सुरेंदर कुमार चोपड़ा
हमारे देश में केवल 3 दशक पूर्व तक जब आम लोगों को वर्तमान में प्रचलित शोधित जल के 'फ़नडे' के बारे में
ज्ञान नहीं था तब तक प्रत्येक आम भारतीय कुंवे या पाईप लाइनों से आपूर्ति किये जाने वाले जल का ही उपयोग
किया करता था। परन्तु आज शहरी आबादी का तो अधिकांश वर्ग यहाँ तक कि क़स्बे व गांव तक के सम्पन्न लोग
भी शुद्ध जल के नाम पर या तो बोतल बंद पानियों का इस्तेमाल करने लगे हैं या शहरों से लेकर गांव तक में
जल शुद्धिकरण के व्यवसाय खुल गए हैं या फिर अनेक कंपनियों की तरह तरह की जल शुद्धिकरण की मशीनें
घर घर लग चुकी हैं। यह और बात है कि अनेक विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि जल शुद्धिकरण के नाम पर किये
जाने वाले जल शोधन प्रसंस्करण से पानी में प्रकृतिक रूप से पाए जाने वाले मिनरल्स समाप्त हो जाते हैं। परन्तु
ऐसे विशेषज्ञों की आवाज़ मद्धिम पड़ चुकी है और पूरे विश्व में जल व्यवसाय शायद सबसे बड़े व्यव्साय का रूप ले
चुका है। अब ज़रा याद करने की कोशिश कीजिये कि सर्वप्रथम हमें विभिन्न प्रचार माध्यमों के द्वारा यह समझाने
की कोशिश की गयी कि आमतौर पर प्रचलित कुंवे,हैण्ड पंप व पाइप लाइन से मिलने वाला पेय जल प्रदूषित
है,ज़हरीला है,हड्डियों को कमज़ोर करता है,कैंसर जैसी बीमारी का कारक है वग़ैरह वग़ैरह। और बड़े पैमाने पर इस
तरह का दुष्प्रचार कर धीरे धीरे जल विक्रेता कंम्पनियों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए। आज की स्थिति सब के
सामने है। तो क्या पूरा देश शोधित या बोतल वाला पानी पी रहा है ? जी नहीं,केवल वही लोग शोधित जल या
बोतल वाला पानी पी रहे हैं जो इतना पैसा ख़र्च कर सकते हैं। अन्यथा देश की एक बड़ी आबादी आज भी उसी
सामान्य व पूर्व प्रचलित जल का सेवन कर रही है जो सदियों व दशकों से करती आ रही है। न कहीं से जल पीने
के कारण मौत की ख़बर आती है न ही किसी बीमारी के फैलने की। हाँ, सामान्य व पूर्व प्रचलित जल के विरुद्ध
दुष्प्रचार ने शुद्ध जल के नाम पर जल व्यवसाय का बड़ा साम्राज्य ज़रूर स्थापित कर लिया। गोया शोधित जल को
बाज़ार में उतारने से पूर्व नियमित उपयोग में आने वाले जल की विश्वसनीयता के विरुद्ध एक योजनाबद्ध प्रचार
अभियान चलाकर उपभोक्ताओं के मस्तिष्क में यह बिठाने का सफल प्रयास किया गया कि सामान्य जल ज़हरीला
व प्रदूषित है,इसे पीने से तरह तरह की बीमारियां लग सकती हैं और जान भी जा सकती है। उसके बाद विशाल
शोधित जल व्यवसाय ने अपने पांव पसारे। आज भी आप किसी साबुन,वाशिंग पाउडर या टूथ पेस्ट का विज्ञापन
देखें तो प्रायः इन विज्ञापनों में कंम्पनियां किसी दूसरे उत्पाद को 'साधारण उत्पाद ' बताकर उसके नुक़सान बताती
हैं फिर अपने उत्पाद के फ़ायदे। यही है उपभोक्ताओं को अपनी और आकर्षित कर अपना माल बेचने का फंडा।
पतंजलि आयुर्वेद संसथान के कर्ता धर्ता रामदेव का भी कुछ ऐसा ही तर्ज़-ए-तिजारत है। चूँकि उन्हें आयुर्वेद व
स्वदेशी के नाम पर बनाए जा रहे अपने विभिन्न उत्पादों को जनता तक पहुँचाना है लिहाज़ा उन्होंने यह महसूस
किया कि शायद एलोपैथी चिकित्सा पद्धति उनकी आयुर्वेद व्यवसाय के प्रसार की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है।
लिहाज़ा आज से नहीं बल्कि कई वर्षों से उनका पूरा ज़ोर इसी बात पर रहता है कि किसी तरह एलोपैथी चिकित्सा
पद्धति व एलोपैथी दवाइयों को छोटा,हानिकारक या अलाभकारी बताकर या उसे नीचा दिखाकर उसकी जगह
