किस हद दर्जे के दोहरे मापदंड पर जिंदा है यह कोरोना की दूसरी लहर से जुड़ी भारत सबंधी रिपोर्टों
से स्वयंसिद्ध होता है। खास बात यह है कि इस दोहरे आचरण की कड़ियाँ अब आम भारतीय भी प्रामाणिकता के
धरातल पर पकड़ना सीख गया है। भारतीय जनसंचार संस्थान के एक ऑनलाइन सर्वेक्षण एवं शोध के नतीजे बताते
हैं कि भारत में अधिसंख्य चेतन लोग इस बात को समझ रहे हैं कि यूरोप, अमेरिका और अन्य देशों की मीडिया
एजेंसियों ने कोरोना को लेकर अतिरंजित, गैर जिम्मेदाराना और दहशतमूलक खबरें प्रकाशित कीं। इन खबरों के मूल
में भारत के प्रति एक औपनिवेशिक मानसिकता भी इस दरमियान किसी दीवार पर मोटे हरूफ में लिखी इबारत की
तरह पढ़ी जा सकती है।
आईआईएमसी के महानिदेशक संजय द्विवेदी की पहल पर देश के शीर्ष एवं मैदानी मीडियाजनों, बुद्धिजीवियों की
राय को समाहित करता यह विश्वसनीय सर्वे समवेत रूप से विदेशी मीडिया संस्थानों खासकर बीबीसी, द
इकोनोमिस्ट, द गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और सीएनएन की पक्षपातपूर्ण, झूठी रिपोर्टिंग को
आमजन की दृष्टि में भी कठघरे में खड़ा कर रहा है। कोविड-19 को लेकर भारत से जुड़ी रिपोर्टस के दुराग्रह को
समझने से पहले हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि इन मीडिया संस्थानों ने हमारे देश के प्रति एक
प्रायोजित बैर भाव बनाया हुआ है खासकर नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने लिए भारतीय संवाददाता हेतु जारी किए गए विज्ञापन में जिन अहर्ताओं का उल्लेख किया
उससे इस तथ्य को स्वंयसिद्धि हासिल होती है कि पश्चिमी मीडिया किस दोगलेपन और सुपारी मानसिकता के
साथ भारत की तस्वीर अपने प्रकाशनों के साथ दुनिया में पेश करना चाहता है। जाहिर है पत्रकारिता के नैतिक
मापदंडों पर जन्मना दोहरेपन का शिकार पश्चिमी मीडिया कोविड-19 को लेकर कैसे निष्पक्षता औऱ ईमानदारी का
अवलंबन कर पाता। आईआईएमसी के सर्वेक्षण और शोध-विमर्श से एक बात और स्पष्ट होती है कि पश्चिमी जगत
आज भी हमारे देश की छवि सांप सपेरे, जादू टोने वाले देश से बाहर मानने के लिए तैयार नहीं है।
70 के दशक की तीसरी दुनिया या अल्पविकसित देशों में भारत को पिछड़ा देश माना जाता था उसी अधिमान्यता
पर पश्चिमी बौद्धिक जगत आज भी खड़ा हुआ है। चंद्रयान और गगनयान जैसे विज्ञान और तकनीकी सम्पन्न
नवाचार हों या फार्मा इंडस्ट्री में हमारी बादशाहत, पश्चिम इसे मान्यता देने को आज भी राजी नहीं है। कोरोना की

पहली लहर में जिस प्रामाणिकता से हमने दुनिया के सामने मिसाल पेश की उसका कोई सकारात्मक उल्लेख विदेशी
मीडिया संस्थानों में नजर नहीं आया। इस दौर में ब्रिटेन, अमेरिका, स्पेन, इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया जैसे धनीमानी
राष्ट्र पस्त हो चुके थे। इस नाकामी को प्रमुखता से उठाने की जगह इन मीडिया हाउस ने भारत में प्रवासी मजदूरों
को पहले पन्ने पर जगह दी। तब जबकि डब्लूएचओ भारतीय कोविड प्रबंधन मॉडल को सराहा रहा था।
कोविड की दूसरी लहर ने भारत में अप्रत्याशित रूप से व्यापक जनहानि की परिस्थिति निर्मित की इससे इनकार
नहीं किया जा सकता है लेकिन इस दूसरी लहर में मानो पश्चिमी मीडिया को भारत के विरुद्ध आपदा में अवसर
मिल गया हो। इस दौरान बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे संस्थानों ने अस्पतालों, श्मशानों से लेकर
गंगा में जलदाह से जुड़ी अतिरंजित, डरावनी और भयादोहित करने वाली रिपोर्ट प्रकाशित की है। इन खबरों से यह
साबित होता है कि पश्चिमी मीडिया किस हद दर्जे की दुराग्रही, दोहरी एवं औपनिवेशिक मानसिकता की ग्रन्थि से
पीड़ित है।
अमेरिका में जब 9/11 की आतंकी घटना हुई थी तब न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और बीबीसी ने खून का
एक कतरा भी नहीं दिखाने का निर्णय लिया था। तर्क यह दिया गया कि सच्चाई और जवाबदेही मिलकर पत्रकारिता
को निष्पक्ष बनाते हैं इसलिए मृतकों के परिजनों के प्रति जवाबदेही और समाज को भयादोहित होने से बचाने के
लिए ऐसा किया जा रहा है। भारत का मामला बनते ही यह जवाबदेही और निष्पक्षता खूंटी पर टांग दी गई। हमारे
लोकजीवन में भी अंतिम संस्कार एक बेहद ही संवेदनशील मामला होता है। क्या जिन तस्वीरों को विदेशी अखबारों
ने पहले पन्ने पर जलती लाशों या जलदाह के रूप में छापा वह जवाबदेही के आदर्श पर खरी कही जा सकती थीं?
