आज की स्वार्थ परक राजनीति-चुनाव व प्रचार हेतु भरपूर पैसा…. मुआवजे के लिए नहीं….

asiakhabar.com | July 6, 2021 | 5:29 pm IST

विनय गुप्ता

आजकल हमारे भारत देश के साथ ”एक“ लगाने का राजनीतिक फैशन हो गई है, जैसे ”एक देश-एक चुनाव“, ”एक
देश-एक रॉशन कार्ड“, ”एक देश-एक कानून“ आदि आदि। किंतु यह संदेश सिर्फ राजनीतिक नारे तक ही सीमित है,

क्योंकि कोई राजनीतिक दल या उसका नेता यह कतई नहीं चाहता कि ऐसा कुछ इस देश में हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र
भाई मोदी जी ने आज से सात साल पहले प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद संसद में अपने पहले भाषण में ”एक
देश-एक चुनाव“ का नारा दिया था, जिसे स्पष्ट करते हुए कहा गया था कि देश में हर साल कुछ ही महीनों के
अंतराल से होने वाले संसद व विधान सभाओं के मुख्य व उपचुनावों के कारण देश का काफी समय व पैसा खर्च
होता है, इसलिए ऐसी व्यवस्था हो कि संविधान संशोधन के माध्यम से यह व्यवस्था कर दी जाए कि देश की संसद
तथा सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ एक ही समय पर करवाए जाएं, जिससे कि सरकार के पैसे
और समय के साथ राजनीतिक दलों की ऊर्जा की बचत हो सके। प्रधानमंत्री जी का विचार अच्छा था, सबकों पसंद
भी आया, सबने सहमति भी दी, किंतु उस घोषणा को पिछले सात साल के मोदी प्रशासन में तो मूर्तरूप नहीं मिल
पाया, इस विचार के पीछे सबसे बड़ी आपत्ती तो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की ही थी, जिसकी राजनीति का मूल
आधार मोदी है, यदि पूरे देश में एक साथ संसद व विधानसभाओं के चुनाव करवाये गए तो मोदी जी कहां-कहां
जाकर पार्टी की जीत तय करवा पाएगें? इसलिए प्रधानमंत्री जी को स्वयं अपनी घोषणा से पीछे हटना पड़ा और
संवैधानिक बहानेबाजी करनी पड़ी, अब इस ”एक देश-एक चुनाव“ के नारे की जगह ”एक देश-एक रॉशन कार्ड“ का
नारा आ गया है, इस नारे के लिए भी यह नहीं सोचा गया कि आखिर इस देश में रॉशन कार्ड से रॉशन प्राप्त करने
वाले है ही कितने लोग? फिर भी आज की राजनीति के लिए ऐसे कुछ नारे तो चाहिए ही?
इन दिनों सर्वाधिक चर्चा कोरोना महामारी से देश में मृत करीब चार लाख मृतकों के परिवारों को मुआवजा देने की
है, मोदी सरकार ने तो आर्थिक संकट व कानून नहीं होने का बहाना बना कर पहले ही मुआवजे से इंकार कर दिया।
मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो वहां भी सरकार ने प्राकृतिक विपदा के तहत दी जाने वाली आर्थिक
सहायता के कानून से महामारी को बाहर रख सुप्रीम कोर्ट को कह दिया कि महामारी से मृतकों को मुआवजा नहीं
दिया जा सकता, सरकार के पास न तो इतना पैसा है और न वह कानून यह मुआवजा दे ही सकती है। किंतु
सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की किसी भी दलील को स्वीकार नहीं किया तथा स्पष्ट निर्देश दे दिये कि कोरोना से
मृत करीब चार लाख परिवारों को मुआवजा दिया जाए, मुआवजे के बतौर कितनी राशि दी जाए? यह फैसला
सरकार पर छोड़ दिया गया तथा आगामी छ: सप्ताह में फैसला करने का निर्देश दिया गया।
इस फैसले से सरकार सकते में आ गई और फिलहाल वह फैसले पर कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने या जवाब देने
की स्थिति में नहीं है। वह इसलिए क्योंकि यदि याचिका के अनुरूप चार लाख रूपए प्रति मृतक परिवार मुआवजा
तय किया जाता है तो सरकार को इस हेतु करीब सोलह सौ अरब रूपए चाहिए और इससे कम यदि एक या दो
लाख रूपया मुआवजा तय किया जाता है तो इसमें सरकार की बदनामी की संभावना बढ़ जाती है, इसलिए सरकार
फिलहाल इस बारे में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रही है। किंतु यह सही है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले
के बाद सरकार की मुआवजा वितरित करने की बाध्यता तय हो गई है।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने जहां न्याय पालिका के प्रति देश की आम जनता की विश्वसनियता बढ़ा दी है,
वहीं आज की राजनीति के सामने भी अनेक सवाल खड़े कर दिए है। सबसे बड़ा और अहम सवाल यह है कि यदि
देश में सत्तारूढ़ दल व अन्य राजनीतिक दल अपने चुनाव प्रचार व प्रत्याशियों के खर्च पर प्रति चुनाव अरबो-खरबों
रूपए खर्च कर सकते है और सत्ता की खरीद-फरोख्त कर सकते है तो फिर महामारी से मृत चार लाख लोगों के
परिवारों को मुआवजे के रूप में कुछ खरब की राशि वितरित क्यों नहीं कर सकते। क्या सिर्फ वोटर के जिन्दा रहने
तक ही उसकी सरकारी पूछ-परख है, उसके मरने के बाद नहीं? यह सरकार की कहां की मानवीयता है?
जो भी हो, अब यह मामला मोदी सरकार की साख से तो जुड़ ही गया, अब देखते है, सरकार का ”ऊँट“ किस
करवट बैठता है? फिर भी उसे बैठना तो उसकी करवट पड़ेगा, जो करवट सर्वोच्च न्यायालय ने बताई है? इस एक
फैसले से न्याय पालिका अब प्रजातंत्र के तीनों अंगों में सर्वोपरी व सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो गई है।


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