आयुर्वेद विशेषकर आयुर्वेद के पतंजलि निर्मित उत्पादों को प्रचलित व लोक सम्मत किया जाए। जबकि आज तक
कभी भी किसी एलोपैथी चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञों को आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की बुराई करते या उसका
उपहास उड़ाते नहीं देखा व सुना गया। परन्तु रामदेव ने तो इंतेहा ही कर दी। उन्होंने एलोपैथी का मज़ाक़ तो उड़ाया
ही साथ ही उन डॉक्टर्स की मौत का भी मज़ाक़ बनाया जो कोरोना मरीज़ों का इलाज करने के दौरान संक्रमित
होकर शहीद हो गए ? परन्तु जो रामदेव यह कहा करते थे कि 'मुझे तो किसी का बाप भी गिरफ़्तार नहीं कर
सकता' वही रामदेव अब पूरी तरह बैक फ़ुट पर आए दिखाई दे रहे हैं। उनका यह ग़ुरूर तब टूटा है जबकि पिछले
दिनों भारतीय चिकित्सक संघ द्वारा रामदेव के विरुद्ध देश के कई राज्यों में एफ़ आई आर कराने की कार्रवाई शुरू
की गयी और आईएमए द्वारा उनके एक हज़ार करोड़ रूपये के मानहानि के मुक़द्द्मे दायर करने के समाचार आए।
अब तक उनके विरुद्ध,बिहार,छत्तीसगढ़,राजस्थान,उत्तरांचल,दिल्ली व बंगाल सहित कई राज्यों से एफ़ आई आर दर्ज
किये जाने की ख़बरें आ चुकी हैं। इनमें अधिकांश मुक़द्द्मे धारा 188, 420, 467,120बी, भादस संगठित धारा 3,
4, राजस्थान एपीडेमिक डिजीज ऑर्डिनेंस 2020, धारा 54, आपदा प्रबंधन अधिनियम एवं धारा 4/7 और ड्रग्स एंड
मेजिक रेमेडीज एक्ट 1954 के अंतर्गत दर्ज हुए हैं जोकि दंडनीय अपराध हैं।
इन्हीं समाचारों के बीच रामदेव के सुर कुछ ऐसे बदले हैं कि यही एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति व डॉक्टर्स जो उन्हें
अयोग्य नज़र आ रहे थे अब उन्हीं डॉक्टर्स में वे ‘धरती पर भगवान के दूत’ का रूप देखने लगे हैं। जो वैक्सीन
लगाने से वे सरे आम मना कर रहे थे वह अब वैक्सीन लगवाने को भी राज़ी हो चुके हैं। अब टर्र टर्र बताने वाले
डॉक्टर्स को वे वरदान और धरती पर भगवान का दूत बता रहे हैं और आपातकालीन उपचार और शल्य चिकित्सा के
लिए तो एलोपैथी को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति तक बता रहे हैं। दरअसल रामदेव ने एलोपैथी विरोध का जो पूरा
नाटक रचा था उसका मुख्य कारण यही था कि वे इसी एलोपैथी विरोध की आड़ में अपना पतंजलि आयुर्वेद
व्यव्साय का विस्तार करना चाह रहे थे। इसीलिये वे हमेशा जल्दी में भी नज़र आते थे ताकि कोरोना महामारी के
रहते वे भारत जैसे विशाल बाज़ार से और विश्व में अन्यत्र बसे भारतवासियों से ख़ूब दौलत कमा सकें। नितिन
गडकरी व डाक्टर हर्षवर्धन जैसे वरिष्ठ मंत्रियों को बुलाकर कोरोनिल नामक स्वनिर्मित कथित दवा का परिचय
कराना भी उसी 'शुद्ध व्यवसायिक योजना' का हिस्सा था। परन्तु चूँकि यह काल व वातावरण कोरोना जैसी भीषण
महामारी का था और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित पूरे विश्व की निगाहें रामदेव की कुटिलतापूर्ण चलायी जा रही
उनकी व्यवसायिक गतिविधि पर थी इसलिए रामदेव की न केवल ज़ुबान दराज़ियाँ उन्हें मंहगी पड़ीं बल्कि उन्हें इस
बात का भी एहसास हुआ कि जिन डॉक्टर्स को वे टर्र टर्र कह कर संबोधित कर रहे थे दरसल रामदेव स्वयं ही 'टर्र
टर्र' कर रहे थे। रामदेव ने इस पूरे प्रकरण में आम जनता,डॉक्टर्स तथा शासन व सत्ता के समक्ष अपनी
विश्वसनीयता खोई है। इसका केवल एक ही कारण था कि वे अपने कुतर्कों के द्वारा एलोपैथी चिकित्सा व
चिकित्सकों को अपमानित कर उसकी जगह पतंजलि के अप्रमाणित उत्पादों को बेचना छह रहे थे। यानी वे बड़ी
लकीर को मिटाकर अपनी लकीर बड़ी करने की 'कुटिल प्रवृति ' का शिकार थे।