एक विदेशी फोटो एजेंसी ने तो भारत में अंतिम संस्कार की तस्वीरों को बाकायदा 23 हजार की बोली लगाकर बेचा
है।
आईआईएमसी का शोध बताता है कि कोविड-19 के मामले में मार्च 2020 से जून 2021 के मध्य करीब 700
रिपोर्टस गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी, अल जजीरा, फॉक्स न्यूज, न्यूयार्क टाइम्स, द इकोनोमिस्ट, सीएनएन
जैसे संस्थानों में छपी हैं। यह सभी खबरें भारतीय समाज में भय निर्मित करने वाली, अतिरंजित, अनावश्यक
आलोचनाओं एवं मैदानी तथ्यों से परे थीं। यानी जिस जवाबदेही और सच्चाई के युग्म की बातें पश्चिमी मीडिया
द्वारा अपने देशों में रिपोर्टिंग के लिए कही जातीं हैं वे भारत के मामले में खुद के ऊपर लागू नही की गईं। शरारती
मानसिकता के उद्देश्य से दूसरी लहर में संक्रमितों एवं मृतकों के आंकड़े हेडलाइन में सजाए गए। बीबीसी की कुल
रिपोर्टस में से 98 फीसदी समाज को भयादोहित और उपचार प्रविधियों से लेकर वेक्सिनेशन के प्रति समाज में भ्रम
फैलाने वाली रही हैं।
संक्रमितों के आंकड़े बड़ी चालाकी से बदनामी के उद्देश्य से पेश किए गए मसलन 7 सितंबर 2020 को बीबीसी ने
हैडिंग लगाई "भारत ने ब्राजील को पछाड़ा"। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत की आबादी ब्राजील से छह
गुना है। यानी हमारी कुल आबादी के तथ्य को दरकिनार कर दहशत फैलाने में बीबीसी जैसे मीडिया हाउस अग्रणी
रहे। यूरोप में कुल 48 देश हैं जहां साढ़े पांच करोड़ लोग कोविड से संक्रमित हुए और अब तक करीब 11 लाख
लोगों की मौत हो चुकी हैं। इन सभी 48 देशों की आबादी मिलाकर 75 करोड़ है। उत्तरी अमेरिका के 39 मुल्कों को
मिला दिया जाए तो इन 87 देशों की सम्मिलित आबादी 134 करोड़ होती है। यानी दुनिया के 87 देशों से अधिक
लोग भारत में रहते हैं इसके बावजूद संक्रमित और मृतकों की संख्या इन देशों से आज भी हमारे यहां कम है।

27 अप्रैल को वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा "भारत में लगातार छठवें दिन संक्रमितों का आंकड़ा तीन लाख पार"
कुछ समय बाद बीबीसी ने लिखा "भारत ने इटली को पछाड़ा"
बीबीसी ने एक और रिपोर्ट में कहा कि "20 लाख संक्रमितों के साथ भारत दुनिया में तीसरे नम्बर पर आया"
इस तरह की बीसियों रिपोर्टस में चालाकी से भारत की कुल आबादी के आधार को हटाकर उन मुल्कों से तुलना की
गई जो यूपी, बिहार, मप्र जैसे राज्यों से भी छोटे हैं।
पांच राज्यों के नतीजों को अपनी दुराग्रही मानसिकता के साथ रिपोर्ट करते हुए वाशिंगटन पोस्ट ने यह खबर लगाई
की मोदी की भाजपा महामारी के वोट के बीच हार गई। यानी कोरोना और चुनावी नतीजों को एक साथ जोड़कर
मोदी के विरुद्ध प्लांट कर दिया गया। वाशिंगटन पोस्ट की एक स्टोरी में इस बात का खुलासा किया गया कि
भारत में गरीब आदमी अस्पतालों की लूट का शिकार हो रहा है जबकि तथ्य यह है कि सरकारी अस्पतालों में देश
भर में निःशुल्क इलाज हुआ है। जॉन हापकिंस यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में यह पाया गया कि अमेरिका में वहां
