(विश्व जनसंख्या दिवस 11 जुलाई पर विशेष) अनेक समस्याओं की जड़ है जनसंख्या वृद्धि

asiakhabar.com | July 10, 2021 | 4:54 pm IST

अर्पित गुप्ता

पूरी दुनिया की आबादी इस समय करीब 7.6 अरब है, जिसमें सबसे ज्यादा चीन की आबादी 1.43 अरब है जबकि
भारत आबादी के मामले में 1.35 अरब जनसंख्या के साथ विश्व में दूसरे स्थान पर है। विश्व की कुल आबादी में
से 17.85 फीसदी लोग भारत में रहते हैं और दुनिया के हर 6 नागरिकों में से एक भारतीय है। अगर भारत में
जनसंख्या की सघनता का स्वरूप देखें तो जहां 1991 में देश में जनसंख्या की सघनता 77 व्यक्ति प्रति वर्ग
किलोमीटर थी, 1991 में बढ़कर वह 267 और 2011 में 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो गई। भारत में बढ़ती
आबादी के बढ़ते खतरों को इसी से बखूबी समझा जा सकता है कि दुनिया की कुल आबादी का करीब छठा हिस्सा
विश्व के महज ढ़ाई फीसदी भूभाग पर ही रहने को अभिशप्त है। जाहिर है कि किसी भी देश की जनसंख्या तेज
गति से बढ़ेगी तो वहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी उसी के अनुरूप बढ़ता जाएगा। आंकड़ों पर नजर
डालें तो आज दुनियाभर में करीब एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं और अगर आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही
तो भुखमरी की समस्या एक बहुत बड़ी वैश्विक समस्या बन जाएगी, जिससे निपटना इतना आसान नहीं होगा।
बढ़ती आबादी के कारण ही दुनियाभर में तेल, प्राकृतिक गैसों, कोयला इत्यादि ऊर्जा के संसाधनों पर दबाव
अत्यधिक बढ़ गया है, जो भविष्य के लिए बड़े खतरे का संकेत है। जिस अनुपात में भारत में आबादी बढ़ रही है,