के नागरिकों से अस्पतालों ने 5 गुना अधिक शुल्क लिये हैं लेकिन किसी अमेरिकी मीडिया हाउस ने इसे जगह नहीं
दी। 87 देशों की आबादी को समेटे हुए विविधताओं से भरे भारत में किसी एक कोने की घटना को भी पश्चिमी
जगत ने सामान्यीकरण की तरह पेश करने में बेशर्मी की सीमाएं लांघ दीं।
बीबीसी, न्यूयार्क टाइम्स, अल जजीरा ने कोरोना माता की पूजा की खबर औऱ तस्वीरों को साझा किया जो देश के
किसी कोने में जनजातीय लोगों द्वारा की गई थी। कहीं गोबर शरीर पर लगाने की तस्वीरें प्रसारित की गईं। गंगा
के तटों पर लाशों के फोटो या मुक्तिधामों पर सामूहिक संस्कारों को ऐसे दिखाया गया मानो भारत में लाशों के
सिवाय कुछ भी अच्छा नहीं है। बेशक वह दुःखद और कल्पना से परे कालखंड था लेकिन यह भी सच है कि
अमेरिका, स्पेन, इटली, इंग्लैंड में भी इससे बुरे हालात थे लेकिन फरवरी 2020 से जुलाई 2021 तक अगर पश्चिमी
मीडिया हाउसों की कोविड से जुड़ी स्थानीय खबरों को सिलसिलेवार देखा जाये तो पत्रकारिता के एथिक्स के नाम पर
दोगला और दोहरापन स्वयंसिद्ध है। करीब 700 स्टोरीज को गहराई से विश्लेषित किया जाए तो हम पाते हैं कि
विदेशी मीडिया का यह स्थाई दुराग्रह भाव 15 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के उस ऐलान के बाद औऱ भी आक्रामक
हो गया जिसमें उन्होंने वैक्सीन उत्पादन और वेक्सिनेशन की कार्ययोजना का खाका दुनिया के सामने रखा था। यह
कोविड की पहली लहर पर मोदी के परिणामोन्मुखी प्रयासों को वैश्विक अधिमान्यता का दौर भी था। इस
आक्रामकता का आधार इसलिए भी बना क्योंकि तब तक यूरोप और उत्तरी अमेरिका के धनीमानी और सर्वोत्कृष्ठ
स्वास्थ्य सेवा तंत्र वाले मुल्क कोरोना से हाहाकार झेल रहे थे।
दुर्भाग्य से दूसरी लहर में भारतीय व्यवस्था और प्रशासन तंत्र लड़खड़ाया यह तथ्य है लेकिन यह भी समानान्तर
तथ्य था कि भारत संक्रमण और मौतों के मामले में जनसंख्या के पैरामीटर्स पर आज भी दुनिया में विकसित राष्ट्रों
से पीछे है। किसी मीडिया हाउस ने कभी यह नहीं बताया कि भारत में दुनिया का हर छठा आदमी निवास करता है
इसके बावजूद कोविड में भारतीय स्वास्थ्य तंत्र ने बहुत अच्छा काम भी किया है। इन पंक्तियों को लिखे जाने तक
भारत में प्रति मिलियन आबादी पर मौत का आंकड़ा 287 है वहीं रूस में यह समंक 2021, अमेरिका में 1857,
ब्रिटेन में 1899, इटली में 2025, पेरू में 5765, जर्मनी में 1012 और कनाडा में 649 दर्ज किया जा रहा है। इस
सांख्यिकीय सच्चाई को पूरी तरह से पश्चिमी मीडिया हाउस छिपाए हुए है। वस्तुतः भारतीय जनसंचार संस्थान के

महानिदेशक संजय द्विवेदी का यह शोध निष्कर्ष सामयिक ही है कि अब वक्त आ गया है कि भारत भी पश्चिमी
मीडिया के जवाब में ऐसे संस्थान खड़े करे जो इस प्रायोजित एजेंडे और प्रोपेगैंडा का उसी के अनुपात में जवाब
सुनिश्चित कर सकें।


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