उस अनुपात में उसके लिए भोजन, पानी, स्वास्थ्य, चिकित्सा इत्यादि सुविधाओं की व्यवस्था करना किसी भी
सरकार के लिए आसान नहीं है।
जनसंख्या संबंधी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का आकलन करें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। रिपोर्ट के
मुताबिक वर्ष 2050 तक एशिया महाद्वीप की आबादी पांच अरब हो जाएगी और सदी के अंत तक दुनिया की
आबादी 12 अरब तक पहुंच जाएगी। 2024 तक भारत और चीन की जनसंख्या बराबर हो जाएगी और 2027 में
भारत चीन को पछाड़कर विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक चीन की
आबादी 140 करोड़ होगी जबकि भारत की आबादी 165 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। संयुक्त राष्ट्र की इस
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर बच्चों का जन्म होता है। हालांकि हम
इस बात पर थोड़ा संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि दर के वर्तमान आंकड़ों की देश की आजादी के
बाद के शुरूआती दो दशकों से तुलना करें तो 1970 के दशक से जनसंख्या वृद्धि दर में निरन्तर गिरावट दर्ज की
गई है लेकिन यह गिरावट दर काफी धीमी रही है। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में पिछले कुछ दशकों में
जनसंख्या वृद्धि की गति धीमी हुई है। वर्ष 1971-81 के मध्य वार्षिक वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत थी, जो 2011-16
में घटकर 1.3 प्रतिशत रह गई।
पिछले कुछ दशकों में देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में निरन्तर सुधार हुआ है, उसी का असर माना जा
सकता है कि धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि दर में थोड़ी गिरावट आई है लेकिन यह उतनी भी नहीं है, जिस पर जश्न
मनाया जा सके। बेरोजगारी और गरीबी ऐसी समस्याएं हैं, जिनके कारण भ्रष्टाचार, चोरी, अनैतिकता, अराजकता
और आतंकवाद जैसे अपराध पनपते हैं और जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण किए बिना इन समस्याओं का समाधान
संभव नहीं है। विगत दशकों में यातायात, चिकित्सा, आवास इत्यादि सुविधाओं में व्यापक सुधार हुए हैं लेकिन तेजी
से बढ़ती आबादी के कारण ये सभी सुविधाएं भी बहुत कम पड़ रही हैं। जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान स्थिति की
भयावहता को मद्देनजर रखते हुए पर्यावरण विशेषज्ञों की इस चेतावनी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता
कि यदि जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार में अपेक्षित कमी लाने में सफलता नहीं मिली तो निकट भविष्य में एक दिन
ऐसा आएगा, जब रहने के लिए धरती कम पड़ जाएगी। विश्वभर में अभी भी करीब डेढ़ अरब लोग ढ़लानों पर,
दलदल के करीब, जंगलों में तथा ज्वालामुखी के क्षेत्रों जैसी खतरनाक जगहों पर रह रहे हैं।
जहां तक प्रति हजार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या का सवाल है तो भले ही जनसंख्या वृद्धि दर धीमी गति से
घट रही है किन्तु यह भी कम चिन्ता का विषय नहीं है कि जनसंख्या वृद्धि दर घटते जाने के साथ-साथ प्रति
हजार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या भी घट रही है। निसंदेह यह सब पुत्र की चाहत में कन्या भ्रूणों को आधुनिक
मशीनों के जरिये गर्भ में ही नष्ट किए जाने का ही दुष्परिणाम है। जनसंख्या वृद्धि में अपेक्षित कमी लाने के
साथ-साथ जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान रखे जाने की भी नितांत आवश्यकता है कि पुरूष
और महिलाओं की संख्या का अनुपात किसी भी सूरत में न बिगड़ने पाए क्योंकि यदि यह अनुपात इसी कदर
गड़बड़ाता रहा तो आने वाले समय में इसके कितने घातक नतीजे सामने आएंगे, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर
सकते।
बढ़ती जनसंख्या जहां समूचे विश्व के लिए गहन चिन्ता का विषय बनी है, वहीं बढ़ती आबादी का सर्वाधिक
चिंतनीय पहलू यह है कि बढ़ती जनसंख्या का सीधा प्रभाव पर्यावरण पर पड़ रहा है। विश्व विकास रिपोर्ट के
अनुसार प्राकृतिक संसाधनों से जितनी भी आमदनी हो रही है, वह किसी भी तरह पूरी नहीं पड़ रही, दशकों से यही

स्थिति बनी है और इसे लाख प्रयासों के बावजूद सुधारा नहीं जा पा रहा। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक
सन् 2050 तक विश्व की दो तिहाई आबादी नगरों में रहने लगेगी और तब ऊर्जा, पानी तथा आवास की मांग और
बढ़ेगी जबकि बहुत से पर्यावरणविदों का मानना है कि सन् 2025 तक ही विश्व की एक तिहाई आबादी समुद्रों के
तटीय इलाकों में रहने को विवश हो जाएगी और इतनी जगह भी नहीं बचेगी कि लोग सुरक्षित भूमि पर घर बना
सकें। इससे तटीय वातावरण तो प्रदूषित होगा ही, पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ जाएगा।
इन सब बातों पर विमर्श करते हुए आज इस बात की नितांत आवश्यकता महसूस होने लगी है कि दुनिया के ऐसे
प्रत्येक देश में, जो जनसंख्या विस्फोट की समस्या से जूझ रहा है, जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम युद्धस्तर पर
चलाए जाएं और जनता को जागरूक करने के लिए विशेष अभियान चलाए जाएं। भारत जैसे विकासशील देश में तो
इसकी और भी ज्यादा जरूरत है क्योंकि हमारे यहां ऐसे कार्यक्रम प्रायः बड़े जोशोखरोश के साथ शुरू तो होते हैं
किन्तु अक्सर ऐसी योजनाएं शुरू होने के कुछ ही समय बाद टांय-टांय फिस्स होने लगती हैं। अतः जनसंख्या वृद्धि
पर नियंत्रण पाने के लिए हमें कुछ कठोर और कारगर कदम उठाते हुए ठोस जनसंख्या नियंत्रण नीति पर अमल
करने हेतु कृतसंकल्प होना होगा ताकि कम से कम हमारी भावी पीढि़यां तो जनसंख्या विस्फोट के विनाशकारी
दुष्परिणामों भुगतने से बच सकें।


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